।। तृतीय आवश्यक कर्म:स्वाध्याय ।।

प्रथम शास्त्र अनुयोग में, पुण्य पाप फल दोय।
इन दोनों को जान के, ज्ञानी निज में होय।।31।।
करणानुयोग का स्वाध्याय क्यों?

प्रथमानुयोग का स्वाध्याय तो हमने इसलिए स्वीकार किया है कि उसको पढ़ते ही जवीन में मोड़ आ गया, करणनुयोग का स्वाध्याय किसलिए करें? इसमें जीव के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म भावों का जड़-कर्मों द्वारा निरूपण किया है। यद्यपि सभी दर्शनकारों ने कर्म सिद्धांता का निरूपण किया है परंतु जितना विशद व सूक्ष्म वर्ण इसमें जैन ऋषियों ने किा है इतना अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता। कर्मसिद्धांत का स्वरूप व विस्तृ वर्ण षट्खण्डागम, कषाय-पाहुड, गोम्टसार आदि ग्रन्थों में पाया जाता है। इसमें जीव के संस्कारगत कर्मों का बंध, उदय, सत्ता, उत्कर्षण, उपकर्षण, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशाम आदि का वर्णन किया गया है। व्यवहारगत जीवों की तो बात ही क्या समाधिगत साधु के भी वासनारूप से कितने कर्मों एवं संस्कारों की सत्ता है इसके दिग्दर्शन यही अनुयोग कराता है, जिससे साधक उन सूक्ष्म परिणामों की सत्ता जान कर उसका मूलतः विनाश करने में ही अपनी साधना की पूर्णता समझें। कहीं एक-दो स्थूल कषायों के उपशमन मांत्र में ही अपनी साधना की पूर्णता का भ्रम न कर बैठें। इसलिये आवश्यक है इस अनुयोग का पठन-पाठन, मनन-चिन्तन।

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इसके अतिरिक्त इन अनुयोग से सृष्टि का अध्ययन भी किया जाता है। भूगोल व खगोल की रचना किस प्रकार की है, स्वर्ग व पाताल लोक कहां है तथा उनका स्वरूप क्या है? वे आकाश में किसके आधार पर टिके हैं? इस पृथ्वी के अतिरिक्त अनन्तों और भी ब्रह्माण्ड इस अनन्ताकाश में विचरण कर रहे हैं? उनका परस्पर में क्या सम्बंध है, वे कैसे बने हैं, चन्द्र व सूर्य क्या चीज हैं, वे आकाश में किसे आश्रित हैं, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र अदि का गमनादि कैसे होता है, उनका परस्पर क्या सम्बंध हैं, सूर्यग्रहण आदि क्या चीज हैं, ज्वार भाटा कैसे आता है, इन ग्रहों व उपग्रहों का मानवीय प्रकृति से क्या सम्बंध है, मनुष्य के भावी सुख व दुखों को ये कैसे दर्शाते हैं, आदि-आदि सभी विषयों का उन आचार्यों ने गहन मन्थन कर इसमें उसे भर दिया है, आज के भौतिक युग में जीने के लिए इन सभी का भली प्रकार अध्ययन व चिन्तन करना चाहिए।

करणानुयोग के स्वाध्याय बिना उल सूक्ष्म भावों का पता नहीं लग सकताा, जो हर समय आकर आत्मा के ऊपर आवरण बनकर छाये रहते हैं। इसलिये कर्मबंधन से मुक्त होने के लिए करणानुयोग के ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।

करण भावको कत हैं, इनका वरणन होय।
वहीं करण अनुयोग है, लखे तरे भव सोय।।32।।
चरणानुयोग का स्वाध्याय क्यों?

करणानुयोग का स्वाध्याय हमने इसलिए स्वीकार किया है कि जिन द्वारों से कर्म लुटेरे आते हैं, उनको रोक अंदर बैठे हुए कर्मों की खोज कर लें। परंतु चरणानुयोग का स्वाध्याय करन से हमें क्या लाभ? क्या यह भी मार्ग-दर्शन देता है? चरणानुयोग उसे कहते हैं जिसमें आचरण अर्थात चारित्र का विवेचन किया गया है, चारित्र बिना मुक्ति नहीं, यह कहावत बिलकुल ठीक है, क्ग्योंकि ज्ञानभी तब तक ज्ञान नहीं जब तक चारित्र में न उतरे। ज्ञान से वि़ान बन सकते हो, परंतु भगवान नहीं। भगवान बनने के लिए सर्वप्रथम सुधारना होगा अपना आचरण, ज्ञान को लाना होगा क्रिया रूप में। इसको जानने के लिए आवश्यक है चरणानुयोग का स्वाध्याय। आचरण दोप्रकार का होता है - बाहृ व अंतरंग। बाहृ आचरण कुछ हाहृ ब्रत-त्यागदि तथा हृाय विवेकपूर्वक क्रियाओं से सम्बंध रखता है और अंतरंग चारित्र मन की सांसार-शरीर-भोगों से विरक्त वैराग्यपूणर्् भावनाओं से। इन दोनों का परस्पर में घनिष्ठ सम्बंध है क्योंकि बाहृ में विवेक व शुद्धता के होने से मन के विचारों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। कहा भी है - ‘‘जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन।’’ इसलिए मन भी पवित्र, दयावान, वैराग्यमय रखने के लिए बाहृ में भी चारित्रवान व अहिंसक प्रवृत्ति की आवश्कता है। बाहृ में चारित्र व अहिंसकवृत्ति हाने पर अंतरंग में दयाभाव व पवित्रता सम्भव है परंतु बाहृ में चरित्रहीन व हिंसकप्रवृति हो तो अंतरंग में पवित्रता व दयाभाव की उत्पत्ति सर्वथा असम्भव है। अतः बाहृ व आभ्यंतर दोनों प्रकार के आचरणार्थ चरणानुयोग के शास्त्रों का स्वाध्याय करें, उसे उतारे अपने हृदय में। तभी मोउ़ सकेंगे पर की ओर से अपने को अपनी ओर, पा जोयंगे उस अक्षय आनन्द को जिसे प्राप्त किया है पूर्ण चारित्र का आचरण् करने वालों ने।

कथन मिले आचरण का, चरण नाम के ग्रन्थ।
करते जो आचरण को, तज देते हैं ग्रन्थ।।33।।
द्रव्यानुयोग का स्वाध्याय क्यों?
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चारणानुयोग के बिना अंतरंग व बाहृ शुद्धि नहीं होती, इसलिए उसका स्वाध्याय करना हमने स्वीकाार किया, परंतु द्रव्यानुयोग का स्वाध्याय करनेसे क्या जीवन में कोई लाभ है? द्रव्यानुयोग के स्वाध्याय किये बिना जीवादि द्रव्यों का व तत्वों का यथार्थ स्वरूप नहीं जाना जा सकता औरयह भी भेद-ज्ञान नहीं हो सकता कि जड़ व चेतन न्यारे-न्यारे हैं मैं तो मात्र ज्ञाता-दृष्टा हूं, पुद्गल से मेरा कोई सम्बंध नही। इसी का अध्ययन करने से हमें ज्ञात होगा कि अनादि काल से इस विकट भव-वन में क्यों भटके हुए हैक्ं, रागद्वेष क्यों होता हैं, कर्मबंध कैसे हो ाते हैं, आत्मा का स्वभाव क्या है, पुद्गल क्या है, आत्मा व पुदगल भिन्न कैसे है, अीाी तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई, पर को अपना हम क्यों मानते रहे, इस सभी का ज्ञान इसी अनुयोग से हो सकता है। आत्मज्ञान हो जाने के बाद मोउ़ लिया जायेगा जडत्र की ओर से अपने को अपनी ओर, हो जायेगा उसी समय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, आ जायेगी मुक्ति वधू खोजती हुई नजदीक, हो जायेगा आत्मज्ञान, केवलज्ञान। इसलिए अगर चाहते हो सच्चे सुख को तो द्रव्यानुयोग का स्वाध्याय भी कर दो शुरू इसके बिना आत्मज्ञान होना असम्भव है, तत्वज्ञान होना कठिन है, सम्यग्ज्ञान होना दुर्लभ है। इन ज्ञानों के बिना मुक्ति सम्भव नहीं औ मुक्ति हुए बिना कठिन सुख सम्भव नहीं।

शुद्ध वस्तु को जो कहे, वही द्रव्य अनुयोग।
निज में लखता द्रव्य को, वह होता अनुयोग।।34।।

इन चारों अनुयोगों के शास्त्रों का स्वाध्याय हमें क्रम से मन-वचन-काय की चेष्टा को रोक कर करना होगा, तभी स्वाध्याय से होगा स्वज्ञान।

स्वाध्याय ओर मनन

शास्त्रों का पठन-पाठन हम कितना ही क्यों न करते रहें, जब तक उसको अमृत तुल्य समझकर न पियेंगे अथवा उस पर बार-बार मनन न करेंगे तब तक कोई लाभ नहीं हो सकता। गाय, भैंस दिन में चारा खाती है और रात में उसे हीदुबारा चबाती है ठीक उसी प्रकार हमें स्वाध्याय करने के बाद दिन-रात यह विचार करते रहना चाहिए कि आज शास्त्र मेंयह बात पढ़ी थी, अगर यह जीवनोपयोगी है, तो उे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए और अनुपयोग है तो उसे अपने नजदीक भी न आने देना चाहिए। मनन नाम इसी का है कि अच्छी बातों को लेना खराब को छोड़ना। जब तक शास्त्र पढ़ कर मनन नहीं करेंगे, तब तक कोई लाभ नहीं होगा। जैसे एक व्यक्ति ने महाराज जी से स्वाध्याय का तो नियम ले लिया परंतु उसे आचरण में लाने का नहीं, तो उससे कोई लाभ नहीं हुआ। लाभ तो उसी दिन होगा जब करना शुरू कर दोगे उस पर मनन और आचरण, पी जायेंगे जिनवाणी रूपी अमृत को, जैसे बुढि़या का जमाई पी गया था घी को।

स्वाध्याय संग में मनन, अरू होवे आचरण।
निश्य इसका फल यही, मुक्तिरमा सह वरण।।35।।
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