।। लघुत - प्रकाशन ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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बुद्धय्या विनापि विबुधार्चित-पाठ पीठ!
स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगत-त्रपोऽहं।
बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु - बिम्ब-
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्।।3।।
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अन्वयार्थ- (विबुधार्चितपादपीठ!) देवों के द्वारा पूजित है जिनका सिंहासन ऐसे हे जिनेन्द्र! (अहं) मैं (बुऋया विना अपि) बुद्धि रहित होने पर भी (विगतत्रपः) लज्जा रहित (स्तोतुं) स्तुति करने के लिए (समुद्यतमति) सम्यक् प्रकर से उद्यत हो रहा हूं (जलसंस्थितम्) जल में स्थित या प्रतिबिम्बित (इन्दुबिम्बम्) चन्द्रमण्डल को (साहस) अचानक (ग्रहीतुम्) पकड़ने के लिए (वालम्) बालक-मूर्ख को (विहाय) छोड़कर (अन्यः) दूसरा (कः जनः) कौन मुनष्य (इच्छति) इच्छा करता है? अर्थात् कोई भी नहीं।

भावार्थ- हे जिनेन्द्र देव! जिस प्रकार मूर्ख बालक निर्लज्ज होकर जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा को पकड़ना चाहता है, उसी तरह लज्जारहित मैं बुद्धिरहित होता हुआ भी आपकी स्तुति करना चाहता हूं।

प्रश्न - 1 यहां श्लोक में क्या दर्शाया गया है? समझाइये?

उत्तर- महामुनि मानतुंगाचार्य ने अपनी लघुता का प्रकाशन किया है- हे भवन्, मैं बुद्धिरहित हूं। मैं निर्लज्ज हूं जो ऐसे कार्य को करने का साहस कर रहा हूं।

प्रश्न - 2 उदाहरण क्या दिया है?

उत्तर- एक बालक या मूर्ख जैसे जल में पड़े चन्द्रबिम्ब को पकड़ने की इच्छा करता है वैसे अज्ञानी बालक के समान मैं भी हूं।

प्रश्न - 3 यहां सम्यक् शब्द क्यों दिया है?

उत्तर- प्रभु की स्तुति सम्यक् याने अच्छी तरह एकाग्रचित होकर करनी चाहिए। मन-वचन-काय की चंचलता से रहित की गई स्तुति ही सम्यक् कहलाती है।

वक्तुं गुणान् गुण-समुद्र! शशांक-कान्तान्,
कस्ते क्षमः सुर-गुरू-प्रतिमोऽपि बुद्धया।
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्।।4।।

अन्वयार्थ- (गुणसमुद्र!) हे गुणों के समुद्र! (ते शशांककान्तान्) आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर (गुणान्) गुणों को (वक्तुं) कहने के लिए (सुरगुरूप्रतिमः अपि) वृहस्पति के सदृश भी (कः) कौन (क्षमः) समर्थ है? (वा) अथवा (कल्पान्तकाल-पवनोद्धत-नक्रचक्रम्) प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे (अम्बुनिधिम्) समुद्र को (भुजाभ्याम्) भुजाओं के द्वारा (तरीतुम!) तैरने के लिए (कः अलम्) कौन समर्थ? अर्थात कोई नहीं।

भावार्थ- हे नाथ! जिस प्रकार प्रलयकाल की तीक्ष्ण वायु से लहरातेे हुए और हिंसक क्रूर जन्तुओं से भरे हुए समुद्र को कोई भी भुजाओं से नहीं तैर सकता उसकी तरह कोई अत्यन्त बुद्धिमान होने पर भी आपके निर्मल गुणों का वर्णन नहीं कर सकता है।

प्रश्न - 1 गुणों के समुद्र कौन हैं? उनके गुण किसके समान सुन्दर हैं?

उत्तर- आदिनाथ प्रभु गुणों के समुद्र हैं। आपके गुण चन्द्रमा के समान सुन्दर हैं।

प्रश्न - 2 आपके गुणों का वर्णन करने में कौन समर्थ नहीं है?

उत्तर- आदिनाथ भगवान् के गुणों का वर्णन करने के लिए वृहस्पति भी समर्थ नहीं हैं, अन्य जनों की तो बात ही क्या? अर्थात् कोई भी समर्थ नहीं है।

प्रश्न - 3 यहां उदाहरण क्या दिया है?

उत्तर- जैसे प्रचण्ड वायु के वेग से चलायमान, मगरमच्छों से युक्त समुद्र को भुजाओं से कोई नहीं तैर सकता है वैसे ही आदिनाथ भगवान् के गुणों का भी कोई पार नहीं है।

सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश!
कत्र्तु स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृतः।
प्रीत्यात्म-वीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्,
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम्।।5।।

से (स्तवन से) प्राणियों के अनेकानेक जन्म के पाप भी एक क्षण मात्र में नाश को प्राप्त हो जाते हैं।

प्रश्न - 1 जिनेन्द्र स्तवन की महिमा बताइये?

उत्तर- जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करने से जीवों के अनेकानेक भवों के पाप क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं।

प्रश्न - 2 उदाहरण देकर बताइये?

उत्तर- जैसे सूर्य की किरणों को पाते ही रात्रि का अन्धकार भाग जाता है वैसे ही भगवान् की स्तुति करने से पाप रूपी अन्धकार क्षण-भर में भाग जाता है।