।। रणरंग विजय ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे।
युद्धे विजित-दुर्जय-जेय-पक्षा-
स्त्वत्पाद-पंकुज-वनाश्रयिणो लभन्ते।।43।।
jain temple452

अन्वयार्थ- (त्वत्पादपंकजवनाश्रयिणः) आपके चरणरूप कमलों के वन का आश्रय लेने वाले पुरूष (कुन्ताग्रभिन्नगजशोणित-वारिवाहवेगावतारतर-णातुरयोधभीमे) भालों के अग्रभाग से विदारे गये हाथियों के खूनरूपी जल के प्रवाह को वेग से उतरने और तैरने में व्यग्र योद्धाओं के द्वाराभयंकर (युद्धे) युद्ध में (विजितदुर्जयजेयपक्षाः सनतः) जीत लिया है मुश्किल से जीतने योग्य शत्रुओं के पक्ष को जिन्होंने ऐसे होते (जयम्) विजय (लभन्ते) पाते हैं।

भावार्थ- हे, भगवान्! जे आपके चरणों का सहारा लेते हैं वे भयंकरसे भयंकर भी युद्ध में निश्चित विजय पाते हैं।

प्रश्न -1 युद्ध में विजय किसकी होती है?

उत्तर - जो भगवान् के चरण कमलरूपी वन का आश्रय लेते हैं, भयंकर से भयंकर युद्ध में उसी की विजय होती है।

प्रश्न -2 उदाहरण दीजिये?

उत्तर - पाण्डवों ने प्रभु के नाम का सहारा लेकर कौरवों से विजय पायी। राम-लक्ष्मण ने प्रभु नाम का आश्रय लेकर युद्ध में रावण से विजय पायी।