दर्शन ज्ञान चरित्र तप वीरज पंचाचार। गोपें मनवचकाय को गिन छतिस गुण सार।।
दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्यचार - पांच आचार हैं।
1 - सम्यग्दर्शन में दोष न लगने देना दर्शनाचार कहलाता है।
2 - सम्यग्ज्ञान को बढ़ाना औ उसके दोष हटाना वह ज्ञानाचार कहलाता है।
3 - अपने सम्यक्चारित्र को विशुद्ध रखना चारित्राकार कहलाता है।
4 - जो सदैव तप की वृद्धि करते रहते हैं वह तपाचार हैं। और
5 - अपने आत्मबल को जो प्रगट करते है वह वीर्याचार कहलाता है। दर्शन, ज्ञानचारित्र आदि में किसी प्रकार के दोषों को न लगने देना उन्हें निरंतन बढ़ाते रहना आचार कहलाता है।
गुप्ति-लक्षण-विषयों की अभिलाषा छोड़कर मन, वचन, कायकी स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति कहलाती है। वह तीन प्रकार की है मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति। मन की चंचलता का रूक जाना मनोगुप्ति है। वचन वर्गणा को वश में कर लेना वचन गुप्ति कहलाती है। कायकी कुचेष्टाओं का वश में हो जाना कायगुप्ति कहलाती है। जिन्होंने इन तीन बुराईयों को वश में कर लिया, समझो उन्होंने तीनों लोक पर विजय प्राप्त कर ली। इसलिये हम सबकों चाहिये कि मन, वचन, काय को वश में रखें।
समता धर वन्दन करें, नाना धुति बनाय। प्रतिक्रमण स्वाध्याय जुत, कायोत्सर्ग लगाय।।
1 - समस्त जीवों से समता भाव रखना समता कहलाती है।
2 - दोनों हाथ जोउ़कर मस्तक से लगाकर नमस्कार करना वन्दना कहलाती है।
3 - चैबीस तीर्थंकर या पंचपरमेष्टी का गुणगान करना स्तुति कहलाती है।
4 - प्रमादवश लगे हुए दोषों का प्रायश्चित करना प्रतिक्रमण कहलाता है।
5 - शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, स्वाध्याय कहलाता है और
6 - खड़े होकर ध्यान करना तथा शरीर से ममत्व छोड़ना कायोत्सर्ग कहलाता है। आवश्यक शब्द का अर्थ है प्रत्येक दिन करना, इन छह कार्यों में किसी प्रकार का प्रमाद नहीं करना।
ऐसे इन छत्तीस मूलगुणों से विभूषित जो आचार्य परमेष्ठी हैं, उनकी जो भव्य जीव शरण लेता है उनके गुणों का चिन्तवन करता है वह एक दिन समस्त दुखों से परे होकर सच्चे सुखों को प्राप्त करता है। इसलिए ऐसे परम तपस्वी आचार्य महाराज की भक्ति में हम को सदैव लीन रहना चाहिए।
आचार्यों के ध्यान से, भाव बढ़ें दिन रात। निज में करके आचरण, मुक्ति रमाको पात।।11।।
जो महामुनि 11 अंग और 14 पूर्व के ज्ञानी होते हैं तथा मुनियों को पढ़ाते हैं, शिष्यों को तत्व का उपदेश देेत हैं उन्हें उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। इन 11 अंग और 14 पूर्व का पाठी होना ही उपाध्याय परमेष्ठी के पच्चीस मूलगुण हैं। उत्तरगुण अनेक हैं।
प्रथमहि आचारांग गनि दूजो सूत्रकृतांग। ठाण अंग तीजो सुभग; चैथो समवायांग।। व्याख्यपण्णति पंचमों, ज्ञातृकथा षट् जान। पुनि उपासकाध्ययन है, अन्तःकृत दश ठान।। अनुतरण उत्पाद दश, सूत्र विपाक पिछान। बहुरि प्रश्न व्याकरणयुत, ग्यारह अंग प्रमान।।
आचरांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तःकृद्दशांग अनुत्तरोत्पादवदशांग प्रश्नव्याकरणांग और विपाकसूत्रांग - ये 11 अंग हैं।
उत्पाद पूर्व अग्रायणी, तीजो वीरजवाद। अस्ति नास्ति प्रवाद पुनि, पंचम ज्ञानप्रवाद।। छ्टठी कर्मप्रवाद है, सत्प्रवाद पहिचान। अष्टम आत्मप्रवाद पुनि, नवमों प्रत्याख्यान।। विद्यानुवाद पूरव दशम, पूर्वकल्याण महन्त। प्राणवाद क्रिया बहुल, लोकबिन्दु है अंत।।
उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीयानुवादपूर्व, अस्ति-नास्ति प्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणवादपूर्व, इस प्रकार से 14 पूर्व हैं।
इन 25 गुणों से सुशोभित उपाध्याय परमेष्ठी की सेवा-भक्ति करने वाले भी 11 अंग और 14 पूर्व के ज्ञानी बन जाते हैं। इसलिए हमें निरंतर उपाध्याय परमेष्ठी के गुणों का चिन्तवन और भक्ति करते रहना चाहिए।
उपाध्याय पच्चीस गुण, जो चिन्ते मन मीत। ज्ञानी होकर निज लखें, भवदुःख को ले जीत।।
इन्द्रियजनित सुखों की इच्छा को त्यागे दिया है और दोनों प्रकार के संग (परिग्रह) से हटा लिया है ममत्व जिन्होंने, ऐसे 28 मूलगुणों के धारी, आरम्भ के त्यागी, संसार-शरीर भोगों से विरक्त होकर जो सदैव आत्म-ध्यान में लीन रहते हैं, उन्हें साधु परमेष्ठी कहते हैं।