।। पंचम आवश्यक कर्म: तप ।।

उसको तो वही जान सकता है जो क्रिया रूप में ले आये। जैसे मिश्री खाने वाला यह तो कह सकता है कि मिश्री मीठी होती है परंतु इसे मिश्री खाते समय जो मिठास का अनुभव होता है, आनन्द आता है क्या वह उसे बता सकता है? कभी नहीं। इसी प्रकार ध्यान में जो आनन्द आता है वह बतलाया नहीं जा सकता। अगर सच्ची भावना है हमारी मुक्तिपथ की ओर चलने की तो समस्त प्रपंचों से कुछ समय के लिए मुक्त होकर कर दें शुरू पिंडस्थ ध्यान।

पदस्थ ध्यान
णमोकार अरू वर्ण सब, इनका चिन्तन होय।
ये ही ध्यान पदस्थ है, अनुभव से निज जोय।।82।।

अभी तक किया था संक्षेप में कथन पिंडस्थ ध्यान का, अब आगे बताया जा रहा है उस पदस्थ ध्यान को जिसका स्मरण करने से हो जाता है क्षय समस्त पाप कर्मों का।

नमस्कार आदि मंत्र और स्वर-व्यंजनादिकों का चिन्तन व मनन कहा जाता है पदस्थ ध्यान। इस पदस्थ ध्यान के बिना नहीं हो सकती है प्राप्ति अपने पद की हमें। अतः इसका सही रूप समझकर कर दें शुरू पदस्थ ध्यान को निजपद-प्राप्ति हेतु इसी समय।

उसी पूर्वोक्त सिंहासन के ऊपर स्थित अपने मन में इस प्रकार का चिन्तन करें कि मेरी नाभि में षोडश पांखुडी वाला एक अतिशयवान कमल है। उस कमल की एक-एक पांखुड़ी के ऊपर एक-एक स्वर है, उनकी संख्या इस प्रकार से है - अ आ इ ई उ ऊ ऋ त्र लृ ल ए ऐ ओ औं अं अः। तदनन्तर अपने हृदय में चैबीस पांखुडी के कमल का चिन्तन करें। उस कमल के बीच चन्द्रकान्त मणि के समान कर्णिका का चिन्तन करते हुए पांचों वर्गों के एक-एक अक्षर का एक-एक पत्र व कर्णिका पर चिन्तन करें; उन अक्षरों की संख्या इस प्रकार से है - क ख ग घ डण् च छ ज झ त्रण् ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म। इसके पश्चात अपने मुख में एक सुन्दर आठ पांखुड़ी वाले कमल का चिन्तन करें उसके चारों और प्रदक्षिणा देते हुए य र ल व, श ष स और ह इन सभी व्यंजनों का विचार करें। यह वर्णमालिका अनादिकालीन हैं। इसका मनन और चिन्तन करने से ज्ञानी श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेंते हैं और वस्तु स्वभाव का उन्हें ज्ञान हो जाता है और उनको दुख समूह छोड़कर भाग जाता है।

इन अज्ञाननाशक अक्षरों का चिन्तन कर पीछे जिनागम में बताये हुए पैंतीस अक्षर के अनादि णमोकर मन्त्र का ध्यान करें। वह णमोकार मंत्र इस प्रकार से है -

णमों अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।

तथा इसी महामंत्र के सोलह, छह, पांच, चार, दो और एक अक्षर आदि के मंत्रों का भी ध्यान करें और चत्तारि मंगलं आदि सभी का ध्यान मन को स्थिर करके करें, क्योंकि वह अनादि मूल मंत्र समस्त पापों को नष्ट करने वाला है, समस्त ऋद्धि-सिद्धियों को देने वाला है, संसारी वैभव को देता हुआ मोक्षमार्ग पर लगाने वाला है अतः हमें समस्त कार्य छोड़कर मंगल आदि मंत्रों का ध्यान मन, वचन, काय की एकाग्रता से करना चाहिए, ताकि उतर जाये जहर भोग रूपी, खुल जायें नेत्र ज्ञान-रूपी।

इस प्रकार सर्वसिद्धिदायक पदस्थ ध्यान को बताया। अब आगे बताया जायेगा रूपस्थ ध्यान को, जो उपयोग को रोकने के लिए बांध के समान है, स्वज्ञान कराने के लिए निर्मल दर्पण के समान हैं।

रूपस्थ ध्यान
पंच परम पद मूर्ति जो उनका करना ध्यान।
ध्यान यही रूपस्थ है, प्रगटावे निज ज्ञान।।83।।

किसी रूपी पदार्थ का चिन्तन करना कहा जाता है रूपस्थ ध्यान। इस रूपस्थ ध्यान में देवरचित देवाधिदेव के समवशरण का चिन्तन किया जाता है। उसी पूर्वाक्त स्फटिक मणिमय सिंहासन के ऊपर अपने को स्थित चिन्तन करते हुए उस भूमि से 500 धनुष ऊपर बीस हजार पैडि़यों वाले समवशरण का चिन्तन करें। सर्वप्रथम उसके कोट खाई आदि का चिन्तन करें जो कि रत्नों से बने हुए हैं। फिर समवसरण में प्रवेश करें अैर उन नाट्यशाला आदि को देखें जिनके अन्दर अनेक देव-देवियां भक्ति में लीन होकर भगवान के गुणगान गाती हुई अनेक प्रकार के नृत्य व भक्तिगान कर रही है। फिर आगे अनेक वन आते हैं कोई अशोक वन है, कोई आम्र वन है इत्यादि। इन सभी का चिन्तन करते हुए चारों तरफ चार दरवाजे बड़े विशाल बने हुए हैं, उनके ऊपर देवों पहरा रहता है और वहां पर भव्य कूट हैं, वहां से आगे देव अभव्य को जाने नहीं देते, ऐसा विचार करें। फिर उन मानस्तम्भों का चिन्तन करें, जो चारों दिशाओं में चार होते हैं जिनको देखते ही अभिमानी पुरूषों के मान भंग हो जाते हैं। उनके ऊपर चैमुखी रत्नमयी मनोहर प्रतिमाओं का चिन्तन कर एक-एक मानस्तम्भें के चारों ओर एक-एक बावड़ी का चिन्तन करें।

इस प्रकार और भी वाहं की भूमि आदि का चिन्तन करते हुए उन द्वादश सभाओं का चिन्तन करें, जो गन्धुकुटी के चारों ओर है, उनमें क्रमशः चार सभाओं में चार प्रकार के देव, चार में उनकी देवियां, एक में महात्यागी सप्त प्रकार के मुनिराज, एक में तिर्यंच, एक में श्रावक और एक में श्राविकायें। समस्त जीव परस्पर में विरोध रहित हैं क्योंकि विरोध करना जीव का स्वभाव नहीं है, विभाव है- विकार है और समवशरण में आकर भूल जाते हैं सभी विभाव परिणति को, भाते रहते हैं निज-पर-कल्याण की भावना ऐसा विचारकर फिर उस गन्धकुटी की ओर देखें, जो तीन कटनी युक्त रत्नादि मणियों से बनी हुई है। उसके ऊपर अष्ट प्रातिहार्ययुक्त, अनन्तचतुष्टय के धनी, चैंतीस अतिशयों से सुशोभित, अष्टादश दोष रहित भगवान जिनेन्द्र विराजमान हैं। ऐसा चिन्तनकरें। समवसरण में दिन-रात का भेद नहीं प्रतीत होता, क्योंकि वहां भामण्ड का इतना प्रकाश है कि उसके आगे सूर्य, चन्द्र और तारे आदि के दर्शन नहीं होते। दिन में तीर बार भगवान का धर्मोपदेश होता है और गणधर उसका अर्थ बताते, हैं, ऐसा चिन्तन करें। उसमें हमारा मन स्थिर होता है और यही रूपस्थ ध्यान कहा जाता है। समवसरण का पूर्ण विवरण तो आगमग्रन्थों से जानना चाहिए। यहां तो बहुत ही संक्षेप में उसक वर्णन किया है।

किसी तीर्थभूमि का चिन्तन करना कि यहां भगवान का जन्म हुआ था। यहां उन्होंने तपस्या की थी, यहां से उनको केवलज्ञान हुआ था। ऐसा विचार करना भी इसी ध्यान में आ जाता है। किसी क्षेत्र की या मंदिर की सुन्दर प्रतिमाजी के रूप का चिन्तन करना, गुरूओं के स्वरूप का, उनके गुणों का चिन्तन करना इत्यादि, यह सभी विचार कहे जाते हैं रूपस्थ ध्यान। इस ध्यान को करने से हमें अपने स्वरूपक ा भान होता है। स्वरूपज्ञान होने से हो जाती है अरूचि संसार, शरीर और भोागें से। फिर मिल जाता है मोक्ष-मार्ग स्वतः ही। अतः हम इस रूपस्थ ध्यान का अभ्यास अवश्य करें क्योंकि यह समस्त दुखों को नष्ट करने वाला है। समस्त सांसारिक सुख देता हुआ उस अक्षय आनन्द का कारण है जो अकथनीय है। अगर चाहते हैं हम निजहित और मुक्तिपथ की ओर चलना तो कर दें रूपस्थ ध्यान शुरू, जब समय मिले, तब ही।

रूपातीत ध्यान
सिद्ध गुणों का चिन्तवन, निज अनुभव से होय।
ध्यान स्वरूपातीत है, करे लहे शिव सोय।।84।।
इस प्रकार बताया रूपस्थ ध्यान करे। अब उस रूपातीत ध्यान का कथन किया जायेगा जो मात्र अनुभव के द्वारा ही जाना जा सकता है इन्द्रियों के द्वारा नहीं। इस रूपातीत ध्यान में सिद्ध भगवान के स्वरूपक ा चिन्तन करें कि ये शरीर रहित हैं, मात्र-ज्ञानमूर्ति हैं, चेतनमात्र हैं, अष्टकर्मों से रहित हैं, समकितादि अष्टगुणों से सहित हैं, लोक के अग्रभाग पर स्थित हैं, कर्ता-भोक्तानहीं, मात्र ज्ञाता-द्रष्टा हैं, अपने सम्पूर्ण गुणों को आपने अपने पुरूषार्थ के द्वारा प्रकट कर लिया है। इसी प्रकार उनके अनन्त गुणों का चिन्तन करते हुए उनके गुणों से अपनी तुलना करें कि मेरे अंदर भी वह शक्ति छिपी हुई है जो भगवान सिद्धों के अंदर है। मेरा स्वरूप भी अन्य कुछ नहीं है, मैं तो मात्र एक चैतन्य द्रव्य हूं, परंतु अनादिकाल से मोह-मदिरा पीकर बावला सा हो रहा हूं, अपने स्वरूप को भूला हुआ हूं, पर को अपना मानकर। जो आत्मा सिद्धों की है वह मेरी है, उनकी निर्मल होकर आ गई है प्रकाश में और मेरी छिपी हुई है शरीर के अंदर। वे बन गये हैं मूर्ति मात्र दर्शन-ज्ञान-चारित्र की, कर्मों से अलग होने के कारण और मैं लीन हूं देहादि में, कर्मों से लिप्त होने के कारण। और भी इसी प्रकार के अनेक विचार करें। यही है रूपातीत ध्यान, यही है अतीन्द्रिय सुख का कारण। यह रूपातीत ध्यान हमें प्रत्येक दिन करना चाहिए, क्योंकि इसका अनुभव किये बिना जो हमारा सही रूप है उसका ज्ञान नहीं हो सकता। अपने स्वरूप का ज्ञान हुए बिना नहीं मिल सकता मोक्ष का, नहीं हो सकती प्राप्ति सच्चे सुख की। स्वानुभव की प्रशंसा करते हुए किसी कवि ने लिखाा है कि -

अनुभव चिन्तामणि रतन, अनुभव रस का कूप।
अनुभव मारग मोक्ष का, अनुभव मोक्ष स्वरूप।।

शुभकारक और शुद्ध के कारण ध्यानों को हम अवश्य करें। अगर हमारा मन अथिक समय तक न रूक सके, तो जितने समय तक रूके उतने समय तक ही ध्यान करें। क्योंकि हम ध्यान का अभ्यास करते रहेंगे तो एक दिन वह अवश्य आ जायेगा जब हमारा तन व मन सब रूक जायेगा स्वतः ही और हो जायेगा शुरू ध्यान। कोई भी कार्य सिद्धि एकदम से नहीं होती, क्रम-2 से ही होती है। क्षीर की एक-2 बूंद से घ्ट भर जाता है, चींटी धीरे-धीरे पर्वत पर चढ़ जाती है, एक अक्षर का ज्ञान प्रतिदिन करने से मूढ ज्ञानी बन जाते हैं तो क्या ध्यान का अभ्यास कर हम ध्यानी नहीं बनेंगे? अवश्य बनेंगे। प्रतिदिन के अभ्यास के विषय में किसी कवि ने कहा है-

करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रस्सी आवत जात में, सिल पर पड़त निशान।।

अभ्यास करना बहुत बड़ी बात हैं। अभ्यास के बिना किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती है, चाहे वह संसारी हो अथवा धार्मिक। अतः हमें धर्म ध्यान का अभ्यास व अनुभव हर समय करते रहना चाहिए, ताकि न भटकना पड़े भव-वन में, लग जायें मुक्ति-मार्ग में।

यह धर्मध्या नही एक ऐसा ध्यान है जो लोक और परलोक दोनों के सुखों को हमें प्रदान करता है और धर्मध्यान रहित जीवन ही एक ऐसा जीवन है जो मनुष्य शरीर होते हुए भी उनको तिर्यंच के समान बना देता है। किसी कवि ने भी इसी प्रकार से कहा है-

धरम करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण।
धरम पन्थ साधे बिना, नर तिर्यंच समान।।

ध्यान से बढ़कर संसार में कोई धर्म नहीं है। वह ध्यान श्रेणी चढ़ने वाले महामुनियों तथा भगवान केवली के होता है। उसका कथन यहां नहीं किया जा रहा है अन्य शास्त्रों से जान लें।

ध्यान बराबर तप नहीं, साथ ज्ञान के होय
‘‘सन्मति’’ निश दिन कीजिए, तब सच्चा सुख होय।
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