विद्वान् धनंजय का पक्ष प्रबल है- यह बात राजा भोज समझ चुके थे, परन्तु कालिदास को सन्तोष के लिए व शास्त्रार्थ कौतुक देखने के लिए उन्होंने स्वामी मानतुंग के निकट एक दूत भेजा। दूत ने वन में विराजमान मुनिराज की वन्दना की और कहा- आपकी ख्याति सुनकर राजा ने दर्शनार्थ आपको राजदरबार में बुलाया है। मुनिराज ने उत्तर दिया--साधुओं को राजा से कुछ सम्बंध नहीं है न हम वहां जा सकते हैं।
राजा मुनिराज के उत्तर को सुन असंतुष्ट हुए, पुनः चार बार दूत भेजा। पर वीतरागी सन्तों को क्या प्रयोजन? जो राजदरबार में जायें। पांचवी बार कालिदास ने राजा को उकसाने का कार्य किया। राजा ने तीव्र क्रोध के वश हो हुक्म दिया- जैसे भी हो उन्हें पकड़कर ले आओ। कई बार के भटकते हुए ये सेवक यही चाहते थे, अतः आचार्य मानतुंग को शीघ्र राज्य सभी में लाकर खड़ा कर दिया।
उस समय मानतुंग ने उपसर्ग समझकर मौन धारण कर साम्यभाव को अपना मित्र बनाया। राजा ने बहुत चाहा ये कुछ बोलें परंतु मुनिराज के मुख से एक अक्षर भी नही निकला। तभी कालिदास और अन्य ब्रह्मणों को अवसर मिला वे नाना ताड़नाएं देने लगे- यह महामूर्ख है, राजसभा से भयभीत है, आपके प्रताप को सह नहीं सकने से कुछ बोलता नहीं है। इस पर कुछ सज्जनों ने मुनिराज से प्रर्थाना की कि आप सन्त हैं इस समय सबको धर्मोपदेश देना चाहिए, राजा विद्याविलासी है सुनकर सन्तुष्ट होंगे परंतु धीर-वीर महासाधु मेरूवत् अचल रहे। राजा ने क्रोधित हो हथकड़ी डालकर उन्हें 48 कोठरियों के भीतर मजबूत तालों में कैद कर दिया और पहरेदार बैठा दिये।
मुनिराज तीन दिन तक बन्दीगृह में रहे। प्रभु भक्ति में लीन हो आदिनाथ प्रभु के चरण-कमलों को ध्यान का आश्रय बना स्तुति रचना प्रारम्भ की। ज्योंही यन्त्र-मन्त्र और ऋद्धि से गर्भित आदिनाथ प्रभु का स्तोत्र पढ़ते गये तभी हथकड़ी, बेड़ी और सब तोले टूटते गये, खट-खट सब द्वार खुल गये, मुनिराज बाहर निकल कर चबूतरे पर जा विराजे। बेचारे पहरेदारों को बड़ी चिन्त हुई। उन्होंने बिना किसी से के सुने फिर उसी तरह उनहें कैद कर दिया। परंतु थोडत्री ही देर में फिर वही दशा हुई, सेवकों ने फिर वैसा ही किया पर श्रीमानतुंगाचार्य फिर बाहर आ विराजे। अबकी बार सेवकों ने राजा से आके निवेदन किया और स्वामी के बन्ध रहित हाने से वृत्तान्त सुनाया। यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ परंतु पीछे यह सोचकर कि शायद रक्षा में कुछ प्रमाद हुआ होगा, इसलिये सेवकों से फिर कहा कि उन्हें उसी तरह बन्द कर दो और खूब निगरानी रक्खो। सेवकों ने वैसा ही किया, परंतु फिर यह हाल हुआ कि वे सकलव्रती साधु बाहर निकल कर सीधे राज्यसभा में ही जा पहुंचे।
महात्माजी के दिव्य शरीर के प्रभाव से राजा का हृदय कांप गया। उन्होंने कालिदास को बुलाकर कहा कि कविराज! मेरा आसन कम्पित हो रहा है, मैं अब इस सिंहासन पर क्षण भी भी नहीं ठहर सकता हूं। कालिदास ने राजा को धैर्य बंधाया औरउसी समय योगासन पर बैठकर कालिका स्तोत्र पढ़ना शुरू कर दिया। तो थोड़े ही समय में कालिका देवी प्रकट हुई। इतने में मुनिराज के समीप चक्रेश्वरी देवी ने दर्शन दिये। चक्रेश्वरी का रूप सौम्य और कालिका का विकराल, चण्डी रूप देखकर राज्यसभा चकित हो गई। चक्रेश्वरी ने ललकार कर कहा कि कालिके! तू यहां क्यों आई? क्या अब तूने मुनि महात्माओं पर उपसर्ग करने की ठानी है? अच्छा देख अब मैं तेरी कैसी दशा करती हूं। प्रभावशालिनी चक्रेश्वरी को देखकर कुटिल कालिका कांप गई। और नाना प्रकार से स्तुति करके लगी कि हे माता! क्षमा करो। अब मैं ऐसा कृत्य कभी नहीं करूंगी। इस पर चक्रेश्वरी ने काली को बहुत सा उपदेश दिया और अन्तर्धान हो गई। इसके पश्चत् कालिका ने मानतुंग आचार्यश्री से क्षमा प्रार्थना की और अदृश्य हो गयी।
राजा और कालिदास ने मानतुंग आचार्य का प्रताप देखकर क्षमा मांगी और नाना प्रकार की स्तुति की, राजा भोज ने मुनिराज से श्रावक के व्रत लिये और अपने राज्य में जैनधर्म का खूब प्रचार किया, जिससे आज तक धर्म हरा-भरा बना है। नव देवता स्तवन