।। पंचम आवश्यक कर्म: तप ।।

दृष्टान्त

एक सभ लगी थी राजा की। सभी लोग प्रशंसा कर रहे थे एक तपस्वी साधु की। ऐसे साधु महाराज आज तक नहीं देखे हैं, जो छह-छह महीने के तो उपवास कर लेते हैं, हर समय ध्यान में लीन रहते हैं, नीचे सिर किए हुए कितना घोर तप करते हैं।

यह समस्त बातें सुनकर मंत्री ने कहा - महाराज! यह मुझे तो मात्र ढोंग ही मालूम होता है, क्याोंकि जो सच्चा साधु होता है वह दिखवटी तप नहीं करता, उसका तो किसी को मालूम ही नहीं करना पड़ता। किसी ने कहा भी है-

चलता दिखे न चन्द्रमा बढ़ती दिखे न बेल।
साधु दिखे न सुमिरता यह कुदरत का खेल।।

लोगों ने कहा-मंत्री! आप ऐसे महान तपस्वी की निन्दा करते हो, जिसकी आरती व पूजा करने समस्त नगरी जाती है और उन्होंने अभी छह महीने का उपवास कर रखा है। मन्त्री जी ने कहा - वह उपवास मात्र दिखाने के लिए है, लोगों से प्रशंसा कराने के लिए है अगर नहीं मानते हो ता ेउसकी परीक्षा की जाये, खोटा है या खरा, अपने आप मालूम हो जायेगा। यह बात सभी को पसंद आई और कहने लगे कि उसकी परीक्षा किसी प्रकार से करनी चाहिए। मंत्री ने कहा कि कुछ दिन के लिए उसकी पूजा-स्तुति करना बंद कर दिया जाये, नगर का एक भी व्यक्ति उसके दर्शन के लिए न जाये और कुछ आदमी छिपकर देखें, फिर मालूम पड़ जायेगा, स्वतः ही उनकी सच्चाई का।

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राजा को यह बात पसंद आ गई और सभी को हुक्म सुना दिया कि आज से कोई नहीं जायेगा अगर कोई गया तो उसे इण्ड दिया जायेगा। सीाी ने जाना बंद कर दिया साधु महारा के पास। किसी को अपने पास न आया जान साधु को कुछ चिंता हुई और देखने लगे नगर की ओर। सारा दिन व्यतीत होने जा रहा है, अभी तक कोई नहीं आया-पूजा करने वाला, प्रशंसा करने वाला। साधु जी ऐसा विचार करने लगे। तप छोड़ दिय साधु जी ने और जैसे-तैसे रात्रि पूर्ण की। दूसरे दिन भी कोई नहीं आया उनके तप की प्रशंसा करने वाला। तो फिर देर ही क्या थी, इधर-उधर देखभाल कर छोड़ दिया साधु-वेष और भाग गया नजर बचा के।

लोगों ने राजा से जाकर कहा कि तपस्वी, तपस्वी नहीं था, ढोंगी ही था। मंत्री जी ने सच ही कहा था। लोगों के न जाने के कारण तप उपवास छोड़कर भाग गया, क्योंकि उसके अन्दर सच्चाई नहीं थी। किसी ने कहा भी है -

सचाई छुप नहीं सकती, कभी झूठे असूलों से।
खुशबू आनहीं सकती, कभी कागज के फूलों से।।

हमने ाी अभी तक ऐसे ही तप अनन्त बार किये, परंतु फलस्वरूप सुख की झलक नहीं प्राप्त हुई। अतः हम मोड़ लें ढोंग और दिखावे से अपने को और कर दे सम्यक् तप अभी से शुरू।

पूर्ण तक कैसे करें?

गृहस्थी में रहते हुए हम पूर्ण तक कापालन तो नहीं कर सकते हैं परंतु शक्ति के अनुसार तपक रने में क्या हमारी कुरबानी हो जायेगी? कुछ भी नहीं, लाभ अवश्यक मिलेगा, इह लोक में अैर परलोक में। आचार्यों ने यह कहीं नहीं कहा है कि करने की शक्ति हो या न हो करते जाओं। यह अवश्य कहा है कि हर प्राणी को अपनी शक्ति के अनुसार ही तप-व्रत करना चाहिए। शक्ति से अधिक नहीं। शक्ति से अधिक किये जाने वाला तप, तप नहीं रहता; चरित्र, चारित्र नहीं रहता। इसलिए घबडाने की आवश्यकता नहीं शांति से समझें और शक्ति को न छिपाते हुए जितना हो सके उतना ही तपह र समय करते रहें तो कर्मरूपी ईंधन का जलना शुरू हो जायेगा, मुक्तिपथ पर चलना शुरू हो जायेगा।

पूर्ण तप के प्रतीक

पूर्ण तपस्वी तो उन परम दिगम्बर वीतरागी ऋषिराजों को ही कहा जा सकता है जिन्होंने कषायों को जीत, महाव्रतों को धारण किया है, गृह व कुटुम्बीजनों ाके त्याग एकान्त वन में वास किया है और जीत लिया है विषयभोगों की लालसा को, परे हो गये हैं दोनों प्रकार के अंगों से, विरक्त हो गये हैं संसार, शरीर और भोगों से, लीन हरते हैं, स्वाध्याय और मनन में तथा आरूढ़ हैं चारित्ररूपी नौका में, पार उतर रहे हैं भवसागर से, जाना चाहते हैं पंचमगति को। पूर्ण तपस्वी का विवेचन करते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी इसी प्रकार कहा है-

विषयाशावशतीतों निराम्भोऽपरिग्रहः।
ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।।10।।

जिन्होंने विषयरूपी आशाओं को वश में कर लिया है और समस्त प्रकार के आरम्भ-परिग्रह का कर दिया है त्याग हमेशा के लिए तथा ज्ञान, ध्यान अैर तप से सतत तत्लीन रहते हैं, उन्हें ही पूर्ण तपस्वी कहा जाता है। वही पूर्ण तपस्या करके अष्ट कर्मों को दहन कर देते हैं और निर्विकार स्वभाव को प्राप्त होते हैं।

बाहृ तपों से क्या लाभ
बाहृ तप से बनत हैं, उन अंदर के भाव।
कारण आतम ध्यान के, करें लहै निज भाव।।51।।

अब उन बाहृ छह प्रकार के तपों का वर्णन किया जायेगा, जिनके द्वारा पूर्ण या अल्प तपस्वी की पहचान होती है अैर आभ्यन्तर तप के कारण हैं। अर्थात इन बाहृ तपों के बिना अंतरंग तप भी सम्भव नहीं हैं। अतः हमें श्रद्धा के साथ बाहृ तपों के बिना अंतरंग तप भी सम्भव नहीं हैं। अतः हमें श्रद्धा के साथ बाहृ तपों को भी करना चाहिए, तीाी हमारा झुकाव होगा अंतरंग तप की ओर। इससे बए़कर और लाभ भी क्या चाहते हैं हम? कुछ भी नहीं। इसलिए अंतरंग तप के कारण बाहृ तपों को हमें अवश्य धारण करना चाहिए।

अनशन तप
अनशन से उपवास हो, उप से होवे प्रेम।
क्रोधादिक तजि जो करें, मुक्ति वरे करि प्रेम।।60।।
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अपनी शक्ति के अनुसार अन्नादि पदार्थों के त्याग को अनशन कहते हैं। कहीं-कहीं चारों प्रकार के आहार का त्याग भी अनशन कहा गया है। इसे उपवास भी कहते हैं। उपवास को तप इसलिए कहा है कि इससे आत्म शांति मिलती है, कषायें कम हो जाती हैं आरम्भदि से बचकर आत्म-गुण-चिन्तन-का समय निकल आता है, अतः शक्ति के अनुसार हमें प्रोषधोपवास अवश्य करना चाहिए। परंतु यह उपवास तो रोज नहीं किया जा सकता।

हम उपवास रोज नहीं कर सकते तो न करें। परंतु अष्टमी चतुर्दशी के दिन तो गृहकार्य से मुक्त होके कर ही सकते हैं। अगर हम किसी कारणवश पूर्णरूप से अन्नादि का त्याग नहीं कर सकें, तो दिन में एक समय अवश्य भोजन करें फिर त्याग कर दे ंतो वह भी कुछ समय के लिए अनशन में आ सकता है। अनशन में त्यागनें से अभिप्राय है जितने समय के लिए अन्न का त्याग किया जाये उतने समय के लिए वह अनशन तप हो जाता हैं। अनशन करने में भाव त्याग के रहते हैं और त्याग से ही आत्मा-परमात्मा बन जाता है, संतोष को प्राप्त हो जाता है। इसलिए हमें सदबुद्धि से हमेशा त्याग करते रहना चाहिए।

त्याग बराबर तप नहीं, जो होवे निरदोष।
भविजन कीजे त्याग अब, मिले बड़ा संतोष।।61।।
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