।। सिंहासन प्रातिहार्य ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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सिंहासने मणि-मयूख-शिखा - विचित्रे,
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातं।
बिम्बं वियद्विलसदंशु-लता-वितानं,
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव-सहस्त्र-रश्मेः।।29।।
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अन्वयार्थ-(मणिमयूख शिखाविचित्रे) रत्नों की किरणों के अग्रभाग से चित्र-विचित्र (सिंहासने) सिंहासन पर (तव) आपका (कनकावदातम्) सुवर्ण की कांति सम उज्ज्वल (वपुः) शरीर (तुंगोदयाद्रि शिरसि) ऊंचे उदायचल के शिखर पर (वियद्विलसदंशुलतावितानम्) आकाश में शोभायमान है किरणरूपी लताओं का समूह जिसका ऐसे (सहस्त्ररश्मेः) सूर्य के (बिम्बम् इव) मण्डल की तरह (विभ्राजते) शोभायमान हो रहा है।

भावार्थ-हे प्रभों! उदायचल की चोटी पर सूर्य का बिम्ब जैसा सुन्दर लगता है वैसे ही रत्नों के सिंहासन पर आपका मनोहर शरीर शोभा को प्राप्त होता है। यह सिंहासन प्रातिहार्य का वर्णन है।

प्रश्न - 1सिंहासन प्रातिहार्य की विशेषताएं बताइये?

उत्तर- रत्नमयी सिंहासन था। सिंहासन पर तीन लोक की उपमाओं को जीतने वाले तीर्थंकर देव अधर विराजमान थे। (चार अंगुल ऊपर विराजमान थे)।

प्रश्न - 2यह हमें क्या शिक्षा देता है?

उत्तर- यह प्रातिहार्य हमें निम्न शिक्षा दे रहा-

1 - हे मानव! सम्पत्ति प्राप्त करना गुनाह नहीं है, सम्पत्ति में आसक्ति गुनाह है।

2 - पुण्य संचय करना दुःख नहीं है, पुण्य के फल में आसक्ति दुःख का कारण है।

3 - सिंहासन प्रातिहार्य शिक्षा देता है- कीचड़ में कमल की तरह निर्लिप्त रहो।

4 - आप का मानव लकड़ी के सिंहासन क्या, लकड़ी के टुकड़े को भी छोड़ना नहीं चाहता है। गद्दी के लोभ में जीवन को बर्बाद करता है वहीं अरहन्त भगवान् तीन लोक की निधि पाकर भी सिंहासन पर बैठने को राजी नहीं हुए और उससे अधर विराजमान हो गये।