।। पंच परमेष्ठी के मूलगुण ।।

साधु परमेष्ठी के मूलगुण

पंच महाव्रत समिति पंच, पंचेन्द्रियका रोध।
षट् आवश्यक साधुगुण सात शेष अबबोध।।

5. महाव्रत, 5 समिति, 5. इन्द्रिय-विजय, 6. आवश्यक और 7. शेष गुण, ये 28 मुनिराजों के मूलगुण हैं। उत्तर गुण अनेक हैं।

महाव्रतों के नाम व लक्षण

हिंसा अनृत तस्करी, अब्रहृ परिग्रह पाप।
मन वच तनतैं त्यागवो, पंच महाव्रत थाप।।

मन, वचन, काय से पांचों पापों का पूर्ण त्याग करना महाव्रत कहलाता है। अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचैर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और परिग्रह-त्याग महाव्रत इस प्रकार ये पांच महाव्रत हैं।

मन, वचन, काय से सर्वथा हिंसा का त्याग कर देना अहिंसा महाव्रत कहलाता है।

jain temple13

मन, वचन, काय से सर्वथा असत्य का त्याग कर देना सत्य महाव्रत कहलाता है।

मन, वचन, काय से सर्वथा चोरी का त्याग कर देना अचैर्य महाव्रत कहलाता है।

मन, वचन, काय से सर्वथा मैथुन का त्याग कर देना ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है।

मन, वचन, काय से सर्वथा चैबीस प्रकार के परिग्रहो का त्याग कर देना परिग्रह-त्याग महाव्रत कहलाता है।

समितियों के भेद व लक्षण

ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान।
प्रतिष्ठापना जुत क्रिया, पांचों समिति विधान।।

गमनादि में जीव घातादि से बचने का यत्नाचार रखना समिति कहलाती है। ये पांच होती है। उनके नाम इस प्रकार हैं - ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना।

1 - गमन करते समय सामने चार हाथ पृथ्वी को देखकर चलना कि कोई जीवघात न हो जाये ईर्या समिति कहलाती है।

2 - वचन बोलते समय हितमित और परिमितपने का ध्यान भाषा समिति कहलाती है।

3 - आहार के विषय में निर्दोषता और शुद्धि का ध्यान रखना एषणा समिति कहलाती है।

4 - शास्त्र, पीछी आदि धरते, उठाते समय जीव रक्षा का ध्यान रखना आदान निक्षेपण समिति कहलाती है।

5 - मलादि त्यागते समय निर्जीव भूमि पर ही त्योगं, ऐसा ध्यान रखना प्रतिष्ठापना समिति कहलाती है।

इन्द्रियविजय और शेष मूलगुण

सपरस रसना नासिका, नयन श्रोत्रक रोध।
शेष सात मंजन तजन, शयन भूमिका शोध।।
वस्त्र त्याग कचलुंच अरू, लघु भोजन इस बार।
दातुन तुख में न करें, ठाड़े लेहिं अहार।।

अपनी इन्द्रियों को वश में करना, उनके इष्ट विषयों में रागद्वेष नहीं करना, ‘इन्द्रिय विजय’ नामक पांच मूलगुण हैं।

1 - स्नान नहीं करना।

2 - भूमि पर शयन करना।

3 - वस्त्र ग्रहण नहीं करना।

4 - अपने हाथ से केशों का लोंच करना।/p>

5 - आहार दिन में एक बार (सूर्य उदय होने से तीन घड़ी पश्चात्) अथवा अस्त होने से तीन घड़ी पूर्व थोड़ा करना, आहार लने से पूर्व दातौन (मंजन) नहीं करना, और 7. आहार खड़े होकर लेना, ये साधु परमेष्ठी के मूलगुण हैं।

षट् आवश्यक

समता धर बन्दन करें, नाना धुति बनाय।
प्रतिक्रमण स्वाध्याय जुत, कायोत्सर्ग लगाय।।

समताभाव धारण करना, तीर्थंकर की वन्दना करना, चैबीसों भगवान की स्तुति करना, प्रतिक्रमण करना स्वाध्याय और ध्यान करना, यह सब मिलाकर 28 मूलगुण होते हैं। इन 28 मूलगुणों से मंडित मुनिराजों की भक्ति निरंतर करते रहना चाहिए।

मुनिगुण मन में चिन्तवन, करते जो दिन रैन।
भव भवके पातक कटें, ऐसे जिनवर बैन।।

पंचपरमेष्ठी के उन सब मूलगुणों का चिन्तन हमको णमोकार मन्त्र का जाप करते समय करना चाहिए। जब हम इन गुणों का चिन्तन शुरू कर देंगे तो हमारा उनके गुणों से परिचित होना भी आवश्यक है। पंचपरमेष्ठी के गुणों का चिन्तवन व मनन करनेसे हमें आत्मशन्ति के साथ परमपद की प्राप्ति होगी। अतः निरंतर इनके गुणों में अनुराग बनाये रहें।

पंच परमपद ध्यानसे, जग में कीरति होय।
जो इनको निज में लखें, करम बन्ध न होय।।

इस प्रकार शुभाशुभ, नरजन्म की सार्थकता, सप्तव्यसन, अष्टमूलगुण, दर्शनविधि और पंचपरमेष्ठी के मूलगुणों का वर्णन करने वाला।

5
4
3
2
1