।। पंचम आवश्यक कर्म: तप ।।

तपसे पढ़कर जगत में, सुख का कारण नाहिं।
जो दोनों तपको करें नाहि रहें जग मांहिं।।55।।

मुक्तिपथ की ओर चलने के लिए वह अख्ज्ञय आनन्द की प्राप्ति के लिए अीाी तक उपाय बताया है - देव पूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय और संयम। देव-पूजा करने से कुछ शांति का अनुभव हुआ, गुरू-उपासना से और भी कुछ अधिक आनन्द आया, स्वाध्याय करने से तो मानों हमं साक्षात ही स्वपर का ज्ञान हो गया हो और संयम का पालन करने से हमें ज्ञात हुआ कि सभी जीव हमारे ही सहोदर हैं,उनके प्रति करूणा भाव की लहर उठ खड़ी हुई तथा जीवन को मोड लिया कुपथ से सुपथ की ओर परंतु अभी तक पूर्ण शांति का अनुभव न हो सका।

jain temple39

स्थायी शांति के लिए उन अशुभ कर्मों का आस्रव रोकना होगा जो अशांति के कारण हैं अैर पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों की निर्जरा करनी होगी। निर्जरा तप के द्वारा होती है, अतः मुक्ति-पथ की ओर चलने के लिए हमें तप करना आवश्यक है। पूर्वोक्त क्रियायें भी तभी सफल होगी ज बतप किया जायेगा। इसलिए यहां संवर और निर्जरा के कारणभूत तपनाम पंचम आवश्यक कर्म को बताया जाता है।

तप किसे कहते हैं?
इच्दा जिसमें शांत हो, ना प्रगटें पर भाव।
उसको जानों श्रेष्ठ तप, कारण सहज स्वभाव।।56।।

जिसके द्वारा किसी वस्तु को तपाकर शुद्ध किया जाये उसे ही तप कहते हैं, अर्थात जिसकी सहायता लेकर किसी वस्तु की कालिमा को हटाया जाये, उसे निर्विकार बनाया जाये, स्वभाव में लाया जाये, निर्मल बनाया जाये, शुद्ध किया जाये उसे तप कहते ह। जैसे अग्नि के द्वारा कुन्दन को खरा बनाया जाता है, कालिमा से रहित किय जाता है, स्वभाव में लाया जाता है,उसी प्रकर आत्मा को व्रत, आचरण, ध्यान, स्वपर भेद विज्ञान आदि के द्वारा कर्ममल से रहित किया जाये, भव-दुख से बचाया जाये, विकार भाव को हटा दिया जाये, निर्मल कुन्दन जैसा खरा बना दिया जाये उसे तप कहते हैं।

तप के भेद
द्वादश्ज्ञ तप के तपन से, स्वच्छ होय निज भाव।
जैसे सोना स्वर्ण को, करे शुद्ध दे ताव।।57।।

‘‘तपसा निजराच’’ - तप के द्वारा निर्जरा होती ही है, और निर्जरा होने से ज्ञान दीप जल उठता है। ज्ञान दीप जलने से हो जाती है खोज उस मोक्ष मार्ग की जिसके लिए चक्रवर्ती आदि भी हर समय लालायित रहते हैं। इसलिये हम अपना सारा जीवन तप के अंदर ही लगा दें, क्योंकि यह नरजन्म न जाने किस विशेष पुण्य के उदय से मिला है और कुछ ही समय में नष्ट हो जानेवाला है। कुछ दिन पूर्व यह हमारा शरीर बिल्कुल छोटा-सा था, आज बड़ा हो गया है। जोश भी है जवानी का, कुछ दिन के बाद देखते-देखे क्षीण-जीर्ण हो जायेगा यही शरीर। फिर पश्चाताप होगा याद कर उन जवानी के दिनों को, जो भोगों में व्यर्थ व्यतीत किये थे। अगर भविष्य को आनन्दमय बनाना चाहते हैं और चाहते हैं सुख बढापे में, तो यौवन अवस्था को भोगों में व्यर्थ व्यतीत न करें, तप में लगाये, फिर मुक्ति पथ मिल जायेगा स्वतः ही और इस यौवन अवस्था का भी उपयोग हो जोगा। किसी ने कहा भी है-

तप करते यौवन गयो, दव्य गयों मुनि दान।
प्राण गये सन्यास में, तीनों गये न जान।।
jain temple40

अगर प्राण सन्यास से छूट जाये तो कोई हानि नहीं, सम्पूर्ण द्रव्य समाप्त मुनिदान में हो जाय फिर भी कोई बात नहीं और यौवन अवस्था अगर तप करते-करते व्यतीत हो जाये तो इससे बढकर लाभ क्या हो सकता है? कुछ भी नहीं क्योकि यह शरीर तो एक दिन सूख के ठठेरा हो जाने वाला है, चाहे भोगों में सुखा दें, चाहे मुक्ति प्रदायक तप में। भोगों में सुख देने से पछतावा होगा दुर्गति में जाके और संयम के साथ तप में सुखा देने से करेंगे किलोले अनन्दसागर में। अतः भव सागर के दुखों से बचने के लिए तप करना आवश्यक है, इसके बिना सुख नहीं।

तप कैसा हो

सम्यक् श्रद्धा व संयम के साथ किया हुआ तप ही मुक्तिपथ की ओर ले जाने वाला होता है, आत्मा को निर्मल बनाने वाला होता है। मात्र त पतो चाहे हम किना ही करते रहें, अगर भावों के साथनहीं है तो वह तप संवार अैर निर्जरा का कारण नहीं होगा।कर्ममल को नष्ट करने वाला नहीं होगा। आत्मा से विकारों को पृथक करने वाला नहीं होगा। वह होगा मात्र आस्र एवं बंध का कारण, राग व द्वेष का कारण, राग व द्वेष का कारण शरीर को क्षीण करने का कारण, नष्ट करने का कारण। अतः हमारा तप ख्याति-लाभ से परे हो, मायाचार से रहित हो, लोगो से पूजा आदि कराने की भावना से रहित हो, समस्त इच्छाओं से रहित हो वही तप वास्तव में तप कहा जा सकता है। उसके द्वारा ही आत्मशुद्धि सम्भव है। इसलिये हमारा तप थोड़ा ही क्यों न हो परंतु सत्य हो, क्योंकि किसी ने सत्य को भी तप की पदवी दी हैं-

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हृदय सांच है, ताके हृदय आप।।
तप इच्छारहित क्यों?
इच्छा दुःख का मूल है, अवगुण की है खान।
इच्छा तजि तप जो करें, पाते केवलज्ञान।।
भ्म संबो उवेज ूीव सवदहे उवेजण्

उसके पास उतनी ज्यादा कमियां, जिसकी जितनी ज्यादा आवश्यकताएं हैं, अर्थात इच्छा सर्वथा त्याज्य है, क्योंकि दःखु का मूल है, अवगुणों की खान, अनीति की नानी है, भव की निशानी है। इसलिए तप की परिभाषा करते हुए समस्त इच्छाओं से रहित होना ही तप कहलाता है। जिस तप के साथ किसी भी प्रकार की चाह न हो वही सच में तपह ै और जो तप किसी इच्छा को लेकर किया जाता है वह तप फलदायी नहीं हो सकता, क्योंकि किसी ने कहा है कि ‘‘बिन मागें मोती मिले मांगें मिले न भीख।’’ अगर समय अनुकूल नहीं होता तो चाहे कितनी भी याचना क्यों न करते रहें; परंतु भीख भी मिलना दुर्लभ हो जाती है। जब समय अनुकूल होता है तब न चाहते हुए भी वस्तु की प्राप्ति हो जाती है। किसी ने कहा भी है कि ‘‘याचे उससे भागे और त्याोग उससे आगे’’ यह उक्ति बिलकुल सच है और अनुभव में भी आ रही है। अतः हमें तप करते समय किसी प्रकार की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। तप करके किसी लौकिक काम की इच्छा करना व्यर्थ है क्योंकि वह तो इस इच्छा की पूर्ति करने वाला है कि फिर इच्छा उत्पन्न ही न हो अर्थात मोक्ष-सुख को देने वाला है। फिर क्या उससे सांसारिक सुख की चाह करनी पड़ेगी? कीाी नहीं।

वैसे कोई किसान गेहूं की खेती कर क्या भूसे की याचना कर सकता है? कभी नहीं। गेहूं के साथ भूसा तो स्वतः ही मिल जायेगा। फिर जो तप मुक्ति-सुख को देनो वाला है उससे संसार के सुख की याचना क्या की जाये? कभी नहीं, वह तो अपने आप मिलेगा, इसलिए तप को हम मात्र अपना कर्तव्य मानकर ही करें। य?वह तप बना देगा हमारी आत्मा को निर्मल, स्वर्ण से भी पवित्र।

क्याअीाी तक तप नहीं किया?

इस परिवर्तनशील संसार में अनादिकाल से हम भ्रमण करते आ रहे हैं और अनेक प्रकार की तपस्या भी करते आ रहे हैं। अनेक बार हमने पंचाग्नि तप किये, वृक्षों से पैर बांध कर महीनों पर्यन्त अल्टे लटके रहे, वर्षों नीचे को सिर किये तपस्या की, कई दिनों के उपवास भी किये, परंतु अभी तक नहीं देखी फलस्वरूप सुख की झलक। यह सभी तप कर्मक्षयार्थ नहीं थे, एकमात्र लोक में अपनी प्रशंसा कराने के लिए ही थे। इसके विषय में एक ख्याति चाहने वाले ढोंगी तपस्वी की कहानी निम्न प्रकार है:-

8
7
6
5
4
3
2
1