1 - भगवान जिनेन्द्र की भाषा अर्धमागधी होती हैं।
2 - भगवान के समवसरण में समस्त जीव अपना वैरभाव छोड़ देते हैं - परस्पर सब में मित्रता हो जाती है।
3 - समस्त दिशाएं निर्मल हो जाती है।
4 - आकाश भी निर्मल हो जाता है।
5 - छहों ऋतुओं के फल-फूल अथवा धान्यादि भगवान के समवसरण के समय एक ही साथ फल-फूल जाते हैं।
6 - एक योजन तक की पृथ्वी दर्पण के समान निर्मल हो जाती है।
7 - जब भगवान मगन करते हैं उस समय चरणों के नीचे सुवर्ण-कमलों की रचना हो जाती है।
8 - आकाश जय-जय के शब्दों से गूंज उठता है।
9 - मन्द-मन्द और सुगन्धित पवन चलती है।
10 - सुगन्धमय जल की वर्षा होती रहती है।
11 - पवन कुमार देवों द्वारा पृथ्वी कंटकरहित कर दी जाती है।
12 - सभी जीवों के आनन्द हो जाता है।
13 - भगवान के आगे-आगे धर्मचक्र चलता रहता है और
14 - अष्ट मंगलद्रव्य साथ रहते हैं।
ये 14 अतिशय देवों द्वारा किय जाते हैं, इसलिए इन्हें देवकृत कहते हैं। ये अतिशय भी केवलज्ञान के होने पर ही होते हैं।
तरू अशोक के निकट में, सिंहासन छविदार। तीन छत्र सिर पर ढुरें, भामण्डल पिछवार।। दिव्य-ध्वनि मुखतें खिरें, पुष्प-वृष्टि सुर होय। ढोंरे चैंसठ चमर जख, बाजे दन्दभि जोय।।
1 - समवसरण में भगवान के समीप अशोक वृक्ष होता है।
2 - अशोक वृक्ष के नीचे ही रत्नमय सिंहासन होता है।
3 - भगवान के सिर पर तीन छत्र होते हैं।
4 - भगवान के पीछे भामण्डल होता है।
5 - भगवान जिनेन्द्र के मुख कमल से दिव्यध्वनि खिरती है।
6 - समवसरण में देवों द्वारा आकाश से पुष्पों की वृष्टि होती है।
7 - देव भगवान के ऊपर चैंसठ चमर ढोरते हैं।
8 - दुन्दुभि बाजे समवसरण में बजते रहते हैं। इस प्रकार ये अष्ट प्रातिहार्य हैं। अत्यंत शोभा युक्त चीजों या बातों को प्रातिहार्य कहते हैं।
ज्ञान अनन्त, अनन्त सुख दरश अनन्त प्रमान। बल अनन्त अरिहन्त सो, इष्ट-देव पहिचान।।
1 - अनन्त दर्शन,
2 - अनंतज्ञान
3 - अनंतसुख
4 - अनंतवीर्य -
ये अनन्त चतुष्टय हैं। इन चारों से भगवान का दर्शन, ज्ञान, सुख और बल अनन्त अर्थात ‘सीमा रहित’ होते हैं, इसलिए इन्हें अनन्त चतुष्टय कहते हैं।
जन्म जरा तृषा क्षुधा, विस्मय आरत खेद। रोग शोक मद मोह भय, निद्रा चिन्ता स्वेद।। राग द्वेष अरू मरण जुत, ये अष्टा दश दोष। नाहिं होत अरिहन्त के, सो छवि व्यापक मोष।।
जन्म, जरा (बुढ़ापा), तृषा (प्यास), क्षुधा (भूख), विस्मय (आश्चर्य), अरति (पीड़ा), खेद (दुःख), रोग, शोक, मद (गर्म), मोह (अज्ञान), भय (डर), निद्रा, चिन्ता, स्वेद (पसीना), राग, देष और मरण ये अष्टादश दोष भगवान अरिहन्त के नहीं होते हैं।
इन 46 मूलगुणों से सहित और अष्टादश दोषों से रहित भगवान अरिहंत होते हैं। इनके दर्शन करने से, ध्यान करने से इन गुणों की प्राप्ति हमको भी सकती है अगर श्रद्धा से यावें तो।
अरिहन्तों के गुणन में, मन-वच से अनुराग। अनुभव निज का होयगा, दहै राग न आग।।9।।
जो कर्ममल से रहित हैं, जिन्होंने मोक्ष को प्राप्त कर लिया है, जो संसार से मुक्त हो गये, अर्थात संसार में कभी नहीं आवेंगे, अष्ट कर्मों को नष्ट कर जिन्होंने मूलगुणों को धारण किया है उन्हें सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं।
समकित दर्शन ज्ञान, अगुरू लघु अवगाहना। सूक्षम वीरज-वान, निराबाध गुण सिद्ध के।।