।। जिन स्तवन की महिमा ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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त्वत्संस्तवेन भव-संततिसन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्।
आक्रान्त-लोकमलि-नीलमशेषमशु,
सूर्यांशु-भिन्नमिव शार्वर-मंधकारम्।।7।।
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अन्वयार्थ- (त्वत्संस्तवेन्) आपकी स्तुति करे से (श्रीरभाजाम्) संसारी जीवों के (भवसन्तति सत्रिबद्धम्) अनेक भवों के बंधें हुए (पापम्) पाकर्म (आक्र-लोकम्) सम्पूर्ण लोक में फैले हुए (अलिनीलम्) भौरों के समान काले (सूर्यांशु-भिन्नम्) सूर्य की किरणों से खण्डित (शार्वरम्) रात्रि सम्बंधी (आशु) शीघ्र ही (क्षयम्) विनाश को (उपैति) प्राप्त हो जाते है।

भावार्थ-हे नाथ! जिस प्रकार सूर्य की किरणों के द्वारा भयानक काली रात्रि का समस्त अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार आपके स्तोत्र