उन गुरूवर के चरण में नमन अनन्ते बार। मुक्ति पथ दर्शायके भव से करते पार।।21।।
समस्त परिग्रह-रहित निग्र्रन्थ दिगम्बर मुनि का विनय के साथ उपदेश सुनाना, उनकी सेवा-शुश्रूषा करना, उनकी आवश्यकतानुसार उनको कमण्डलु, पीछी, शास्त्रादि उपकरण देना, विधिपूर्वक नवधा भक्ति से शुद्ध भोजन कराना आदि गुरू-उपासना कहलाती है।
मुनि राज के अतिरिक्त ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका आदि की उनकी स्थिति के अनुरूप विनय-उपासना भी गुरू उपासना कहलाती है।
‘गुरू’ शब्द का साधारण अर्थ है जो अंधकार की ओर से प्रकाश की ओर लाये। गुरू शब्द की निरूक्ति में कहा गया है कि ‘गु’ शब्द अन्धकारपरक है और ‘रू’ शब्द उसका निवर्तक है। इस प्रकार अज्ञानान्धकार का निवारण करने से ही ‘गुरू’ शब्द की साभिप्राय निष्पत्ति होती है। यह बात इस श्लोक में कही है-
‘गु’ शब्दस्त्वन्धकारे च ‘रू’ शब्दतन्निवर्तकः। अन्धकारविनााित्वाद् ‘गुरू’ नित्यभिधीयते।।
जो संसार रूपी विकट वन में सम्यक्त्वरूपी आंखों से रहित भोले प्राणियों को सम्यग्ज्ञान चक्षु प्रदान कर मुक्तिपथ की ओर प्रेरित करता है, वही सच्चा गुरू है। गुरू सर्वप्रथम अपने अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर देता है। और संसार-शरीर भोगों से विरक्त कर देता है शुरू चलना मुक्तिपथ की ओर।
समस्त संग (परिग्रह) से रहित होकर तेरह प्रकार का चारित्र अपनाते हुए गुरू वनों एवं गुफाओं में रहते हैं। उनके उट्ठाईस मूलगुण होते हैं। वे शीत ऋतु में नदियों के तट पर ध्यान-लीन रहते हैं, ग्रीष्मऋतु में पर्वतों की शिखा पर तपस्या करते हैं और वर्षाकाल में वृक्षों के नीचे बैठकर ध्यान करते हैं। वे क्रोधादि कषायों को अपने नजदीक भी नहीं आने देते हैं, उनके अंदर किसी प्रकार का मद नहीं होता और मन में किसी प्रकार की इच्छा जाग्रत नहीं होती। द्वादश्ज्ञ प्रकार के तपों में वे सदैव रत रहते हैं और द्वादश अनुप्रेक्षओं का शाश्वत चिन्तन करते रहते हैं। दो-दो, चार-चार अथवा अपनी शक्ति के अनुसार उपवास के बाद श्रावक के घर आहार लेने जाते हैं। आहार शरीर को पुष्ट करने के लिए नहीं लेते, मात्र क्षुधाशांति के लिए थोउ़ा सा लेते हैं। आहार लेते समय किसी प्रकार का अंतराय आ जाये तो खेद नहीं करते, खुशी अवश्य मनाते हैं। रात्रि को कम से कम सोते हैं। अधिक समय ध्यान और स्वाध्याय में ही बिताते हैं, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं होता; क्योंकि भय के साधनों से वे परहे हैं; ऐसा ही ‘वैराग्य शतक’ में भर्तृहरी में लिखा है -
धैर्यं यस्य पिता क्षमा च जननी शांतिश्र्चिरं गेहिनी, सत्यं मित्रमिदं दया च. भगिनी भ्राता मनः संयमः। शय्या भूमितलं दिशाऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजनं, हृोते यस्य कुटुम्बिनो वद् सखे, कस्माद्भयं योगिनः।।
जिसके पिता धैर्य, माता क्षमा, शाश्वत साथ निभाने वाली शांतिरूपी-स्त्री, सत्य रूपी मित्र, दया भगिनी, भाई मन और संयम पृथ्वी मंडल शय्या, वस्त्र दिशायें और भोजन ज्ञान का अमृत के तुल्य रसास्वाद है, हे मित्र! कहो तो भला जिस योगी - ‘गुरू’ के सब कुटुम्ब हैं उनको किससे भय हो सकता है अर्थात किसी से नहीं।
अनेक आचार्यों ने शास्त्रों में सच्चे गुरूओं की व्याख्या बड़ी अच्छी तरह से की है। ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ में गुरू का स्वरूप इस प्रकार बताया है -
विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रहः। ज्ञान-ध्यानप-तपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते।।10।।
भावार्थ - जो पांचों इन्द्रियों के विषयों की लालसा रहित, समस्त प्रकार के आरम्भ तथा बाहृ और अभ्यंतर परिग्रह के त्यागी और ज्ञान, ध्यान तथा तप में शाश्वत लीन रहते हैं, वह सच्चे गुरू (सुगुरू) कहलाते हैं।
आचार्य यशःकीर्ति जी ने अपने प्रबोधसार में लिखा हैं।
सर्वसत्वहिताः शांता स्वदेहेऽपि निस्पृहाः। यततो ब्रह्मतत्वस्था यथार्थ-प्रतिपादिनः।।13।। सर्व-सावद्यसम्पन्नाः संसारारम्भवर्तिनः। सलोभाः समदाः सेष्र्या समानः यतयो न ते।।14।।
जो महामुनि सब प्राणियों के हितकर, शांत अपने शरीर के ममत्वत्यागी, आत्मतत्व में लीन और यथार्थतत्व अर्थात वस्तुस्वभाव का कथ करने वाले हों, वही सद्गुरू हैं और उनसे विपरीत जो पायुक्त, सांसारिक आरम्भ करने वाले लोभी, मदसहित, ईष्र्या और मान करने वाले हैं वे सद्गुरूओं को कोटि में नहीं गिने जा सकते अर्थात वह कुगुरू ही है ओर भी कह है
श्रेष्ठो गुणैर्गृहस्थः स्यात्तः श्रेष्ठवरो यतिः। यते श्रेष्ठतरो देवः न देवादधिकं परम्।।
गृहस्थ गुणों के कारण श्रेष्ठ कहलाता है और उससे श्रेष्ठ यति (मुनिराज) हैं तथा मुनिराज से भी श्रेष्ठ वीतराग सर्वादेव हैं। यहां तात्पर्य है कि गुरू को गुणों के कारण से ही श्रेष्ठ कहा गया है और अधिक गुण गृहस्थ की अपेक्षा उनमें इसलिए माने जाते हैं कि वे त्यागवृत्ति अर्थात पर को त्याग कर अपने आत्म-चिन्तन में गृहस्थ से अधिक है। यदि उनमें भी आरम्भादिक देखा जाये तो वह मुनि भी गृहस्थ से अधिक प्रशांसनीय नहीं हो सकते। अतएव आरम्भी परिग्रही साधुओं को सद्गुरू नहीं कहा जा सकता वे कुगुरू हैं।
आचार्य अमितगति जी ने भी सच्चे गुरू का स्वरूप इस प्रकार लिखा है-
ज्ञानचरित्रयुक्तो यः गुरूर्धमोंपदेशकः। निर्लोभोतारको भव्यान् स सेव्यः सर्वहितैषिणा।।
जो मुनिराज, महासाधु सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से युक्त धर्म के उपदेशक, लोभरहित तथा भव्य पुरूषों के तारक तथा स्वयं भी संसार सागर से तिरने वाले हों वे ही सेवनीय हैं अर्थात गुरू हैं।