।। पंच परमेष्ठी के मूलगुण ।।

परमेष्ठी किन्हें कहते हैं? धर्म स्थान में जिनका पद बडा होता है, गुणों की अपेक्षा जो सबसे श्रेष्ठ होते हैं और चक्रवर्ती, राजा तथा इन्द्रादि देव भी जिनके चरणों में अपना सिर झुकाते हैं, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। ये पांच होते हैं - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। इनका पूजन करने से, ध्यान करने से, स्तुति करने से, गुणों का चिन्तवन करने से परम इष्ट की सिद्धि होती है। इसलिये भी इन्हें परमेष्ठी कहते हैं।

अरिहन्त परमेष्ठी का लक्षण - जिन्होनंे चार घातिया कर्मों-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय ओर अंतराय को चकनाचूर (नष्ट) कर दिया है और जो 46 मूलगुणों तथा अनन्त उत्तरगुणों से सुशोभित हैं, तथा अष्टादश दोषें से रहित हैं, वीतरागी, सर्वज्ञ तथा हितोपदेशी हैं, उन्हें अरिहन्त परमेष्ठी कहते हैं।

अरिहन्त परमेष्ठी के मूलगुण

चैतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ।
अनन्त चतुष्टय गुण सहित, ये छियालीसों पाठ।।

34 अतिशय, 8 प्रातिहार्य और 4 अनन्त चतुष्टय ये अरिहन्त के 46 मूलगुण हैं उत्तर गुण अनन्त है।

अतिशयों के नाम या भेद

दश अतिशय हैं जन्म के, दश ही केवलज्ञान।
चैदह होते देवकृत, अतिशय चैंतिस जान।।

भगवान का जन्म 10 अतिशय युक्त होता है केवलज्ञान होते ही 10 अतिशय और प्रगट हो जाते हैं तथा उसी समय देवों के द्वारा किये गये 14 अतिशय भी होते हैं, इस प्रकार चैंतीसं अतिशय होते हैं।

अतिशय किसे कहते हैं, सर्व साधारण प्राणियों में नहीं पाई जाने वाली अद्भुत या अनोखी बात को अतिशय कहते हैं।

जन्म के दस अतिशय
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अतिशय रूप सुगन्ध तन, नांहि, पसेव निहार।
प्रिय हित वचन, अतुल्य बल, रूधिर श्वेत-आकार।।
लक्षण सहस रू आठ तन, समचतुष्क संठान।
वज्रवृषभनाराच जुत, ये जनमत दस जान।।

1 - भगवान का रूप मनोहर, अत्यंत सुन्दर होता है।

2 - शरीर से अत्यंत सुन्दर सुगन्ध आती है।

3 - शरीर में पसीना नहीं आता है।

4 - मलमूत्र नहीं होता है।

5 - भगवान की वाणी हित, मित और प्रिय होती है।

6 - शरीर में बल अतुल होता है।

7 - रूद्धिर सफेद होता है।

8 - उनके शरीर में 1008 लक्षण होते हैं।

9 - समचतुरस्त्र संस्थान (कोई भी हड्डी का उठाव न होना) होना और

10 - वज्रवृषभ-नाराच संहनन होना।

ये दस अतिशय भगवान अरिहन्त के जन्म से ही होते हैं।

केवलज्ञान के दस अतिशय

योजन शत इक में सुभिख, गगन गमन मुख चार।
नहिं अदया उपसर्ग नहीं, नहीं कवल-आहार।।
सब िवद्या-ईश्वरपनों, नाहिं बढ़ें नख केश।
अनिमिष दृग छाया रहित, दश केवल के वेश।।

1 - भगवान अरिहन्त के जब केवलज्ञान होता है उस समय उनके परितः (चारों ओर) सौ-सौ योजन में ‘सुकाल’ आनन्द ही आनन्द हो जाता है।

2 - भगवान जब विहार करते हैं (एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते हैं) तब पृथ्वी पर न चलकर आकाश-मार्ग से चलते हैं।

3 - भगवान एक ही होते हैं, फिर भी चारों ओर मुख दिखते हैं।

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4 - भगवान के समीप किसी प्रकार की अदया (हिंसा) नहीं होती है।

5 - किसी प्रकार का उपसर्ग भगवान के ऊपर नहीं होता है। (इसलिये उपसर्ग सहित, मूर्ति अरहन्त भगवान की मान के नहीं पूजनी चाहिये)

6 - कवलाहार (ग्रासवाला आहार) भगवान नहीं करते (क्योंकि उन्हें क्षुधा वेदना नहीं सताती)

7 - भगवान समस्त विद्याओं के स्वामी होते हैं।

8 - नख और केश भगवान के नहीं बढ़ते।

9 - भगवान के नेत्रों की पलकें नहीं झपकतीं और

10 - शरीर की छाया नहीं पड़ती। यह दस अतिशय भगवान के केवलज्ञान होते-होते ही प्रगट हो जो हैं इसलिए इनको केवलज्ञान के अतिशय कहते हैं।

देवकृत चैदह अतिशय

देवरचित हैं चार दश, अर्धमागधी भाष।
आपस माहीं मित्रता; निर्मल दिश आकाश।।
होत फूल फल ऋतु सबें, पृथ्वी कांच समान।
चरण कलम तल कमल हैं, नभतेैं जय जय बान।।
मन्द सुगन्ध बयार पुनि, गन्धोदक की वृष्टि।
भूमि विषै कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि।।
धर्मचक्र आगे चले, पुनि वसु मंगल सार।
अतिशय श्रीअरिहन्त के, ये चैंतीस प्रकार।।

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