।। मान त्याज्य क्यों? ।।

अभी हमने यह सभा कि क्रोध का स्वरूप क्या है ओर त्याज्य क्यों है? वस्तु के स्वरूप को समझे बिना उसमें हेयापादेय बुद्धि अर्थात कौन छोड़ने योग्य है, कौन ग्रहण करने योग्य है; ऐसा निर्णय नहीं हो पाता; यथार्थ ज्ञान हुए बिना सच्चा त्याग नहीं हो पाता अतः वस्तु के स्वरूप का अच्छी तरह से ज्ञान कर लेना हमारा पहना काम होना चाहिए।

अब देखना यह है कि मान त्याज्य क्यों हैं? यह मान भी क्रोध की तरह हमारे नीजी स्वभाव का घात करता हैं दुर्गति का द्वार है, उपयश का एजेन्ट अर्थात अपकीर्ति को ंसंसार में हवा के समान फैलानो वाला है। अतः मान दूर से ही त्याज्य है।

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इस मान के फंदे में फंसकर अर्थात इसकी रक्षा हेतु रावण जैसों ने अपने प्राण दे दिये, भरतेश्वर महाराज ने भाई बाहुबली के ऊपर चक्र चला दिया था और भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। आज भी तो देखा जा रहा है कि अभिमान से कईयों के मस्तक ऊंचे रहते हैं। अपमान होने पर वे अपने आपको नहीं संभाल पाते सर्वथा अपना अहित कर बैठते हैं और जो इस अनर्थकारक मान का त्याग कर देता है उसके गले में सर्वसुखों को कराने वाली मुक्तिरूपी राजकुमारी आकर वरमाला पहना देती है अर्थात वरण कर लेती है।

मान के भेद- क्रोध की तरह यह मान भी चार प्रकार का है। पत्थर के समान, हड्डी के समान, काष्ठ के समान और बेंत के समान। पहले मान को पत्थर की उपमा इसलिये दी गयी है कि जिस प्रकार पत्थर झुकता नहीं है टुकड़े भले ही हो जायें, उसी प्रकार तीव्र मानी भी झुकता नहीं चाहें उसकी जान भले ही चली जाये। मान के फलस्वरूप उसे नरकों का दुख प्राप्त होता है। काष्ठ के समान देर से झुकने वाले मान का फल भी तिर्यंच गति है। शेष दो प्रकार के मान विशेषकर अहितकर नहीं है। अपने विनयगुण की रक्षा के लिए हमें अभिमान का तिरस्कार कर भगा देना होगा, मान से मित्रता छोड़ देनी पड़ेगी।

मान बराबर जगत में, ना अनरथ का मूलं।
तजा मान सन्मति नहीं, रहे मूल में भूल।।103।ं