अन्वयार्थ-(त्रिभुवनैकललामभूत!) हे त्रिभुवन के एक मुकुट रूप जिनेन्द्र ! (यैः) जिन (शान्तरागरूचिभिः) राग रहित उज्ज्वल, सुन्दर (परमाणुभिः) परमाणुओं के द्वारा (त्वम्) आप (निर्मापित) रचे गये हैं (खलु) निश्चय से (ते अणवः अपि) वे परमाणु भी (पृथिव्याम्) पृथ्वी पर (तावन्तः) एवं (बभूवः) उतने ही थे (यत्) क्योंकि (ते समानम्) आपके समान (अपरम्) दूसरा (रूपम्) रूप (न हि अस्ति) नहीं है।
भावार्थ-हे नाथ! देव, मनुष्य, धरणेन्द्र के नेत्रों को मोहित करने वाले, आपने तीन लोक की उपमाओं को जीत लिया है आपके रूप की उपमा चन्द्रमा से भी नहीं की जा सकती, क्योंकि वह दिन में फीका पड़ जाता है। वह कलंक युक्त है, आप कलंक रहित है।
प्रश्न - 1भगवन् का रूप कैसा है?
उत्तर- इन्द्र धरणेन्द्र और चक्रवर्ती के मन को मोहित करने वाला, लोक की समस्त उपमाओं को जीतने वाला, जिनेन्द्र देव का अनुपम रूप है।
प्रश्न - 2क्या भगवान् का रूप चन्द्रमा के समान सुन्दर है?
उत्तर- नहीं! भगवान् ने तीन लोक की उपमाओं को जीत लिया है। भगवान् के मुख को चन्द्रमा की उपमा नहीं दे सकते हैं, कारण-
1 - चन्द्रमा कलंक सहित होता है।
2 - चन्द्रमा की शोभा दिन में फीकी पड़ जाती है, परन्तु जिनेन्द्र दे! अपके मुख की शोभा कभी नहीं पड़ती है।