।। माया त्याज्य क्यों? ।।

अभी हमने क्रोध और मान के स्वरूप को समझकर यथाशक्ति त्याग किया। अब इन्हीं के समान हमारे अंतरंग के वैभव को ठगने वाली जो दुष्टा माया है, उसका स्चरूप संक्षेप में बताते हैं।

इस ठगनी माया से कौन अपरिचित है जिसने सभी संसार के प्राणियों को ठग खाया है अर्थात कोई नहीं।

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छल-कपट को माया कहते हैं अर्थात मन में कुछ और हो, वचनों से कुछ और कहना तथा काया से कुछ और ही करना, इसका नाम है मायाजाल या मायाचार। यह मायाचार दुर्गति का द्वार है, संसार में फंसाने का जाल है, स्वभावगुण जलाने को आग है, इसलिये हमें माया का त्याग करना हैं

इस माया के चक्कर में फंसकर बड़े-2 राजा-महाराजाओं ने, महातपस्वी मुनिराजों ने, सिद्धांतवेत्ता पण्डितों ने, धर्माचरण करने वाले श्रावकों ने अपना सब कुछ खो दिया है। जिसके अन्दर माया को स्थान मिला जाता है, वह उसके प्रभाव से दूसरे को ठगने का विचार करता है परंतु लोक में भी देखा जाता है कि वह स्वतः ही ठगाया जाता है। राजा रावण ने महासती सीता के साथ छल किया, फलस्वरूप सभी कुटुम्बीजनों के ही नहीं अपने भी प्राण खो बैठा, तीन खण्ड का राज्य छोड़कर तीसरी बालुका पृथ्वी का राज्य अर्थात वहां के दुःखों को भोग रहा है। महाराजा सत्न्धर के साथ काष्ठांगार ने धोखा दिया, उसके बदले समय आने पर जीवनध ने उसे समल नष्ट कर दिया। सुखानन्द कुमार के साथ रानी ने छल किया, फलतः महल में चिनवा दी गई। धवल सेठ ने श्रीपाल के साथ छल किया तो पेट फट गया, यह माहन माया का फल है। माया तो इतनी कुटिल है कि थोड़ी सी की जाय तब भी तिर्यंचगति के बंध का कारण है। देखों एक महामुनिराज की श्रावकों ने यह जानकर पूजा-शक्ति की कि इन मुनिराज ने चार माह के उपवास किये हैं। उन मुनिराज को यह ज्ञात हो चुका था कि यहां चार माह का उपवास किन्हीं मुनिराज ने किया है। यह लोग मुझे वही समझकर भक्ति कर रहे हैं। अपनी भक्ति व प्रशंसा होती देख मौन रह गये, फलतः तप के बल से छठवें स्वर्ग जाकर वहां से चलकर सम्मेद शिखर के मान वन में त्रिलोकमण्ड हाथी हुए। कितनी उदाहरण दिये जायें, जिस किसी ने मायाजाल को स्पर्श किया है वह अपना सर्वस्व खो बैठता है अतः छल, कपट, मायाजान से हमें दूर ही रहना चाहिए।

माया के भेद - माया भी चार प्रकार की है - बांस की जड़ के समान, मेढ़े के सींग के समान, गोमूत्र के सामन, खुरपा के समान। यह चार भेद मायाचार के परिणामों की अपेक्षा से है। बांस की जड़ के समान जो माया है, वह तीव्र परिणामों के लिए हुए है, इसका फल उद्योगति ही है। आगे के भेदों में क्रम से परिणामों की मन्दता है। सभी मायाचारों से हमें बचना है, परंतु सबसे पहले हमें तीव्र माया का त्याग करना है।

माया सम नहिं लोक में, दुःख का कारण कोय।
सन्मति माया से बचो, तो दुरगति ने होय।।104।।