अन्वयार्थ-(नाथ!) हे स्वामिन्! (तमः सु युष्मन्मुखेन्द्र) (‘‘सत्सु’’) अन्धकार के आपके मुखचन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाने पर (शर्वरीषु) रात में (शशिना) चन्द्रम से (अन्य) अथवा (अह्नि) दिन में (विवस्वता) सूर्य से (किम्) क्या प्रयोजन है? (निष्पत्रशालिनि) पैदा हुई धान्य के वनों से शोभायमान (जीलोके) संसार में (जलभारनम्रैः) पानी के भार से झुके हुए (जलधरैः) मेघों से (कियत्) कितना (कार्यम्) काम रह जाता है।
भावार्थ-हे प्रभो? जिस तरह संसार में धान्य के पक जाने पर बादलों से कोई लाभ नहीं होता उसी तरह आपके मुखचन्द्र के द्वारा अन्धकार के नष्ट हो जाने पर दिन में सूर्य से और रात में चन्द्रमा से कोई लाभ नहीं है।
प्रश्न - 1संसार में धान्य के पक जाने पर बादलों से कोई प्रयोजन होता है क्या?
उत्तर- नहीं! धान्य के पकने के बाद पानी के भार से लदे बादल निष्प्रयोजन हैं।
प्रश्न - 2 जिनेन्द्रदेव के मुखमण्डल का प्रकाश अंधकार का नाशक कैसे है?
उत्तर- सूर्य और चन्द्रमा बाहरी अन्धकार के नाशक हैं परन्तु भगवान् का मुखमण्डल मोहरूपी अंतरंग अन्धकार का नाशक है। इसीलिये जिसके भीतर भगवान् का मुखमण्डल प्रकाशमान है उसको दिन में सूर्य और रात्रि में चन्द्रमा से कोई लाभ नहीं होता है।
अन्वयार्थ- (कृतावकाशं) अवकाश को प्राप्त (ज्ञानम्) ज्ञान (यथा) जिस तरह (त्वयि) आपमें (विभाति) शोभायमान होता है (एवं तथा) उस तरह (हरिहरादिषु) विष्णु, शंकर आदि (नायकेषु) देवों में (न) शोभायमान नहीं होता है (तेजः) तेज (स्फुरन्मणिषु) चमकती हुई मणियों में (यथा) जैसे (महत्वम्) महत्व को (याति) प्राप्त होता है (तु) निश्चय से (तथा) वैसे महत्व को (किरणाकुले अपि) किरणों के व्याप्त भी (काचशकले) कांच के टुकड़े में (न याति) प्राप्त नहीं होता है।
भावार्थ- हे विभो! लोक अलोक को जानने वाला निर्मल ज्ञान जिस तरह आप (तीतरागी देव) में शोभा को प्राप्त होताहै उस तरह ब्रह्मा, विष्णु, महादेव आदि देवों में नहीं होता। तेज की शोभा महामणि में होती है, कांच के टुकड़े में नहीं।
प्रश्न - 1 लोक-अलोक को जानने वाला ज्ञान किसमें पाया जाता है?
उत्तर- लोकालोक को जानने वाला निर्मल ज्ञान वीतराग-सर्वज्ञ हितोपदेशी अर्हन्त भगवान् आदिनाथ में पाया जाता है।
प्रश्न - 2 ब्रह्मा-विष्णु-महादेव को जैनधर्म क्यों नहीं मानता है सिर्फ आदिनाथ या महावीर को ही क्यो मानता है?
उत्तर- जैनधर्म नाम की पूजा नहीं करता। यहां गुणों की पूजा की गई है। ब्रह्मा हो या विष्णु या महादेव यदि उनमें वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशीपना हो तब तो वे भी पूज्य हैं, नही ंतो आदिनाथ, महावीर नाम हैं पर वे गुण नहीं है तो महावीररादि भी हमारे लिये पूज्य नहीं है।
जो स्वयं राग-द्वेषादि विकारों से दुःखी हैं वे दूसरे को सुखी कैसे बना सकते हैं।