अन्वयार्थ-(अस्तसमस्तदोषम्) सम्पूर्ण दोषों से रहित (तव) आपका (स्तवनम्) स्तवन (आस्ताम्) दूर रहे किन्तु (त्वत्सकथा अपि) आपकी सम्यक् पवित्र कथा आपका नाम मात्र भी (जगतां) संसारी जीवों के (दुरितानि) पापों को (हन्ति) नष्ट कर देती हैं (सहस्त्रकिराः) सूर्य (दूरे अस्ति) दूर रहता है पर उसकी (प्रभा एवं) प्रभा ही (पद्माकरेषु) तालाब में (जलजानि) कमलों को (विकास भांजि कुरूते) विकसित कर देती है।
भावार्थ-हे निर्दोष प्रभो! आपका स्तवन तो अनन्त सुखदायी है ही पर आपका नाम लेने मात्र से ही संसारी जीवों के अनन्त पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे कि सूर्य तो दूर रहता है किन्तु उसकी किरण मात्र ही कमलों को विकसित कर देती है।
प्रश्न - 1जिनेन्द्र देव कैसे होते है?
उत्तर- जिनेन्द्र देव समस्त दोषों से रहित निर्दोषी होते हैं।
प्रश्न - 2दोष कितने होते हैं?
उत्तर- दोष 18 होते हैं- (1) जन्म (2) जरा (3) तृषा (4) क्षुधा 5. आश्चर्य 6. आर्त (7) दुःख (8) रोग (9) शोक (10) मद (11) मोह (12) भय (13) निद्रा (14) चिन्ता (15) पसीना (16) राग (17) द्वेष (18) मरण ये दोष जिसमें नहीं पाये जाते हैं वे जिनेन्द्र कहलाते है।
प्रश्न - 3 जिनेन्द्र देव के नाम मात्र लेने की महिमा उदाहरण से बताओ?
उत्तर- जैसे हजारों किरणों युक्त सूर्य तो दूर रहता है उसकी किरणें मात्र ही तालाब में कमल को विकसित कर देती है वैसे ही जिनेन्द्र भगवान् का पूरा स्तोत्र तो अचिन्त्य फलदायी है ही परन्तु उनका नाम मात्र लेने से या उनकी चर्चा मात्र या कथा मात्र भी संसारी जीवों के पापों को नष्ट कर देती है।