।। तृतीय आवश्यक कर्म:स्वाध्याय ।।

ाान समान न आन जगत में सुख को कारण।
इहृ परमामृत जन्म-जरामृतु रोग निवारण।।

ज्ञानसदृश संसार में कुछ भी नहीं, अतएव वह सुख का मूलभूल कारण है और लोक में यदि कुछ परम अमृत है तो वह ज्ञान ही है जो कि जनम जरा व मृतयु को सदैव के लिए हटा सकता है। परंतु संसार में और तो समस्त वस्तुएं सुलभता से प्राप्त की जा सकती है पर ज्ञान ही एक ऐसा है जिसे सही रूप से प्रज्ञपत करना किसी सामान्प्य पुण्य का काम नहीं। पं0 भूधरदास जी ने इसके विषय में इस प्रकार कहा है अपनी बारह भावनाओं में -

धन कन कंचन राज सुख सबहिं सुलभ कर जान।
दुर्लभ है संसार में एक जथारथ ज्ञान।।

इसी प्रकार अनेक आचार्यों व कवियों ने भी सच्चे ज्ञान की जगह-जगह प्रशंसा की है। कहीं-कहीं तो यह भी लिख दिया है कि मनुष्य कके दोनों चक्षु होते हुए भी वह अंधे के सदृश है अगर उसके तीसरा ज्ञानचक्षु नहीं है तो। ज्ञाननेत्र को खोलने में समर्थ है तो मात्र एक जिवाण माता।

परिजन धन कुछ न चले, मरण समय में साथ।
ज्ञान अडिग निज की निधी, भव भव जावे साथ।।27।।
जिनवाणी माता

आचार्याों ने जिनवाणी को माता कहकर पुकारा है और उसे मुक्ति का कारण बताया है तथा उसकी भक्ति व स्तुति की है। जिस प्रकार माता अपने पुत्र को दूध पिलाकर बड़ा करती है, ठीक उसी प्रकार जिनवाणी माता ज्ञानामृत का पान कराकर ज्ञानरूपी अंधकार को मेंट, सच्चा मार्गदर्शन कराती है, इसलिए श्री आचार्य पद्मनन्दि अपने ‘पंचविंशतिका’ ग्रन्थ के 779 वें श्लोक में जिनवाणी को माता के रूप में स्मरण करते हुए लिखे हैं -

विधय मातः प्रथमं त्वदाश्रयं,
श्रयन्ति तन्मेक्षपदं महर्षयः।
प्रदीपमाश्रित्य गृहे तमस्तते,
यदीप्तिसतं वस्तु लभते हि मानवः।।779।।

अर्थात हे जिनवाणी माता! महान् ऋषिगण पहले तेरा आश्रय लेकर ही मोक्षपद को प्राप्त करते हैं। जैसे कि अंधेरे घर में मनुष्य दीपक का आश्रय लेकर अभीष्ट वस्तु को पा लेता है। श्रीपद्मनन्दि आचार्य श्लोक 801 में भी कहते हैं -

यथाविधानं त्वमनुस्मृता सती,
गुरूपदेशोयमवर्णभेदतः।
न ताः श्रियस्तेन गुणा न यत्पदं
प्रयच्छसि प्राणभृतेव यच्छुभे।।80।।

हे जिनवाणी माता! तेरा यथविधि मनन, पठन, स्मरण करने पर ऐसी कोई सम्पदा नहीं, ऐसा कोई गुण नहीं, ऐसा कोई गुण नहीं, ऐसा कोई पद नहीं, जिसको तू प्रदान न करत हो। अर्थात जिनवाणी के स्मरण से स्वर्ग-मोक्षपद प्राप्त होते हैं। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने नियमसार ग्रन्थ की ‘सम्मत्तस्स णिमितं जिणसुत्त’ आदि 53वीं गाथा द्वारा सम्ग्दर्शन के प्रकट होने का बाहरी निमित्त कारण जिनवाणी को बतलाया है। ‘प्रवचनसार में भी वे इस प्रकार कहते हैं -

जिणसत्थादो अठ्टे पच्चक्खा दीहिं बुज्झदो णियमा।
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समाधिदव्वं।।86।।

जिनवाणी से प्रत्यक्षदि प्रमाणों द्वारा पदार्थों को जानने वाले ज्ञानी के नियम से मोह का समूह क्ष्य हो जाता है, इस कारण् जिनवाणी माता का अच्छी तरह से अध्ययन व मनन करना चाहिए।

संसार में हमारा उपकार करने वाली है तो जिनवाणी माता ही है। माता अपने बच्चों को गलत मार्ग सेरोकती है, उसी प्रकार यह जीवन-पथ पर दीपक बनकर मार्गदर्शन कराती है। इस माता का किया हुआ उपकार कभी नहीं चुकाया जा सकता। सच्चे पथ की अगर खोज करना सही लक्ष्य है तो जिनवाणी माता को अपने हृदय रूपी मंदिर में विराजमान करें, विनय के साथ, भक्तिपूर्वक उसका मनन, चिन्तन करें, उसे ही स्वाध्याय कहते हैं। स्वाध्याय किये बिना अपना ज्ञान नहीं हो सकता, अपना ज्ञान हुए बिना हिताहित का विचार नहीं आ सकता, हिताहित विचार के बिना यह कार्य सही है, यह ज्ञान नहीं हो सकता। ससलिये हमें लौकि समस्त कार्यों को छोड़कर स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।

जैसे माता पुत्र को, कर देती बलवान।
जिनवाणी जगमात है, अमर करे दे ज्ञान।।28।।
‘स्वाध्याय’ शब्द का अर्थ
jain temple24

‘स्वाध्याय’ के अर्थ के सम्बंध में लोगों के अनेक मतभेद हैं कुछ लोगों क कहना है कि पुस्तकों का पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है। कुछ लोगों का कहना है कि आत्मनिरीक्षण करते हुए डायरी लिखना स्वाध्याय है। कई लोगों का मत है कि सिद्धांत-ग्रन्थों का पढ़ना-पढ़ाना स्वाध्याय कहलाता है। लौकिक इतने अर्थों का विवाद उस समय अपने आप समाप्त हो जाता है, जब मनुष्य के ज्ञान में उसका सही अर्थ समा जाता है।

‘स्वाध्याय’ शब्द का विश्लेषण करने वालों ने इसके दो प्रकार से समाज किये हैं - ‘‘स्वस्यात्मनोऽध्ययनम्’’ अपनी आत्मा का अध्ययन, आत्म-निरीक्षण। ‘‘स्वमध्ययनम्’’ - अपने आप अध्ययन अर्थात मनन। दोनों प्रकार के विश्लेषणों में स्व का ही महत्व है।

वास्तव में स्वाध्याय पद में दो शब्द हैं - स्व$अध्याय। स्व से अभिप्राय अपनी आत्मा का है और अध्याय से आशय प्रकरण, परिच्छेद, पाठ आदि का है। अर्थात स्वाध्याय शब्द का अर्थ हुआ - आत्मा के अध्याय को पढ़ना, आत्मा के गुणों को खोजकर जीवन में (अपने में) झांकना कि आत्मा के जो गुण हैं वे मुझ में हैं य नहीं। नही ंतो उसी समय से अपने को मोड़ लेना लोक की ओर से अलोक की ओर, अवगुणों से गुणों की ओर, बाहृ से अंतरंग की ओर। तब होने लगेगा स्वानुभव अपने आप। हो जायेगी प्राप्ति आत्मगुणों का सही तरह से कल लेंगे अपना पठन-पाठन और मनन। यही होगा सच्चा स्वाध्याय।

किसी विद्वान ने भी कहा है -

म्अमतल उंद पे ं टवसनउम प िीम ादवूे जव तमंक पजण्

प्रत्येक आदमी एक ग्रन्थ है, यदि वह उसे पढ़ना जानता है। कहने का आशय है कि हमारे अंदर ज्ञान छिपा है, जो कुछ ग्रन्थों में विवेचन है वह इस अंदर बैठे आत्मा का ही तो है, जिसे भूलकर हम बाहर खोज रहे हैं। अगर अपने को अपने (स्व का अध्याय) में खोजना प्रारम्भ कर देंगे, तो पा जायेंगे अपने आपको अपने में, यही होगा सच्चा स्वाध्याय।

स्वयं स्वयं को ध्यावना, सुहित करन के काज।
एही तो स्वाध्याय है आगम कारण आज।।29।।
शास्त्र पढ़ना स्वाध्याय है क्या?

अल्पबुद्धि होने से आज वह योग्यता हम लोगों में नहीं कि हर किसी कार्य को बिना किसी आलम्बन लिए कर लें। इसलिए अपना स्वरूप जानने के लिए किसी योग्य अनुभवी का सहारा लेना भी स्वाध्याय कहलाता है। इसी आशय को लेकर देव गुरू को भी स्वाध्याय में निमित्त माना है और शास्त्रों में तो आत्मा का ही विवेचन किया गया हैं उसको संसार से मुक्त बनाने का उपाय बताया गया है इसलिए शात्रों का पढ़ना भी स्वाध्याय कहलाता है।

5
4
3
2
1