सर्वप्रथम तपों में अनशन तप का कथन किया। अब यहां उस ऊनोदर तप को बताया जा रहा है जो हमारे जीवन में अत्यंत आवश्यक है और अनशन से सरल भी है।
ऊनोदर अर्थात भूख् से कम भोजन करना। भोजन करते समय पेट को खाली रख लेना ऊनोदर नाम का द्वितीय तपह ै। सामने आये हुए मिष्ट व नमकीन पदार्थों की ओर से पेट भरने से पूर्व ही मुख मोउ़ लेना, इच्छाओं का निरोध है, और इच्छाओं के निरोध को ही तप करते हैं। कम भोजन करने से पेट हल्का रहता हैं, पेट हल्का रहने से प्रमाद नहीं सतात। प्रमाद के न आने से हमारे आवश्यक कार्यों में किसी प्रकार की बाधा नहीं होगी। आवश्यक कार्यों में बाधा न होने से कुछ धर्म-ध्यान, आत्म-चिन्त हो सकेगा। आत्म-चिन्तन करने से खुल जायेगा मार्ग मोक्ष का, जिसके लिए देवता भी तरसते हैं।
कम भोजन करने से हम उन उदर सम्बंधी बीमारियों से बच जायेंगे, जिनकी वजह से दिन-रात परेशान रहते हैं और अनप-सनाप पैसा खर्च करने पर भी नहीं मिती रोगो से मुक्ति। अतः हमें भोन कम ही करना चाहिए, इससे अनेक लाभ हैं। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-
कम भोजन करने से रोगों की उत्पत्ति ही न होगी और रोगों की उत्पत्ति नहीं होगी तो वैद्य के पास जाने का काम ही क्या? कुछ भी नहीं। तथा ऊनोदर करने से हमेंशा सदबुद्धि (निर्विकार बुद्धि) बनी रहेगी। सदबुद्धि से हिताहित का ज्ञान रहता है, हिताहित का ज्ञान होने पर क्रोध आने पर भी गम खाके रह जायेंगे तो न किसी से लड़ाई-झगड़े होंगे और न हकिम के पा जाना पड़ेगा। इसलिए धर्म-कर्म दोनों में हितकारी ऊनोदर तप को हम अवश्यक करते हरें, अगर अपना हित चाहते हैं तो।
उनशन और ऊनोदर तप को तो हम इसलिए उपनायेंगे कि वह जीवन में हर समय लाभदायक है। वृत्तिपरिसंख्यान तपक ा पूर्णरूप से तो वही मुनिराज पालन करते हैं जो तेरह प्रकार के चारित्र से विभूषित हैं क्योंकि ज बवह आहार लेने के लिए किसी नगर या ग्राम की ओर जाते हैं तब अपने मन में यह दृढ़ प्रतिज्ञा कर लते हैं कि आज ऐसा आहार या अमुक ही मिलेगा, तो लेंगे, अन्यथा नहीं तथा अमुक घर में अमुक विधि मिलेगी या अमुक वस्तु मिलेगी तो आहार करेंगे अन्यथा नहीं।
हम भी वृत्तिपरिसंख्या तपक ा पालन कर सकते हैं जब भोजन करने के लिए हम बैठें तो यह विचार कर लें कि आज अमुक सब्जी मिलेगी, तो भोजन करेंग या अमुक-अमुक वस्तुएं मिलेगी, तो भोजन करेंगे अथवा एक बार का परोसा हुआ ही भोजन करेंगे। या मौन लेकर भोजन करेंगे, किसी वस्तु को इशारे से भी नहीं मांगेंगे, थाली में जैसा रूखा-सूखा भोजन आ जायेगा, वैसा ही कर लेंगे; ऐसे नियम करने को वृत्तिपरिसंख्यान तप कहते हैं। इस तप के द्वारा भी इच्छाओं का निरोध होता है, अन्य पदार्थों की ओर से मन रूक जाता है और मन का रूकना भी तप की कोटि में आता है अतः हमें वृत्तिपरिसंख्या तप हमेशा करना चाहिए।
अब चलती है बात उस चतुर्थ रसपरित्याग तप की, जिसके द्वारा रसना इन्द्रिय को वश में किया जाता है। छह रसों का अथवा एक दो रसों का त्याग करना ही रसपरित्यागक नाम तप कहा जात है। छह रसों के नाम इस प्रकार हैं - दूध, दही, घी, नमक, मीठा और तेल। इन सब में से किसी न किसी रस का हमें प्रत्येक दिन त्याग करना चाहिए। रस परित्याग का दूसरा तरीका शास्त्रों में इस प्रकार भी बताया है कि रविवार के दिन नमक का त्याग, सोमवार को हरी का त्याग, मंगलवार के दिन मीठे अर्थात गन्ने का रस व उससे बने हुए समस्त पदार्थों का त्याग, बुधवार के दिन घी का त्याग, गुरूवार के दिन दूध व मलाई का त्याग, शुक्रवार के दिन दही का अर्थात बिना घी निकाले दही का त्याग और शनिवार के दिन मूंगफली खोपरादि के तेल का त्याग। अपनी शक्ति के अनुसा हमें रसों का त्याग प्रतिदिन करना चाहिए। यह क्रम भी कितना सुन्दर है। रसों का त्याग करने से रसना वश में रहती है और त्याग न करने से यह चटोर बन जाती है तथा मन के पीछे-पीछे भागती है। अतः रसना इन्द्रिय को वश में करने के लिए रसपरित्याग तप को हम अवश्यक रकं, क्योंकि त्यााग करने से मन वश में हो जाता है और त्याग से ही आत्मा, परमात्का बन जाता है।
आत्मगुणों की प्राप्ति के लिए मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को रोक किसी एक आसन से नियमित समय तक बैठना कहलाता है कायक्लेश नामक तप। सुबह शाम पद्मासन वीरासन, खडगासनादि को लगाकर ध्यान करना आत्म-गुणों का चिन्तन करना,उपवास करना, बाईस परिषहों का सहना आदि सभी शरीर को क्लेशदायी कार्य कहे जाते हैं काय-क्लेश। काय-क्लेश त पदो प्रकार का होता है एक तो वह जिसमें शरीर को कष्ट देने की, सुखाने की क्रियायें की जायें और दूसरा वह जिसमें सम्यक दर्शन सहित वस्तुस्वभाव की प्राप्ति हेु शरीर के द्वारा पुरूषार्थ करना, शरीर को क्षीणकर आत्मबल बढ़ाना, रागद्वेष के पग तोड़ने के लिए आरम्भादि का त्याग कर उपवास आदि अनेक क्रियायें करना। जो मात्र बाह्य अर्थात आत्म को जाने बिना, क्रोधादि को त्यागे बिना कायक्लेश तप को करते हैं वे उस तप के द्वारा कर्मों को नहीं दहन कर सकते, भवोदधि से पार नहीं हो सकते अतः हमें कायक्लेश तप अवश्यक करना चाहिए। तभी होगी प्राप्ति उस असीम आनन्द की, जिसके लिए सुरपति, नरपति सभी तरसते हैं।काय-क्लेश का अंतिम फल है, आत्म-शांति, स्वभाव प्राप्ति, क्योंकि ज्ञानियों का आशय शरीर को कष्ट देना नहीं है उनका लक्ष्य है आत्म-तत्व की प्राप्ति। हमें भी आत्म शांति के लिए, मोक्ष-प्रािप्त के लिए पंचम काय-क्लेश तप को अवश्यक करते रहना चाहिए।
अभी तक बाह्य पांच तपों को बताया, अब बता रहे हैं-छठे विविक्त शय्यासन तप को। आत्म कल्याणाार्थ किसी एकान्त अर्थात स्त्री, तिर्यंच, नपुंसकादिको से रहित वन या गुफा में एक करवट से सोना कहलाता है-विविक्त-शय्यासन-तप। हम गृहस्थ होने के कारण वन में, गुफा आदि में कंकरीले आदि स्थान पर तो शयन नहीं कर सकते। यहां यह नहीं बताया जा रहा है कि आज ऐसाही कीजए। अगर ऐसा कर सते हैं तो कीजिए कोई मना भी नहीं। यहां तो वह तप बताया जा रहा है, जिसे श्रावक घर में रहकर भी अच्छा तरह से पालन कर सकें।
शरीर से ममत्व बुद्धि हटाकर कम से कम अष्टमी, चतुर्दशी, दशलक्षणादि पर्वों के दिन में तो हम बिस्तरों को छोड़ किसी एकांत स्थान में, मंदिरजी में, जमीन, चैकी, चटाई आदि के ऊपर सोकर रात्रि व्यतीत करें तो वह कहलाता है विविक्तशय्यासन तप। घर में कभी बिस्तर, चारपाई आदि न मिलें फिर भी समभाव से सामायिकादि करके सानन्द रात्रि व्यतीत करन आदि भी कहा जता है विविक्तशय्यासन तप। इस तप के बिना, शरीर से ममत्व नहीं छूटता। आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जाने बिना चलना कठिन है मुक्ति-पथ की ओर। इसलिए हमें प्रत्येक दिन अपनी शक्ति के अनुसार तप अवश्य करना चाहिए। तभी होगा सार्थक नर जन्म का पाना और उत्तम कुल से उत्पन्न होना।