क्षायिक सम्यक्व्त, अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अगुरूलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अनन्तवीर्य और अव्याबाधत्व ये आठ सिद्ध परमेष्ठी के मूल गुण हैं। उत्तरगुण अनन्त हैं।
सिद्धों में मोहनीय कर्म के अभाव से सम्यक्त्व, ज्ञानावरणीय कर्म के अभाव से अनन्तज्ञज्ञान, दर्शनावरणीय कर्म के अभाव से अनन्तदर्शन, अन्तराय कर्म के अभाव से अनन्तवीर्य, नाम कर्म के अभाव से सूक्ष्मत्व, आयुकर्म के अभाव से अवगाहनत्व, गोत्रकर्म के अभाव से अगुरूलघुत्व और वेदनीयकर्म के क्षय से अव्याबाधत्व गुण प्रगट होते हैं। ऐसे अशरीरी सिद्ध भगवान का ध्यान करने से हमारे भी कर्म झरना शुरू हो जाते हैं और हमें भी सिद्धपद की प्राप्ति हो जाती है।
सिद्धों का सुमिरण करें, पाप रहें न कोय। करम झरत क्षण एक में, निज गुण सिद्धि होय।।10।।
जो ‘मुनि’ पांच आचारों का स्वयं पूर्णरूप से पालन करते हैं तथा दूसरे मुनियों से पालन कराते हैं और जो साधुओं के संघ के अधिपति होते हैं उनको दीक्षा-शिक्षा या प्रायश्चित आदि उनके सुधार के लिए दण्ड देते हैं तथा जो श्रावक व मुनि धर्म का उपदेश देते हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी कहते हैं। आचार्य परमेष्ठी के मूलगुण 36 होते है।
द्वादश तप दश धर्म जुत, पालें पंचाचार। षट् आवश्यक गुप्ति त्रय, आचारज गुणसार।।
12 तप, 10 धर्म, 5 आचार, 6 आवश्यक और 3 गुप्ति - ये आचार्य परमेष्ठी के 36 मूलगुण होते हैं। उत्तर गुण अनेक हैं।
अनशन ऊनोदर करें, व्रत संख्या रस छोर। विविक्तशयन आसन धरें, काय-क्लेश मुठैर।। प्रायश्चित धर विनय जुत, वैयाव्रत स्वाध्याय। पुनि उत्सर्ग विचार के, धरें ध्यान मन लाय।।
इच्छाओं का जीतना ही व्रत है। अनशन, ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, त्सपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग ध्यान - ये 12 तप हैं। ये दो प्रकार के होते हैं - छः अन्तरंग और छः बाहृ।
1 - चारों प्रकार के आहार का त्याग (उपवास) करना अनशन करना कहलाता है।
2 - भूख से कम जीमना अथवा एकाशन करना ऊनोदर कहलाता है। (ऊनोदर का अर्थ है हमको जितनी भूख हो उससे कम खावें)।
3 - आहार को जाते समय अटपटी प्रतिज्ञा लेना व्रतपरिसंख्यान कहलाता है।
4 - छहों या एक-दो आदि रसों का त्याग करके आहार करना रस-परित्याग कहलाता है।
5 - एकान्त स्थान में सोना, बैठना, विविक्त शरू्यासन कहलाता है एवं
6 - शरीर को वश में करने के लिए सर्दी, गर्मी आदि का कष्ट सहना कायक्लेश कहलाता है। ये छः बाहृ तप कहलाते है। इनकी शोभा अंतरंग तपों से होती है। वे इस प्रकार है।
7 - गलती या प्रमाद के वशीभूत हो किसी प्रकार का दोष लग जाये, उसका गुरू से दण्ड लेना प्रायश्चित कहलाता है।
8 - रत्नत्रय और उनके पालन करने वालों का आदर करना विनय तप कहलाता है।
9 - किसी भी व्याधि से पीडि़त अथवा वृद्ध साधुओं की सेवा करना वैयावृत्य कहलाता है।
10 - शास्त्रों को पढ़ना, पढ़ाना, मनन करना और उपदेश देना स्वाध्याय नामक तपह ै।
11 - शरीर से ममत्व छोड़ना व्युत्सर्ग कहलाता है।
12 - निरंतर आत्म-चिन्तवन करना ध्यान नामक तप कहलाता है। इन तपों का कुछ विवेचन आगे भी करेंगे।
क्षमा मार्दव आर्जव, सत्य वचन चित पाग। संयम तप त्यागी सरब, आकिंचन तिय-त्याग।।
1 - किसी के द्वारा अपमानित और दुखित किये जाने पर बदला लेने की शक्ति होने पर भी क्रोध नहीं करना अथवा प्राणिमात्र के ऊपर क्षमाभाव रखना, उत्तम क्षमा नामक आत्मा का धर्म कहलाता है।
2 - किसी प्रकार का मान नहीं करना उत्तम मार्दव कहलाता है।
3 - किसी के साथ कपट नहीं करना उत्तम आर्जव धर्म कहलाता है।
4 - सदैव सत्य बोलना उत्तम सत्य धर्म कहलाता है।
5 - किसी प्रकार का लोभ नहीं करना उत्तम शौच धर्म कहलाता है।
6 - छह काय के जीवों की रक्षा करना व दया पालना और पांचों इन्द्रियों व मन को वश में रखना उत्तम संयम कहलाता है।
7 - द्वादश प्रकार का तप करना उत्त्म तप धर्म है।
8 - चार प्रकार का दान देना और राग-द्वेष आदि का त्याग करना उत्तम त्याग कहलाता है।
9 - अंतरंग और बहिरंग-परिग्रह का त्याग करना, उत्तम आकिंचन्य कहलता है और
10 - आत्मा में लीन रहना अथवा स्त्री मात्र का त्याग करना, अठारह हजार शील के दोषों से बचना, उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म कहलाता है।
ये दस धर्म हमारे आत्मा के ही निजी स्वभाव हैं जो भव्य जीव सच्चा सुख चाहते हैं वह इनद स धर्मों की शरण लें तो समस्त क्लेश नष्ट हो जायेंगे और स्वभाव की व सच्चे आनन्द की प्राप्ति हो जायेगी।