।। क्रोधस्वरूप ।।

क्रोधस्वरूप - क्रोधपिशाच से कौन परिचित नहीं हैं? यह जिस किसी को लगा जाता है,उसे जड़ से नष्ट कर देतेा है। इसका दूसरा नाम ज्वाला भी कहा जाता है, अग्नि नाम भी इसका सार्थक है। जिस प्रकार अग्नि में पड़कर कुछ नहीं बचता, सभी भस्म हो जाता है उसी प्रकार जो कोई क्रोधरूपी अग्नि में पड़ जाता है, ज्ञानादि गुणों को खो बैठता है। इस क्रोध से बढ़कर संसार में हमारा कोई अहितकारक नहीं है। क्रोध से बए़कर कोइ्र अन्य शत्रु नहीं है, क्रोध से बढ़कर संसार में कोई दूसरा पाप नहीं है, क्रोध अनर्थों का मूल कारण है, इसलिये क्रोध का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। ऐसा ही किसी कवि ने कहा है -

नास्ति क्रोधसमं पापं, नास्ति क्रोधसमो रिपु।
क्रोधो मूलमनर्थानां, तस्मात् क्रोध विवर्जयेत्।ं।
jain temple65

उदाहरण - जिसके ऊपर यह क्रोधरूपी भूत सवार हो जाता है, वह सभी सुध-बुध भूल जाता है और अपना अहित कर बैठता है। देखो, द्वीपायन जैसे महामुनिराज को क्रोध आ गया, तो द्वारिका तो भस्म हो ही गयी परंतु वह भी उसी जगह पर भस्म हो गये, भस्म ही नहीं क्रोध के फलस्वरूप नरक भी जाना पड़ा और सुनने में आते हैं कि कोई क्रोध के आवेश में फांसी लगाकर मर गया, कोई आग लगाकर इत्यादि। कई कांड तो हमने अपनी आंखों से देखें हैं।

सच्ची घटना - कुछ ही दिन पूर्व की बात है। पड़़ोस में पति-पत्नि में, पति साड़ी नहीं लाये, इसलिये झगड़ा हो गया। पति को कुछ क्रोध आ गया तो उन्होंने ठोक-पीठ कर दी, पत्नी को भी क्रोध आ गया कि जिसकी सीमा नहीं, क्रोध के आवेश में और तो कुछ नहीं बना, दो छोटे-छोटे नन्हे-मुन्ने बच्चे थे उनको साथ लेकर जंगल के बहाने से पानी का लोटा लेकर गांव से बाहर गयी और पास के ही कुएं मेें दानों निरपराध बालकों को पटक दिया तथा ऊपर से आप भी कूद गयी।

गांव में शोर मच गया, लोग दौड़े, तैरने वाले कुएं में रस्सी के सहारे कूद पड़े, तो उन बच्चों की मां को जीवित निकाल लिया, परंतु उन अल्पायु बालकों के प्राण पखेरू उ़ड़ चुके थे। वे पति-पत्नी अीाी तक जीवित है, लेकिन पुत्ररत्न का मुख आज तक देखने को नहीं मिला। उस दिन के क्रोध के लिए आज तक पछता रहे हैं।

इस क्रोधपिशास से हमें अवश्य ही बचना चाहिए और इससे युद्ध करने के लिए इस, पर विजय प्राप्त करने के लिए शांतिरूपी खड़्ग हर समय हाथ में (साथ में) रखना चाहिए।

क्रोध के भेद - क्रोध चार प्रकार का होता है - प्रथम पत्थर की रेखा के समान, द्वितीय पृथ्वी की रेखा के समान, तृतीय धूल की रेखा के समान, चतुर्थ पानी की रेखा के समान;, ये चारों ही प्रकार के क्रोध त्याज्य हैं। सबसे अहितकारी नरक गति में ले जाने वाला पत्थर की रेखा के समान तीव्र क्रोध है। जिस प्रकार पत्थर की रेखा सहज में नहीं मिटती उसी प्रकार यह क्रोध भी सहज में नहीं छूटता। अगर तुमने इस अनन्तानुबंधी क्रोध को जीत लिया तो समझ लो, सीाी को जीत लिया क्योंकि शेष तीन प्रकार के क्रोध इसके समान बलवान नहीं हैं।

क्रोध बराबर रिपु नहीं, दूजा जग में कोय।
सन्मति ले तजि क्रोध को, शांति मिलेगी तोय।।102।ं