।। पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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मंदार-सुन्दर-नमेरू-सुपारिजात-
संतानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरूद्धा।
गंधोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरूत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतति ते चवसां ततिर्वा।।33।।
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अन्वयार्थ-(गन्धेदबिन्दु-शुभमन्द-मरूत्प्रपाता) सुगन्धित जल की बूंदों और उत्तम मन्द हवा के साथ प्रपात-गिरना जिसकी ऐसी (उद्धा) श्रेष्ठ और (दिव्या) मनोहर (मन्दारसुन्दर-नमेरूसुपारिजजातसन्तानकादिकुसुमोत्कर वृष्टिः) मन्दार, सुन्दर, नमेरू, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के फूलों के समूह की वर्षा (ते) आपके (वचसाम्) वचनों की (ततिः वा) पंक्ति की तरह (दिवः) आकाश से (पतित) पड़ती है।

भावार्थ-हे नाथ! सुगन्धित जल अैर मन्द हवा के साथ आकाश से जो कल्पवृक्ष के फूलों की वर्ष होती है वह आपकी मनोहर वचनावली की तरह शोभित होती है। यह पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य का वर्णन हुआ।

प्रश्न - 1 पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य क्या दर्शाता है?

उत्तर- पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य में-फूलों की वर्षा जिनेन्द्रदेव के मधुर वचनों को दिखाती है। जिनेन्द्रदेव व सच्चे गुरू के वचन कैसे होते है-

जग सुहितकर सब अहितहर श्रुति सुखद सब संशय हरैं।
भ्रम रोग हर जिनके वचन मुख चन्द्रतैं अमृत झरै।।

भगवान् के ऊपर पुष्पवृष्टि, अमृतमयी झरनेवाले वचनों को बताती है।

उत्तर- वह प्रातिहार्य शिक्षा देता है-

1 - पुष्पों की तरह हमेशा हंसते रहो।

2 - समता भाव को जीवन में धारण करो।

3 - वाणी हमेंशा हित, मित और प्रिय बोलो।