अन्वयार्थ-(नाथ) हे स्वामिन्! (मन्ये) मैं मानता हूं कि (दृष्टाः) देखे गये (हरिहरादयः एवं) विष्णु, महादेव आदि देव ही (वरम्) अच्दे हैं (येषु दृष्टेषु सत्सु) जिनके देखे जाने पर (हृदयम्) मन (त्वयि) आपके विषय में (तोषम्) सन्तोष को (एति) प्राप्त हो जाता है (वीक्षितेन) देखे गये (भावता) आपसे (किम्) क्या लाभ है? (येन) जिससे कि (भुवि) पृथ्वी पर (अन्यः कश्चित्) कोई दूसरा देव (भवान्तरे अपि) दूसरे जन्म में भी (मनः) चित्त को (न हरति) नहीं हर पाता।
भावार्थ-यहां श्लोक में व्याजोक्ति अलंकार से विपरीत कथन किया गया है। श्लोक का अविरूद्ध वास्तविक अर्थ है- हे प्रभो! संसार में आप सर्वश्रेष्ठ उत्तम देव हैं। आपके दर्शन से चित्त को इतना सन्तोष मिलता है कि वह मरने के बाद भी किसी दूसरे देव के दर्शन करना नहीं चाहता। हरिहर आदि रागी-द्वेषी हैं उनके दर्शन से चित्त सन्तुष्ट नहीं होता है।
प्रश्न - 1लोक में सर्वश्रेष्ठ देव कौन हैं?
उत्तर- जो राग-द्वेष रहित हैं वे ही लोक में सर्वश्रेष्ठ देव है।
प्रश्न - 2 वीतरागी देव के दर्शन का फल बताइये?
उत्तर- वीतराग प्रभु के दर्शन से जीव को ऐसा अतुल सन्तोष प्राप्त होता है कि मरने के बादभी वह किसी अन्य देव के दर्शन की इच्छा नहीं करता।
प्रश्न - 3 हरि-हर आदि रागी द्वेषी देवताओं के दर्शन से शान्ति क्यों नहीं मिलती है?
उत्तर- संसार दुःख का एक मात्र कारण रागद्वेष है। जिनका राग-द्वेष नहीं छूटा, वह कभी सुखी नहीं हो सकता है। जो स्वयं सुखी नहीं है वह कभी भी दूसरे को भी सुखी नहीं कर सकता है। इसी कारण राग-द्वेष से दुःखी हरिहर आदि देवों के दर्शन से जीवों को कभी भी सन्तोष या सुख की प्राप्ति नहीं होती है।
अन्वयार्थ-(स्त्रीणाम् शतानि) सैकड़ों स्त्रियां (शतशः) सैकड़ों (पुत्रान्) पुत्रों को (जनयन्ति) पैदा करती हैं परन्तु (त्वदुपमम्) आप जैसे (सुतम्) पुत्र को (अन्या) दूसरी (जननी) मां (न प्रसूता) पैदा नहीं कर सकी (भानि) नक्षत्रों को सर्वा दिशः सब दिशाएं (दधति) धारण करती है परन्तु (स्फुरदंशुजालम्) चमक रहा है किरणों का समूह जिसका ऐसे (सहस्त्ररश्मिम्) सूर्य को (प्राचीदिक् एव) पूर्व दिशा ही (जनयति) प्रकट करती है।
भावार्थ-हे नाथ! जिस तरह सूर्य को पूर्व दिशा के सिवाय अन्य दिशाएं प्रकट नहीं कर पाती उसी तरह आपकी माता के सिवाय अन्य माता पैदा नहीं कर सकीं। आप भग्यशालिनी माता के अद्वितीय भाग्यशाली पुत्र हैं।
प्रश्न - 1 दिशा कौन सी धन्य है?
उत्तर- जिसने सूर्य को प्रकट किया ऐसी पूर्व दिशा धन्य है।
प्रश्न - 2 तीन लोक में कौन सी माता धन्य एवं भाग्यशालिनी है?
उत्तर- तीर्थंकर जैसे महान् पुत्र को जन्म देने वाली माता मरूदीव आदि 24 तीर्थंकरों की माताएं तीन लोक में धन्य हैं, भाग्यशालिनी हैं।
प्रश्न - 3 माताओं का कत्र्तव्य क्या है?
उत्तर-
माताओं के अपने उत्तम संस्कारों से दानी, शूरवीर, तीर्थंकर महापुरूषाों जैसी संतान को पैदा करना चाहिए। माताओं! साधुओं को पैदा करो, यह तुम्हारा परम कत्र्तव्य हैं।
अन्वयार्थ-(मुनीन्द्र) हे मुनियों के नाथ! (मुनयः) तपस्वी जन! (त्वाम्) आपको (आदित्यवर्णम्) सूर्य की तरह तेजस्वी (अमलम्) निर्मल और (तमसः पुरस्तात्) मोह अन्धकार से परे रहने वाले (परमं पुमांसम्) परम पुरूष (आमनन्ति) मानते हैं वे (त्वाम् एव) आपको ही (सम्यक्) अच्दी तरह से (उपलभ्य) प्राप्त कर (मृत्युम्) मृत्यु को (जयन्ति) जीतते हैं। इसके सिवाय (शिवपदस्य) मोक्षपद का (अन्यः) दूसरा (शिवः) अच्छा (पन्थः) रास्ता (न अस्ति) नहीं है।
भावार्थ-हे मुनियों के नाथ! आप परम पुरूष हैं अपको अच्छी तरह जानकर ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। जिनभक्ति, जिनेन्द्र गुणानुवाद से बढ़कर मोक्षप्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है।
प्रश्न - 1 लोक में परम-पुरूष कौन है?
उत्तर- वीतराग भगवान् जो अमल हैं, निर्मल हैं, सूर्य सम तेजस्वी हैं वे ही लोक में परम पुरूष है।
प्रश्न - 2 भगवान् को जानने से मुक्ति कैसे होगी? मुक्ति के लिए जो अपनी आत्मा को जानना चाहिए?
उत्तर- जो अरहन्त को उनके द्रव्य-पर्याय से जानता है वह अपने को जानता है और उसी का मोह क्षय होता है। मुक्ति की प्राप्ति होती है। जो अरहन्त (वीतराग) भगवान् को नहीं जानता वह कभी भी आत्मा की पहिचार नहीं कर सकता है।
प्रश्न - 3 मोक्ष प्राप्ति का उत्तम मार्ग कौन-सा है?
उत्तर- जिन भक्ति से बढ़कर, अन्य दूसरा मोक्ष का उपाया नहीं है।