।। कर्म फल देते हैं क्या? ।।

ऐसा सुनते ही आनंदित हो उठा उसका मन और वह जीमने लगा। देवांगनाएं हवा करती जाती हैं,उसी बीच आता है एक काग वहां और बोलना शुरू कर देता है अपनी कटु वाणी में भोजन करते हुए उस पुरूष ने उस काग को उड़ाने के लिए उसी छोटे से पत्थर को फेंक दिया। काग ने समझा कुछ खाद्य पदार्थ होगा, ऐसा जान उस ेले उडा।

उसी समय देवांगनायें आदि सभी माया लोप हो गइ्र और वह मूर्ख अकेला ही वहां बैठा रह गया। मालूम होन पर कि यह सब पत्थर की करामात थी, तो उसे अपनी मूर्खता पर पछताना पड़ा।

हम लोग भी इस चिन्तामणि रत्न के समान मानव-शरीर को विषय-भोगों में नष्ट कर देंगे, गंवा देंगे, सुखा देंगे, तो हमें दुर्गति में जाके पछताना होगा इस नरजन्म के लिए। जिस प्रकार समुद्र से अत्यंत कठिनता सेप्राप्त किया मोती हाथ से दूट जाने के बाद फिर से हाथ आना दुर्लभ है ठीक उसी प्रकार यह नर-तन छूटने के बाद इसका पाना भी अत्यंत दुर्लभ है।

शुभाशुभ कर्म

हमें अभी से अपने कर्तव्य का पालन शुरू कर देना चाहिए ताकि नवीन अशुभ कर्म आकर अपना प्रभुत्व न जाम लें, हमें अपने काबू में न कर लें। पिछले जन्मों के संस्कार व कर्मों के फलस्वरूप ही हमें यहां सुख दुख प्राप्त हुए हैं। जब अशुभ कर्मों का उदय होता है तब इष्ट की प्राप्ति होने पर भी हित नहीं होता। इसे स्पष्ट करने के लिए उदाहरण है कि-

किसी सुख के अर्थी मनुष्य को भ्रमते-भ्रमते एक कल्पवृक्ष मिल गया। उसने कल्प वृक्ष को पाकर भी उससे हलाहल जहर की ही याचना की अशुभ का अदय होने के कारण भी जिससे कि मनोवांछित फल की प्राप्ति हो सकती थी। इसी तरह से हम नर-तन रूपी कल्प वृक्ष से विषय-वासनाओं के वशीभूत हो नरकादि खोटी गतियों रूपी जहर की याचना करते हैं। जिस प्रकार कल्पवृक्ष से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य जन्म से स्वर्ग मोक्षादि फलों की प्राप्ति होती है, अगर कर्मों को न आने दें तो।

कर्म बन्ध कैसे और क्यों?

अब प्रश्न उठता है कर्म क्या है और वे किस प्रकार हमारी आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं?

हमारे विकारी राग-द्वेष निमित्तक शुभाशुभ विचारों व भावनाओं के अनुसार कर्म हमारी अत्मा की ओर आकर्षित हाते हैं और उसके ऊपर उनका आवरण बन, वे छा जाते हैं। जिस प्रकार चिकनाहट के ऊपर रज (धूल) जम जताी है, उसी प्रकार राग-द्वेषमय आत्मा से कर्म रूपी धूल आकर चिपक जाती है। वे कर्म समय आने पर फल देकर हमारी आत्मा से पृािक् हो जाते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे भौथ्तक पदार्थों के उदाहरणों से समझाया नहीं जा सकता फिर भाी यहां लौकिक उदाहरणों के द्वारा इसे स्पष्ट करने का प्रयत्न किया जा रहा है।

वैज्ञानिक किसी भी द्रव्य के छोटे-से-छोटे अफकड़े को स्कन्ध ;डवसमबनसमद्ध कहते हैं। इस स्कंध में मूल द्रव्य के समस्त गुण होते हैं यदि हम इस स्कंध के भी टुकड़े कर दे ंतो उसमें मूल द्रव्य के गुण नहीं रहते। ये स्कन्ध कितने छोटे होते हैं, इसकी कल्पना निम्नलिखित उदाहरणों से की जा सकती है-

जर्मन प्रोफेसर एण्ड्रेड ;।दकतंकमद्ध ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि आधी छटांक जल में जल के स्कन्धों की संख्या इतनी अधिक होती है कि यदि तीन अरब व्यक्ति एक सेंकण्ड में पांच की गति से बिना रूके दिन-रात उनको गिनते रहें तो उनको गिनने में चालीस लाख वर्ष लगेंगे।

फिर यह जल का स्कन्ध भी संसार का सबसे छोटा पदार्थ नहीं होता। जल के एक स्कन्ध को तोड़ा जाय तो उसमें दो हाइड्रोजन और एक आक्सीजन के परमाणु मिलेंगे। इसी प्रकार अन्य द्रव्यों के स्कन्धों में भी परमाणुओं की भिन्न-2 संख्या पाई जाती है। यहां तक कि किसी द्रव्य के स्कन्ध में परमाणुओं की संख्या सौ से भी अधिक होती है। वैज्ञानिकों ने इन परमाणुओं के भी टुकड़े किये हैं और बताया है कि यह परमाणु भी प्रोटोन ;च्तवजवदद्ध और इलेक्ट्राॅन ;म्समबजतवदद्ध नामक तत्वों से बने हैं। एक परमाणु में कई-कई प्रोटोन और इलेक्ट्राॅन होते हैं। प्रोटोन बीच में स्थित रहते हैं और इलेक्ट्राॅन उन प्रोटोनों के चारों ओर बहुत ही तीव्र गति से चक्कर काटते रहते हैं। इन चक्कर काटते हुए इलैक्ट्राॅनों के बीच में भी पर्याप्त दूरी होती है। तात्पर्य यह है कि एक परमाणु भी खोखला होता है। इसी मान्यता के आधार पर आजकल एटम बम ;।जवउ इवउइद्ध और हाइड्रोजन बम ;भ्लकतवहमद ठवउइद्ध बन रहे हैं और इसी मान्यता के आधार पर वैज्ञानिक कोयले को हीरे में तथा पारे को सोने में बदलने में सफल हुए हैं। कहने का तात्पर्य है कि संसार का छोटे से छोटा पदार्थ जो वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है वह इलैक्ट्राॅन और प्रोटोन है। वैज्ञानिक कहते हैं कि बिजली के तारों में जो विद्युतधारा ;म्समबजतपब ब्नततमदजद्ध का प्रवाह होता है वह वास्तव में अरबों की संख्या में इलैक्ट्राॅनों का बहुत ही तीव्र गति में चलना ही है।

ऊपर जो गणित बताया है वह केवल इलैक्ट्राॅन और प्रोटोन का परिमाण दिखाने के लिए ही बताया है। ये इतने सूक्ष्म होते हैं कि इनकी केवल कल्पना ही की जा सकती है।

कार्माण नामक पुद्गल ;डंजजमतद्ध इन इलैक्ट्राॅन और प्रोटोन से भी बहुत छोटा होता है और यह पुद्गल सारे संसार में भरा हुआ है। जब भी हमारे मन में अच्छे व बुरे विचार आते हैं तभी यह कार्माण नामक पुद्गन हमारी ओर खिंचता है और हमारी आत्मा पर इसका आवरण छा जाता है। इन कार्माण नामक पुद्गलों के हमरी ओर खिंचने की प्रक्रिया को समझाने के लिए एक उदाहरण दिया जाता है-

आज संसार में सैंकड़ें रेडियों स्टेशन हैं और उनसे निकलती हुई रेडियों तरंगें सारे संसार में फैलती रहती हैं। जब कोई व्यक्ति अपना रेडियों खोलता है तो वह किसी विशेष स्टेशन का कार्यक्रम सुनने के लिए अपने रेडियों के यंत्र घुमाता है। इस प्रकार यंत्रों को घुमाने से जिस रेडियों स्टेशन का कार्यक्रम वह व्यक्ति सुनना चाहता है, उसी रेडियो स्टेशन की तरंगें उसके रेडियों में आती हैं, शेष तरंगे नहीं आती। इसी प्रकार से हमारे कुछ विचारों और भावनाओं के अनुसर विशेष कार्माण परमाणु प्रत्येक क्षण हमारी आत्मा की ओर आकृष्ट होते रहते हैं, और हमारी आत्मा के ऊपर एक प्रकार का कार्माण परमाणुओं का आवरण चढ़ता रहात है। इके आवरण के प्रति समय कुछ कार्माण परमाणु अपना फल देकर झड़ते रहते हैं, और प्रति समय हमारी भावनाओं के अनुसार ही नये-नये कार्माण परमाणु आते रहते हैं। इस प्रकारयह कर्मों का आवरण अनादिकाल से प्रत्येक प्राणी की आत्मा के साथ लग रहा हैद्ध भविष्य में तब तक लगा रहेगा। जब तक वह प्राणी अपने पुरूषार्थ के द्वारा इन कर्मों (चार घातिया और चार अघातिया) को अपनी आत्मा से अलग नहीं कर देगा। उनके नाम इस प्रकार हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन कर्मों से हम मुक्त होना चाहते हैं तो मनुष्य जन्म ाक मूल्यांकन करना होगा।

नर-जन्म और कर्तव्य

इस अमोलक नर-जन्म की अगर हम सार्थकता करना चाहते हैं तो हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। सर्वप्रथम कर्तव्य हमारा यह है कि जो हम कोरी बातों के ही पुल बांधते रहते हैं, यह करूंगा, ऐसा कर दूंगा, साधु बनूंगा, कर्मों को तप से भस्म कर दूंगा; इन सब कोरी बातों को छोउ़कर क्रियारूप में आचरण में लायें। बहुत कहने के बजाय अगर थोड़ा सा भी कार्यरूप में ले लिया तो वह महान् होगा ऐसा ही ‘‘हावेल’’ ने कहा है-

।द ंबतम व िचमतवितउंदबम पे ूवतजी व िं ूीवसम ूवतसक व िचतवउपेण्

कार्यों का एक-एक कण वचन के एक पूरे संसार के समान हैं अर्थात् बहुत कुछ कहने के बजाय थोड़ा सा करना अच्दा है, महान् है क्योंकि मात्र वचन बोलने से तो हमें सुख की प्राप्ति होने से रही, उसके लिए तो कुछ जीवन में उतारना होगा, आत्मशांति के लिए ज्ञान, ध्यान, तप आदि सभी धर्माचरणों को क्रिया रूप में लाना होगा।

यह मनुष्य-जनन्म हमको प्रापत हुआ है और अनुकूल सुविधाएं मिली हैं। यह सब तो हमारे पिछले भव के किये हुए पुण्य का ही फल है। अगर हमने अपेने कर्तव्य का पालन न किया तो हमारी गणना मनुश्यों में न होकर पशुओं में की जायेगी। भर्तृहरि ने नीतिशतक में भी यही कहा है-

4
3
2
1