।। द्वितीय आवश्यक कर्म‘गुरू उपास्तिः ।।

जो गुण मण्डित बुद्ध हैं, रत्नत्रय से शुद्ध।
ऐसे मम गुरूवर महा, ध्यान करें अविरूद्ध।।22।

गुरू प्रशंसा

गुरू-प्रशंसा करते हुए आचार्य शुभचन्द्र जी ने ‘ज्ञानर्णव’ में इस प्रकार कहा है-

अथ निर्णीततत्वार्थाः धन्याः संविग्नमानसाः।।
कीत्र्यन्ते यमिनो जन्मसंभूतसुखनिस्पृहाः ।।1।।
भावभ्रमण-निविण्णाः भावशुद्धि समाश्रितः।
सान्ति के चिच्च भूपृष्ठे योगिनः पुण्यचेष्टिताः।।2।।

जो संयमी मुनी तत्वार्थ का यथार्थ स्वरूप जानते हैं, मन में संवेग रूप हैं, मोक्ष तथा उसके मार्ग में अनुरागी हैं और संसार जनित सुखों में निःस्पृह-वंछा-रहित हैं वे मुनि धन्य एवं प्रशंसनीय है और संसार के भ्रमण से निर्वेद को प्राप्त हुए, भावशुद्धि, से इस पृथ्वीतल पर कुछ ही पुण्यशाली योगी साथ हैं।

इनके सम्बंध में पंचम सर्ग में और भी कहा है -

विन्ध्याद्रिर्नगरं गुहा वसतिका शय्या शिला पार्थिवी,
दीपाश्चन्द्रकरा मृगाः सहचराः मैत्री कुलीनांगना।
विज्ञानं सलिलं तपः सदर्शनं येशां प्रशांतात्मनां,
धन्यास्ते भवपंकनिर्गमपथ-प्रोद्देशकाः सन्तु न।।21।।

जिन प्रशांतात्मा महामुनियों का विन्ध्याचल पर्वत नगर है, पर्वत की गुफायें वसतिका (गृह) हैं, पर्वत की शिला शैय्या समान है, चन्द्रमा की किरणें दीपक के समान हैं, मृग सहचर (साथी) हैं,सर्व भूतों (जीवों) पर मैत्री कुलीन स्त्री है, विज्ञान पीने का जल है, तप ही उनका उत्तम भोजन है, वे ही सद्गुरू धन्य हैं ऐसे महाऋषिराज हमें संसार रूपी कर्दम से निकालने का उपदेश देने वाले हों।

दुःप्रज्ञावल-लुप्त-वस्तु-निचया विज्ञान-शून्याशयः,
विद्यन्ते प्रतिमंदिरं निजनिजस्वार्थोंद्यता देहिनः।
आनन्दामृत-सिन्धुशीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मज्वरं,
ये मुक्तेवंदनेन्दु-वीक्षणपरास्ते सन्ति द्वित्रायदि।।24।।

कुबुद्धिबल से वस्तु समूह को लोप करने वाले (नास्तिक), सत्यार्थ ज्ञान से शून्य चितवाले तथा अपने विषयादिक के प्रयोजन में उद्यमी, ऐसे प्राणी तो घर-घर में विद्यमान हैं, परंतु आनन्दरूप अमृत के समुन्द्र के कण समूह से संसार रूप ज्वाला के दाह को अग्नि को बुझाकर मुक्ति रूपी स्त्री के मुख रूपी चन्द्रमा के विलोकन मेें तत्पर हैं। ऐसे गुरू अगर हैं तो दो-तीन ही होंगे।

निष्पन्दीकृतचित्तचण्डविहगाः पंचक्षकक्षान्तकाः,
ध्यानध्वस्तसमस्तकल्मषविषा विद्याम्बुधेः पारगाः।
लीलोन्मूलितकर्मकन्दनिचयाः कारूण्य-पुण्याशयाः,
योगीन्द्राः भवभम-देत्यदलाः कुर्तन्तु ते निर्वृतिम्।।20।।

जिन्होंने चित्तरूपी प्रचण्ड पक्षी को निश्चल कर दिया है, पंचेन्द्रिय रूपी वन को जला दिया है, ध्यान के द्वारा समस्त पापों का नाश कर दिया है और विद्यारूपी समुद्र के पारगामी हैं तथा क्रीड़ा मात्र से कर्मों को मूल-जड़ से उखाड़ने वाले हैं, करूणा भाव रूप पुण्य से पवित्र चित्तवाले हैं एवं संसार रूप भ्यानक दैत्य को चूर्ण करने वाले हैं वे योगीन्द्रभव्य प्राणियों को मुक्ति के दाता होवें। और भी कहा है -

अत्मन्यात्मप्रचारे कृतसकलबहिः संगसंन्यासवीर्या-,
दन्तज्र्योंतिप्रकाशाद्विलयगतमहामोहनिद्रातिरेकः।
निर्णीते स्व स्वरूपे स्फुरति जगदिदं यस्य शून्यं जड़ं वा,
तस्य श्रीबोधवार्धेदिशतु तव शिवं पादपंकेरूहश्रीः।।27।।

जिन मुनियों का आत्मा में अपना प्रवर्तन है, परद्रव्य में नहीं बाहृ परिग्रहत्याग से तथा अन्तरंग विज्ञान ज्योति के प्रकाश होने से जिसके महामोह रूप निद्रा व उत्कर्ष नष्ट हो गया है और जिनको स्वरूपक ा निश्चय होन ेसे संसार शून्यवत् व जड़वत् लगने लगा है, ऐसे ज्ञान समुद्र महामुनि राज के चरण कमल की लक्ष्मी मोक्षपद प्रदान करें।

और श्री सुीााषितरत्नसंदोह में इस प्रकार कहा है -

न कुर्वत कलिलबिवर्धनक्रियाः,
सर्वोद्यताः शमदमसंयमादिषु।
रता न ये निखिलजनक्रियाविधौ,
भवन्तु त ेमम हृदय कृतास्पदाः।।68।।

न रागिणाः क्वचनदोषदूषिता,
न मोहिनी भवभय-भेदनोद्यताः।
गृहीत सनमननचारित्रदृष्टयो,
भवन्तु में मनसि मुदे तपोधनाः।।684।।

जो मुनिराज पाप वर्थक क्रियाएं नहीं करते, शम-शांति, दम-इन्द्रियों का दमन और संयम-प्राणी संयम तथा इन्द्रिय संयम में तत्पर है और सांसारिक हमारे कृषि, वाणिज्य आदि व्यापार एवं िक्रयाओं से दूर रहते हैं, वे मुनिराज हमारे हृदय में विराजमान रहें।

सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के पालक, सांसारिक दुखों के नाशक, इष्ट वस्तु में राग रहित, अनिष्ट वस्तु में द्वेष रहित तथा मोह और अज्ञान से दूर, ऐसे तपस्वी जन हमारे मन में हर्ष उत्पन्न करें।

इसलिए कोई शरीरावस्था से ज्येष्ठ हाने पर भी ‘गुरू’ नहीं हो सकता। गुणों की उत्कृष्टता ही गुरू की धात्री है। इसी आधार पर, पूज्यत्व, स्थविरत्व की प्राप्ति होती है। कहा है -

न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।।

अर्थात किसी के सिर के बाल श्वेत हो गये हों इसीसे उसे वृद्ध-गुरू नहीं कहा जा सकता। यदि कोई शरीर-वय से युवा भी हों किंतु स्वाध्यायशील हैं, ज्ञानवृद्ध है और आचरणवान हैं तो उसे ही देव स्थविर ‘गुरू’ कहते हैं।

नमस्कार क्यों?

गुरू का पद उस उगते हुए सूर्य से भी बए़कर है जो आते ही अंधकार को नष्ट कर देतेा हैं जब सूर्य आता है तब अंधकार भाग जाता है अैर अस्त होते ही अपना स्थान फिर से ग्रहण कर लेता हैं सुगुरू जब अज्ञान रूपी अंधकार को हटाकर हृदय में ज्ञानदीप जला देते हैं तो फिर वह कभी बुझता नही। इसलिए चिर उपकृत शिष्य निम्न, शब्दों में गुरू के प्रति अपनी विनीत श्रद्धांजलि अर्पित करता है -

6
5
4
3
2
1