।। कर्म फल देते हैं क्या? ।।

कर्म फल देते हैं क्या? कुछ लोगों का कहना है कि आज की दुनिया में जो मनुष्य अत्याचार करता है, कालाबाजार करता है, घूस खा रहा है, मायाचार करता है, व्यसनी है, पानी है, वही सुखी देखा जाता है। उसी के बड़े-बड़े बंगले बने हुए हैं, वही आज की दुनिया में सम्मान पाता है और जो ईमानदारी से न्यायपूर्वक धन कमाकर अपना किसी तरह गुजारा करता है, उसकी न तो कोई भाई-बन्धुओं में गिनती है, न समाज में, न उसे कोई स्थान प्राप्त है, न उसके पास बड़ी बिल्डिंग ही है, न कुछ सम्पत्ति ही है। इसलिए लोग कहते हैं कर्म कोई फल नहीं देते, अगर फल देते होते तो जो व्यक्ति भगवान की भक्ति करता है, पाप नही करता, दान आदि देता है, उसे सुखी रहना चाहिए और जो व्यसनी है, पानी है, अत्याचारी है, उसे दुखी रहना चाहिए। पर ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि वह कोई जरूरी नहीं कि आज के किये हुए शुभाशुभ कर्म आज ही फल दें। आज भी दे सकते हैं, कुछ समय पश्चात भी और दूसरे जन्मों में भी उदय आ सकते हैं तथा कई जन्मों के बाद भी कर्म अपना फल दे सकते हैं, क्योंकि जब जिस कर्म का उदय होगा तभी उसका फल मिलेगा। जो लोग आज पाप करते हुए भी सुखी देखे जाते हैं तो कहना होगा कि अभी उनके पूर्व में किये हुए पुण्य कर्मों का फल प्राप्त हो रहा है। अभी जो कुछ कर रहा हैं उसका फल भी भविष्य में प्राप्त होगा। पापी के लिए किसी ने कहा है -

जब तक तेरे पुण्य का, बीता नहीं करार।
तब तक तेरे माफ हैं, औगुण करो हजार।।

संसार में देखा जाता है कि अधिक जीव सुखी नहीं हैं। इसका मूल कारण् है कि पूर्व में किये हुए जिस कर्म का उदय आता है तदनुसार फल मिलता है। जीवन में सुख पाने के लिए कई साध्नों की आवश्यकता होती है परंतु संसार में एक ही व्यक्ति को ये सभी साधन एक साथ मिलना असम्भव है।

एक व्यक्ति स्वस्थ है परंतु उसके पा धन का अभाव है दूसरा व्यक्त् िधनी है परंतु वह सदा रोगी है। किसी के पास धन भी है, स्वस्थ भी है परंतु संतान न होने के कारण दुखी है, यदि संतान भी है तो वह रोगी या दुश्चरित्र है। किसी के पास धन भी है संतान भी है, परंतु उसकी पत्नी दुष्ट स्वभाव की या फूहड़, कुटिल है, जिसके कारण घर में सदैव क्लेश रहता है। इसी प्रकार हम देखते है कि संसार में पा्रयः सभी जीव दुाी हैं, कोई किसी कारण से, तो कोई किसी कारण से। इन सुखों व दुखों का मूल कारण हमारे द्वारा किए हुए अच्छे व बुरे कर्म ही हैं। वे कर्म हमारे इस जन्म के किये हुए भी हो सकते हैं और पिछले जन्मों के किये हुए भी।

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हमने अपने पूर्व जन्मों में औषधि दान दिया होग, अथवा दूसरे जीवों के रोग-शोक दूर करने के ेएिल कुछ कार्य किया होगा, तो उस अच्छे कार्य के फलस्वरूप हमें स्वस्थ शरीर प्राप्त होगा। इसके विपरीत हमने दूसरे जीवों को शारीरिक कष्ट दिय होगा तेा उस बुरे कार्य के फलस्वरूप हम रोगी रहेंगे।

यदि पिछले जन्मों में हमने मुनि-श्रावकों को ज्ञानदान दिया होगा, विद्या के प्रति रूचि रखी होगी ाअैर अन्य दूसरे व्यक्तियों को विद्या प्राप्त करने में सहायता की होगी तो उस अच्छे कार्य के फलस्वरूप हम विद्वान व ज्ञानी बनेंगे। अगर इसके विपरीत पिछले जन्मों में हमने किसी को ज्ञानदान देने में, शिक्षा प्राप्त करने में बाधा डाली होगी तो उस बुरे कार्य के कारण (फलस्वरूप) हम निपट अज्ञानी, अनपढ़ व मूर्ख रहेंगे।

पिछले जन्मों में हमने यदि दिगम्बर मुनियों को; उत्तम, मध्यम, जघन्य श्रावकों को आहारदान दिया होगा और दीन, दुखी, भूखे, गरीबों की सहायता की होगी अर्थात करूणादान दिया होगा तो हमको आदर के साथ आहार मिलता रहेगा। यदि इसके विपरीत पिछले जन्मों में हमने किन्हीं मुनिश्रावकों को आहार में अन्तराय कराये होंगे तो हमको भरपेट भोजन नहीं मिलेगा-अंतराय आते रहेंगे।

यदि पिछले जन्मों में हमने दया-भाव के साथ किसी की भलाई की होगी और दूसरों को सुख पहुंचाने का प्रयत्न किया होाग, मुनियों की प्रशंसा की होगी, तो उन अच्छे कार्यों के फलस्वरूपज ग में हमारी प्रशंसा होगी और अनुकूल मित्र व सम्बंधी मिलेंगे तथा अपने कार्यों में सफल्ता मिलती रहेगी। इसके विपरीत यदि हमने पिछले जन्मों में दूसरों को कष्ट पहुंचाया होगा और मुनियों की निन्दा की होगी, किसी के साथ विश्वासघात किया होगा, किसी की सफलताओं में बाधा डाली होगी ता उन बुरे कार्यों के फलस्वरूप हमें प्रतिकूल परिस्थितियां मिलती रहेगी, हमारे मित्र व सम्बंधी हमसे विश्वासघात करेंगे तथा हमें असफलताओं का मुख देखना पड़ेगा, लोक-निन्दा अर्थात अपयश भी फैलेगा।

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हमारे मन में समय-समय पर अनेक प्रकार की शुभ व अशुभ भावनाएं उठती रहती हैं और हम समय-समय पर शुभ व अशुभ कार्य करते रहते हैं। इन्हीं भावना व कार्यों के अनुसार हम शुभ व अशुभ कर्मों का संचय करते रहते हैं, जिनका फल एक साथ ही मिलता रहा है। जैसे किसी पुण्यकर्म के फलानुसार हमें धन मिला है परंतु उसी समय किसी पाप-कर्म के फलस्वरूप हम रोगी हो जाते हैं। किसी शुभ कर्म के फलस्वरूप हमें अनुकूल मित्र व सेवक मिलते हैं परंतु उसी समय किसी अशुभ कर्म के फलस्वरूप हमारी सन्तान चरित्रहीन निकल जाती है। इस प्रकार हम एक ही समय में किसी अपेक्षा से दुःखी भी होते हैं और किसी अपेक्षा से सुखी भी। यही कारण है कि संसार में ऐसा व्यक्ति मिलना असम्भव है जो सब प्रकार से सुखी हो य दुःखी। इससे स्पष्ट हो गय है कि इस जीव को अपने द्वारा किए शुभ व अशुभ कर्मों का फल स्वतः ही भोगना होता है, चाहे वह कितना ही महान् क्यों न हो।

पिछले भवों में किये हुए कर्मो के फलस्वरूप अंजना सती को पति-वियोग बाईस वर्ष तक सहना पड़ा ओर घोर विपिन में जा अनेक दुखों का सामना करना पड़ा। सीताजी का अपवाद हुआ, फलतः वन जाना पड़ा। यह पूर्व किये हुए कर्मों का ही तो फल था। श्रीपाल के सुन्दर शरीर में कुष्ठ व्याधि हुई, यह भी उनके कर्मों का ही फल था।

जब अशुभ कर्म उदय में आते हैं तो वे अच्छे-अच्छों की बुद्धि भ्रष्ट कर देते हैं। देखिये, अशुभ कर्मों की ताकत कि बड़े-बड़े मोक्षगामी जीव जैसे तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदि को भी पिछले किए कर्मों का फल भोगना पड़ा तो हम और आप जैसों की क्या ताकत? अतः हमकों निश्चित रूप से यह मानना होगा कि अवश्य ही करनी का फल जैसा का तैसा प्राप्त होता है।

अब पछताये होता क्या?

अतः अभी से ही हमको सावधान हो जाना चाहिए अशुभ कर्मों को न आने देने के लिएये, क्योंकि इन्द्रियां, पूर्ण ज्ञान का क्षयोपशम, उच्चकुल और पिछले कर्मों के फलस्वरूप शरीर भी निरोग प्रापत हुआ है। सभी साधन अनुकूल हैं। क्षेत्र ऐसा पाया है कि जिसमें समवसरण जैसे मन्दिर, जिनेन्द्र भगवान की वाणी से परित शास्त्र-भण्डार, स्वाध्याय कराने के लिए बुद्धिमान अनेकान्तवादी पण्डित, धर्मोंपदेश्ज्ञ सुनने के लिए दिगम्बर मुनि, आर्यिकाएं आदि तथा साधर्मीजनों का समागम, यह सब सुविधा मिलने पर भी हम स्वरूप को नहीं जानें, अशुभ से बचने के लिए सम्यग्दर्शन पूर्वक अपने षट्कर्मों का पालन न रकें, अष्ट मूलगुणों को न अपनायें, सप्त व्यसनों का त्याग न करें, पाप-कर्मों से मुक्त न हों, द्वादश व्रतों को आचरण में न लायें, सप्त-तत्व का श्रद्धान न करें, पच्ची दोषों को न त्यागे, देव-शास्त्र-गुरू का श्रद्धान न करें, जिनेन्द्र भगवान के दर्शन न करें, बाईस अभक्ष्यों का त्याग न करें, इक्कीस गुणों को न अपनायें, तिरेपन क्रियाओं को आचरण में न लायें, या चार कषायों का त्याग न करें, छह लेश्याओं को न जानें, सम्यग्दर्शन प्राप्त न करें, द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन न करें, पंच परमेष्ठियों का ध्यान न करें, चारों आराधनाओं का मनन न करें, और शुभ तथा अशुभ राग को त्याग स्वभाव में आकर अगर कर्ममल को न हटाये ंतो यह नरजन्म पाना निरर्थक हो जायेगा। इसके बाद ठीक उसी तरह पछताना होगा। जिस तरह अज्ञानवश चिन्तामणि रत्न को फेंककर मालूम पड़ने पर कोई पुरूष।

दृष्टान्त

एक मनुष्य वन में प्रवेश करता है लकड़ी पाने के लिए। लकडत्री एकत्र कर थकावट दूर करने हेतु वह एक वृक्ष् की शीतल छाया में जा बैठा। वहां उसे एक चिन्तामणि रत्न हाथ आया। उसने विचार किया कि वह पत्थर बहुत सुन्दर है, इसे घर ले चलेंगे। वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस लकड़हारे के मन में आया कि आज तो यही कोई ठण्डा जल पिला दें, बस देर ही क्या थी विचार आते ही निर्मल जल आ गया। उसे पीकर बड़ी प्रसन्नता हुई और विचारने लगा कि आज तो कई प्रकार के सुन्दर व्यंजन भी मुझे यहीं प्राप्त हो जाएं। विचार करते ही कई देवांगनाएं अनेक प्रकार के मिष्ठ तथा मनकीनादि खाद्य पदार्थों के द्वारा सजाए गये थाल लेकर उसके समीप आ कहने लगी कि भोजन कीजिए।

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