।। दोषों से रहित गुणों के स्वामी ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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के विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैं-
स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश!
दोषैरूपात्त-विविधाश्रय-जात-गवैंः,
स्वप्नांतरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि।।27।।
jain temple436

अन्वयार्थ-(मुनीश!) हे मुनियों के स्वामी! (यदि नाम) यदि (निरवकाशतया) अन्य जगह स्थान न मिलने के कारण (त्वम्) आप (अशेषैः) समस्त (गुणैः) गुणों के द्वारा (संश्रितः) आश्रित हुए हो और (उपात्तविविधाश्रय जातगर्वैः) प्रात्प हुए अनेक आधर से उत्पन्न हुआ है अहंकार जिनको ऐसे (दोषैः) दोषों के द्वारा (स्वप्नान्तरे अपि) स्वप्न के मध्य में भी (कदाचित् अपि) कभी भी (न ईक्षितः असि) नहीं देखे गये हो (तर्हि) तो (अत्र) इस विषय में (कः विस्मयः) क्या आश्चर्य हैं? कुछ नहीं।

भावार्थ-गुणों को संसार में अन्य स्थान नहीं मिला इसलिए लाचार हो आपकी शरण में आ गये, परन्तु दोषों को अन्य स्थानों की कमी नहीं थी, इसलिये वे स्वप्न में भी आपके पास नहीं आये। तात्पर्य यही है कि आप गुणवान हैं आप दोषों से बिल्कुल रहित हैं।

प्रश्न - 1दोषों का स्थान कौन-सा है?

उत्तर- दोष सर्वत्र रहते हैं। दुर्जनों के पास तो दोष सदैव ही रहते हैं।

प्रश्न - 2गुणों का स्थान कहां है?

उत्तर- गुणों का स्थान गुणवानों में है। आदिनाथ भगवान् गुणों के स्वामी थे। स्वप्न में भी उनके पास दोष नहीं आते हैं।