।। भावपूर्वक जिन-दर्शन की महिमा ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयं,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः।
पीत्वा पयः शशिकर-द्यति-दुग्ध-सिन्धेः,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्।।11।।
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अन्वयार्थ-(अनिमेष विलोकनीयम्) बिना पलक झपकाये एकटक दृष्टि से देखने योग्य (भवन्तम्) आपको (दृष्ट्वा) देखकर (जनस्य) मनुष्यों के (चक्षुः) नेत्र (अन्यत्र) दूसरी जगह (तोषम्) सन्तोष को (न उपयाति) प्राप्त नहीं होते। (दुग्धसिन्धोः) क्षीरसमुद्र के (शशिकरद्यति) चन्द्रमा के समान कान्ति वाले (पयः) पानी को (पीत्वा) पीकर (कः) कौन पुरूष (जलनिधेः) समुद्र के (क्षारं) खारे (जलं) पानी को (रसितुं इच्छेत्) पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं।

भावार्थ-हे भगवन्! जिस प्रकार क्षीर समुद्र के निर्मल जल को पीने वाला मनुष्य अन्य समुद्र के खारे पानी को पीने की इच्छा नहीं करता है उसी प्रकार एकटक दृष्टि से देखने योग्य आपको देखकर, मनुष्य अन्यत्र कहीं भी संतोष को प्राप्त नहीं होता है। अर्थात आपका रूप उत्तम सन्तोष प्रदान करने वाला है।

प्रश्न - 1क्षीर समुद्र और अन्य समुद्र के जल में क्या अन्तर है?

उत्तर- क्षीर समुद्र का जल चन्द्रमा की कान्ति समान श्वेत और दूध के समान मीठा होता है परंतु अन्य समुद्रों का जल खारा होता है।

प्रश्न - 2 भावपूर्वक जिन दर्शन करने का फल क्या है?

उत्तर- जिसने एक बार भी वीतराग प्रभु की शान्त मुद्रा के दर्शन कर लिये वह अन्य किसी बाहरी रागी-द्वेषी देवी-देवताओं में लुभा नहीं सकता है। वह परमामृत का पान कर अतुल सन्तोष को प्राप्त करता है।