।। तृतीय आवश्यक कर्म:स्वाध्याय ।।

भविजन को सुख होत है, करने से स्वाध्याय।
इसका ही वरणन यहां, सरस्वती को ध्याय।।

श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए और गणधरों के द्वारा गूंथे व समझाये हुए तथा आचार्यों के द्वारा लिखे हुए, ऐसे सद्शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ना, सुनान-सुनाना, पूछना व बताना, चिन्तवन व मनन करना, चचा करना, स्वाध्याय नामक तृतीय आवश्यक कर्म है।

jain temple23
स्वाध्याय क्यों?

आज यत्र-तत्र भटकते हुए कहीं भी ऐसी आशा की किरण दिखाई नहीं देती, जिसका आलम्बर होकर हम अपनी संकल्प-विकल्प, आशा-तृष्णा, राग-द्वेष, चिन्ता व व्याग्रतारूपी निशाचारों से रक्षा कर सकें। कुछ समय के लिए अपने को अशांत वातावरण से बचाकर शांति के लिए हमने देव का आश्रय लिया था, परंतु उनकी भक्ति में यह चंचल मन कब तक लीन रह सकता? भगवान मुख से भी तो नहीं बोलते अगर बोलते होते, तो फिर किसी अन्य अलम्बर की आवश्यकता नहीं थी। मात्र उनकी मुखाकृति को देखकर सदैव चित्तको नहीं रोका जा सकता। इतना आवश्य हो सकता है कि उनकी वीतराग सौम्य मुद्रा को देखकर कुछ समय के लिए आनन्द-सागर में स्नान किया जा सकता है। अगर निरंतर अभ्यास करते रहें तो हमेशा के लिए आनन्द-सागर में मग्न हो जायेंगे।

व्याकुलताओं के ऊपर विजय प्राप्त करने के लिए हमने आदर्श गुरू का आलम्बन किया था। उनका स्पर्श करते अर्थात उपदेश सुनते ही व राग-द्वेष रहित मुद्रा को देखते ही ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानों भव-भव के पापों से हम मुक्त हो ही गये हों परंतु गुरू उपदेश तो कभी-कभी मिलता है, क्योंकि वह किसी एक स्थान पर तो ठहरते नहीं आज यहां तो कल वहां अगर घर छोड़कर गुरूओं के साथ रहा जाये तो यह भी सम्भव नहीं, क्योंकि गुरूओं के साथ रहने का अवसर प्राप्त होना किसी मामूली पुण्य के हाथ की बात नहीं हे। गुरू के एक-दो दिन के सुने हुए उपदेश का कब तक मनन किया जा सकता है और स्मृतिज्ञान भी कम होता जा रहा है। हमारे लिए कुछ ऐसा सहारा चाहिए, जिससे हमें प्रत्येक दिन मार्गदर्शन होता रहे, जो हमें निजगुणों की याद दिलाता रहे।

देखो उप परम गुरूओं का उपकार, जिन्होंने हमारे लिए भगवान जिनेन्द्र के द्वारा कहे हुए सिद्धांत व वस्तु-स्वभाव धर्म को शास्त्रों में लिख दिया- और लिख दिय उन्होंने हमारे जिीव का आदि से अंत तक का पूरा इतिहास। जो सूक्ष्म-सूक्ष्म तत्व उन्होंने अपने समाधिगत चित्त में अनुभव किये वे लिख दिये, जिनको पढ़कर हम अपने मन को अधिक से अधिक समय तक उनके चिंतन व मनन में लीन रख सकते हैं। कर्तव्य व अकर्तव्य का विवेक उत्पन्न करके निषिद्ध कर्मों से बच सकें, हिताहित का ज्ञान कर सकें, घर बैठे समस्त सृष्टि व अलाकेन कर सकें। उन गुरूओं के द्वारा रचे शास्त्रों को पढ़कर ही तो देव की आकृति से भी कुछ जीवन में अपना सकते हैं, क्योंकि नमूना यद्यपि बहुत कुछ अपना रूप दिखता है, परंतु फिर भी अपना बनाने का उपाय नहीं बता सकता उसके लिए तो उसके प्रयोग को जानने की अपेक्षा होती है, जिसको जान व पढ़कर नमूने के अनुसार माल तैयार किया जा सकता है। बस इस कमी की पूर्णता कर दी परम दयालु गुरूओं ने उन शास्त्रों को पढ़कर हम देव के अनुरूप अपना जीवन बना सकते हैं, गुरू प्रदत्त इस शास्त्र के प्राप्त होने से हमें प्रतीत ोता है कि मानों गुरू का नित्य सम्पर्क ही हमें प्राप्त हो गया है। शास्त्र पढ़ते ही ऐसा मालूम होता है कि साक्षात सामने गुरूदेव ही बैठे हुए हैं। इसलिए देव या गुरू के प्रति मन को प्रतिक्षण लगाने के लिए उनके द्वारा रचे हुए शास्त्रों का पठन-पाठन करना अत्यंत अनिवार्य है।

स्वाध्याय बिना ज्ञान नहीं
स्वाध्याय बिन होत नहीं, निज पर भेद विज्ञान।
जैसे मुनि पद के बिना, न हो कवेलज्ञान।।26।।

हस्वाध्याय के बिना हममें अपने शरीर के अंदर छिपी हुई आत्मा का ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे नेत्र रहित व्यक्ति सूर्य के दर्शन नहीं कर सकता, वैसे ही आगमचाु से रहित मानव अपनी मात्मा का दर्शन नहीं कर सकता कहा भी है-

अनालोकं लोचनमिवाशास्त्रं मनः पश्येत्।।1।।
अनधीत-शास्त्रस्यचक्षुष्वानपि पुमानन्धः।।2।।
अलोचनागोचरे हृर्थें शास्त्रं तृतीयं लोचनं पुरूषाणाम्।।3।।
कि नामन्धः पश्येत्।।4।।(नीतिवाक्यामृत)

जिस प्रकार बिना प्रकाश के अंधेरे में जैसे नेत्रों द्वारा धरे हुए पदार्थों का भी पूर्ण ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार बिना शास्त्रों के अनुभव किऐ हुए भी सत्य कर्तव्य का ज्ञान नहीं होता।।6।।

ज्ञान नेत्र का उद्घाटन शास्त्र-स्वाध्याय से ही होता है, बिना शास्त्र-ज्ञान के चक्षु होने पर भी मनुष्य को नीतिकरों ने अंधा कहा है।

जो पदार्थ चक्षु द्वारा प्रतीत नहीं होता उसे प्रकाशित करने के लिए शास्त्र ही समर्थ है। यह शास्त्रज्ञान मनुष्यों का तीसरा नेत्र है क्योंकि शास्त्रज्ञज्ञान के बिना अंधे पुरूष को क्या प्रतीत हो सकता है? कुछ भी नहीं। और भी कहा है नीतिकारों ने -

‘‘न हृाज्ञानादन्यः पशुरस्ति’’
(नीतिवाक्यामृत)

शास्त्रज्ञान रहित मूर्ख मनुष्य को छोड़कर उपचार से कोई और पशु नहीं हैं अर्थात जिस प्रकार पशु घास वगैरह खाकर केवल मलमूत्रादि क्षेपण करता है, किंतु उसे धर्म-अर्धम, कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य भी बिना ज्ञान के अभक्ष्य भक्षण कर मलमूत्रादि क्षेपण कर समय व्यतीत करता है, धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं समझता।

अतः यदि हम चाहते हैं सुख और शांति तो स्वाध्याय के बिना नहीं मिल सकती। इसलिये हमें आचार्यों के द्वारा रचे हुए ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।

कैसे पढ़ें?

इस प्रकार भंवर में डगमगाती हुई नैय्या को पार लगाने वाली जिनवाणी माता की गोद का आश्रय लेना ही इस निकृष्ट काल में विकल्प रूप निशाचरों से बचने का एकमात्र उपाय है। अतः शास्त्र पठन अत्यंत आवश्यक है। जिस प्रकार कोई स्कूल, कालेज में जाये और गुरू के आगे हाथ जोउ़कर आ जावे तो उससे कोई लाभ नहीं। इसी प्रकार शास्त्रों को भी दूर हाथ जोड़ लिए जाने मात्र से हमारा अज्ञान नहीं नष्ट हो सकता। जिस प्रकार भौतिकशाास्त्र ;च्ीलेपबद्ध के साहित्य को पढ़े बिना उसके आविष्कार व चमत्कारों का ज्ञान व विश्वास नहीं हो सकता, उसी प्रकार इसके साहित्य को पढ़े बिना इस विज्ञान का ज्ञान व इसके चमत्कारों पर विश्वास नहीं हो सकता। सि प्रकार लेखक के लिए सभी विद्यायें पठनीय है, इसी प्रकार बुद्धि के विकास के लिए इस अध्यात्म-विद्या का सही पठन भी आवश्यक हैं। जिस प्रकार भौतिक विज्ञान से साहित्य को शब्दों मात्र से स्मरण कर लेने से काम नहीं चलता उसी वाच्यभूत पदार्थ का ज्ञान व प्रयोग की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार इनके शब्दों को पढ़ने, सुनने मात्र से काम नहीं चलता अपितु इसके वाच्यभूत पदार्थ के जीवन में प्रयोग की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार भौतिक विद्या को विश्वासपूर्वक अपना कल्याणकार मानकर चित्त लगाकर पढ़ा व सुना जाता है उसी प्रकार इसको भी श्रद्धापूर्वक अपने लिए उपकारी समझकर श्रवण व पठन करना चाहिए। जिस प्रकार धन कमाने में सब कुछ भूल जाते हैं, उसी प्रकार शास्त्रों का स्वाध्याय करते समय सब कुछ भूल जायें, याद रहे एकमात्र चेतना। तभी यह डगमगाती हुई नैय्या पार हो सकेगी ज्ञान के बिना सुख मिलना कठिन है। सच्चा शास्त्र पढ़ने व ममन करने से होता है।

ज्ञान की महिमा

मुक्ति भी जिस ज्ञान के बिना नहीं मिलती उसे कैसे न प्राप्त किया जाये! अवश्य किया जाये -- चाहे कितनी भी कठिनाईयों का सामना क्यों न करना पड़े, संसार में भी ज्ञान के समान कोई सुख का देनो वाला नहीं। पंडित दौलतराम जी ने अपने ‘छहढाला’ ग्रन्थ में ज्ञान के विषय में इस प्रकार कहा है -

5
4
3
2
1