।। द्वितीय आवश्यक कर्म‘गुरू उपास्तिः ।।

अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया।
चक्षुरूनमीलितं येन तस्मैं श्रीगुरूवे नमः।।
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भावार्थ - जिस गुरू के द्वरा अज्ञान रूपी अंधकार से व्याप्त लोगों की आंखों को, ज्ञान रूपी अंजन के द्वारा खोल दिया गया है ऐसे गुरू को नमस्कार हो। और भी कहा है -

साधु नमामि दुरितं ननु संहारामि,
साधु स्मरामि सुर्गति परिवर्द्धयामि।
साधु महामि भवतामधिक महामि,
साधु धरामि हृदये शिवतां यामि।।

मुनिराज का स्मरण मैं सद्गति की प्राप्ति के लिए करता हूं, मुनिराज का पूजन मैं भव-समुद्र से पार होने के लिए करता हूं, मुनिराज के गुणों को मैं अपने हृदय में मुक्ति प्राप्ति के लिए धारण करता हूं, परोपकारी गुरूदेव को नमस्कार जन्म-जन्मांतर के पापों को क्षय करने के लिए करता हूं।

भेंट -इन परोपकारी, दया, शील, धारी, निजगुण के पुजारी, अनगारी, परम गुरूदेव को खाली हाथ नमस्कार नहीं करना चाहिए। नीतिकारों ने कहा भी है -

रिक्तपाणिर्नेव पश्येद् राजानं देवतां गुरूम्।
नैमित्तिकं विशेषण फलेन फलमादिशेत्।।12।।
(सम्यक्त्व कौमुदी)

राजा, देवता, निमित्तज्ञानी तथा विशेषरूप से तरण-तारण गुरूओं का दर्शन खाली हाथ नहीं करना चाहिए, क्योंकि फल की प्राप्ति फल से ही होती है। नमस्कार करने के पश्चात इस प्रकार अपने भाव प्रगट करें -

अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य देव! त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन।
अद्य त्रिलोकतिलकं! प्रतिभासते में संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणं।।

हे परम् गुरूदेव, आज आपके चरणकमलों का दर्शन करने से मेरे दोनों नेत्र सफल हो गये और हे तीन लोक के तिलक! आज मुझे यह संसार-सागर चुल्लू प्रमाण जान पड़ता है अर्थात आपके दर्शन करने से मुझे अपूर्व शांति का अनुभव हो रहा है मानों पापों से तो मैं मुक्त ही हो गया हूं। हे स्वामिन्! आपके चरणों की छाया में से मन घर जाने को भी नहीं करता, परंतु बंधन में जकड़ा हुआ हूं, इस गृहबंधन से छुड़ाने में आप ही समर्थ हैं -

गुरू-उपकार
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गुरू महाराज का हमारे ऊपर कितना असीम उपकार है, हमारे जीवन का आरम्भ शिक्षा-दीक्षा द्वारा गुरूचरणों की उपासना से ही सफलता की ओर अग्रसर होता है। प्राणी को कृत्याकृत्यविवेक गुरू के सानिध्य में ही प्राप्त होता है। गुरू का स्नेह और फटकार दोनों ही अशेष कामनाओं के पूरक तथा योग्यता के दाता हैं। जिस प्रकार सूप से धान के तुष् केा फटक कर अलग कर दिया जाता है उसी प्रकार गुरू की फटकार से शिष्य के समस्त दोष अलग हो जाते हैं। गुरू संसार की उत्तल-आन्दोलित समुद्राभ विषयवासना-कषाय बहुल तरंगों से कुशल नाविक के समान बचाता हुआ उस पार (भवपार) पहुंचा देता है अन्यथा अज्ञान की शिला पर बैठा मनुज डूब जाता है। गुरू ही ज्ञान का चिन्तामणि रत्न शिष्य को प्रदान करता है जिसके प्रकाश में वह पथ-अपथ को पहचान कर अपना स्वपर विवेक प्रशस्त करता है। गुरूदेव की आराधना के बिना प्राप्त ज्ञान सन्दिग्ध होता है उसे, ‘इदमित्थम्’ की निश्चयवाक्यता में आबद्ध नहीं किया जा सकता। कोई भी नेत्रवाल गुरू का उल्लंघन नहीं करता। गुरू के प्रति भक्ति उससे अधिगत आगम विद्या का विनीत कृतज्ञता-ज्ञापन है, आभारों का आनृण्य है, विनम्र अंजलि है, मिट्टी के ढेले को उठाकर कुम्भकार के समान, रत्नत्रयवर्तिका से जगमग मणि दीप बना देने वाले सच्चे गुरू की कृपाओं से कभी उऋण नहीं हुआ जा सकता, इतना अधि है उपकार उनका। अतः हमारे हृदय में गुरू भक्ति के बादल प्रति क्षण उमड़ते रहें, उनकी विनय और आज्ञा पर पूर्ण दृष्टि बनी रहे।

गुरू-भेद

आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘अष्टपाहुड’ के ‘दर्शनपाहुड’ में गुरूओं के तीन ही लिंग बताये हैं -

एक्कं जिणस्य रूवं वीयं उक्किट्ठ सावयाणं तु।
अवरट्ठियाण-तइयं चउत्थं पुण लिंगदंसणं णत्थि।।18।।

अर्थात - जिनशासन में सर्वप्रथम पूज्य लिंग जिनेन्द्र भगवान का स्वरूप अर्थात दिगम्बर मुनि, द्विीतय उत्कृष्ट श्रावकों (ऐलक ओर क्षुल्लकों) का, तृतीय आर्यिकाओं का इस प्रकार तीन ही गुरू बताये हैं, चैथा नहीं।

उत्कृष्ट गुरू समस्त संग के त्यागी महामुनिराज हैं,उनके भी तीन भेद हैं। प्रथम - आचार्य, द्वितीय-उपाध्याय, तृतीय-साधु।

शास्त्रों में आचार्य का लक्षण निरूपण करते हुए कहा गया है -

पंचधाचरन्त्याचारं शिष्यानाचारयन्ति च।
सर्वशास्त्रादिो धीरास्तेऽत्राचार्यः प्रकीर्तिताः।।

अर्थात जो पांच आचारों का स्वयं पालन करते हैं तथा शिष्यों को कराते हैं और जो सम्पूर्ण शास्त्रों के परिनिष्ठित विद्वान हैं, धीर हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। सम्यक्त्वपूर्वक अट्ठाईस मूलगुणों को धारण करवाने वाले, मंत्र दीक्षा प्रदान करने वाले ओर सम्यकचारित्र पथ पर नियोजित कर स्वर्गापवर्ग के क्षितिज चूलांकुरों को अंगन में दीप्त करने में सौविध्य प्रदान करने वाले आचार्य नित्य भव्यजनों के कल्याणकारी हैं, ऐसे अन्तर्बाहृ ग्रन्थि रहित आचार्यों को नमस्कार हो।

दिशन्ति द्वादशांगदि शास्त्रां लाभदिवर्जिताः।
स्वयं शुद्धव्रतोपेता उपाध्यायास्तु ते मताः।।

जो किसीप्रकार का नाम न चाहते हुए केवल लोक को शास्त्र में प्रवृत्त करने की पवित्र भावना से द्वादशांग शास्त्रों का अध्यापन करवाते हैं और स्वयं शुद्धव्रतों का पालन करते हैं, उन्हें उपाध्याय कहते हैं।

ये अव्याख्यान्ति न शास्त्रं न ददाति दीक्षादिकं च शिष्याणाम्।
कर्मोन्मूलनशक्ता ध्यानरतास्तेऽत्र साधवो ज्ञेयाः।।
(नाममालाटीका)

साधु वे हैं, जो न तो शिष्यों को शस्त्र पढ़ाते हैं और न दीक्षा प्रदान करते हैं। वे निरंतर ध्यानावस्थित होकर कर्मों के उन्मूलन में समर्थ होते हैं और इस प्रकार अपने वास्तविक अर्थ में ‘साधु’ पद को अलंकृत करते हैं।

उत्कृष्ट श्रावकों का द्वितीय नाम है ऐलक और क्ष्ुल्लक। आगम में दोनों का ही क्षुल्लक, लघुनन्दन तथा युवराज नाम बताया है। इनके भी दो भेद हैं-एक मात्र कोपीन रखते हैं, दूसरे कोपीन के साथ एक अखण्ड अर्थात बिना सिला हुआ वस्त्र और रखते हैं। जो मात्र कोपीन (लंगोटी) रखते हैं उन्हें आजकल ऐलक (एक वस्त्र वाले) के नाम से पुकारा जाता है और जो कोपीन के साथ एक कोमल लघु चद्दर भी रखते हैं उन्हें क्षुल्लक (मुनि से छोटे) केनाम से पुकारा जाता है।

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