येशां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः। ते मत्र्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
जिन (पुरूषों) में विद्या, तप, दान, शील (सदाचार) गुण तथा धर्म नहीं है वे पृथ्वी के भारस्वरूप पशु ही हैं; जो मनुष्य के रूप में विचरण करते हैं।
इसलिये हमें चाहिये कि इसी क्षण अपने को मोड़-लें-निज की ओर पर से। जब हम पर-वस्तु को पर मान लेंगे और उससे मोउ़ लेंगे अपने मन को, तो हमारा जो निजी स्वभाव रत्नत्रय है वह अपने आप प्रकट हो जाएगा। ज्यों-ज्यों हम अपने मन को आत्मा की ओर ढालेंगे त्यों-त्यों ही संसार-शरीर-भोगों में अरूचि होती जायेगी। इसलिये भगवान महावीर ने जो गृहस्थ-धर्म की क्रिया व आचरण बताया है, उसे अपने जीवन में उतारें। जब तक हम श्रावक धर्म का आचरण नहीं करेंगे, तब तक सच्चे जैनी नहीं बनेंगे। सच्चा जैनी तो वही हो सकता है जो जिनेन्द्र भगवान ने जो उपदेश दिया है उसका पालन करता है। मन, वचन, काय से उसका आचरण मनुष्य ही कर सकत है, इसलिये सब भावों में मनुष्य-भव ही सर है।
इस बात को आचार्य अमितगति कहते हैं कि ‘‘भवेषु मनुष्यभवः प्रधानः’’ संसार में चतुरशीतिलक्ष योनियां हैं, उनमें एक मनुष्य-जन्म ही प्रधान है, सर्वोपरि है। मनुष्य योनि से बढत्रकर अन्य कोई दूसरी योनि (पर्याय) नहीं है; क्योंकि मनुष्य को बुद्धि का अपार भण्डार, ज्ञान का अक्षय विकास, विवेक की अपूर्व निधि और बल-वैभव-सम्पन्नता का अपार समूहादि एक ही शरीर में प्राप्त हो जाता है। इस परिवर्तनशील संसार में मनुष्य से बए़कर अन्य दूसरा नहीं चाहे भौतिक उपादानों को देखा जाये अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर। अन्य प्राणी जन्म से अंत तक उसी अवस्था में रहते हैं जो पूर्व से चली आई। उने यथाजात शरीर, तिकों के कुालय, मिट्टी के वाल्मीक, गिरिगुहाओं के आश्रय आज भी उसी रूप में हैं। किंतु कल्पवृक्षों के द्वारा प्राप्त अर्पू सुखाों को भोगने वाला मनुष्य आज अणु-सम्ीयात के युग में श्वास ले रहा हे। वह पवन-वेग से आकाश में सर्राटे के साथ उड़ता है, पानी में शार्क की तरह डुबकी लगाता है और इस पृथ्वी का कला कौशल, ज्ञान-विज्ञान की अन्तर-बाहृ विभूतियों से सम्पन्न वातावरण में सब सुख-सुविधाओं के साथ जीवन यापन करता है। दिन-प्रतिदिन उन्नति की ओर अग्रसर होता हुआ यह मानव अपने सम्पूण विकसित चैतन्य से सभी प्रणियों से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध कर रहा हे। इसी ने शरीर से भिन्न आत्मा को पहचाना है और स्व-परविवेक से नर से नारयण पद को प्राप्त किया है, तथा कर रहा है एवं करता रहेगा।
केवल मनुष्य जन्म प्राप्त करने से और केवल भौतिक समृद्धि से मनुष्य-पर्याय को सार्थक नहीं कहा जा सकता। उसे सार्थक और कृतार्थ करने के लिए अपना कर्तव्य पालन करने की अत्यंत आवश्यकता है, धर्माचरण की व तप-तपने की आवश्यकता है। जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि-तप्त होकर पवित्रता को प्राप्त होता है, मेंहदी के पत्ते पीसे जाने पर ही रंग लाते हैं, चन्दन घिसने पर सुगन्धि देता है, धान्य कूटने पर ही उपभोग्य होता है उसी प्रकार यह मनुष्य जन्म भी ज्ञानग्नि में तपकर अपने स्वभाव को प्राप्त होता है। अतः हम अपने आवश्यक कर्तव्यों का पालन करें, तो है नरजन्म प्राप्त करने की सार्थकता। नहीं ात ेनीतिकारों ने कहा है-
आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
पशुओं तथा मनुष्यों में खाना, पीना, सोना, उठना, रति-विलास ये सब तो समान ही हैं। अंतर पाया जाता है केवल यही कि मनुष्य अपने ज्ञान के द्वारा सही मार्ग खोजकर सच्चे सुख की ओर चल देता है और पशु अक्सर हित-अहित के ज्ञान से रहित होता है विवेक शून्य होता है। यदि मनुष्य इन सामान्य गुणों से आगे विशिष्टता प्राप्त नहीं करता है तो उसे वास्तविक अर्थ में मनुष्य नहीं कहा जा सकता, मनुष्य तो मनुष्यत्व से ही कहा जा सकता है। मनुष्य जन्म की विशेषता बताते हुए कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है कि-
मणुवगईए वि तओ मणुवगईए महव्वदं सयलं। मणुवगईए झाणं मणुवगईए वि णिव्वाणं।।
मनुष्य गति में ही तप है, मनुष्य गति में ही समस्त महाव्रत होते हैं, मनुष्य गति में ही ध्यान होता है और मोक्ष की प्राप्ति भी मनुष्य गति में ही होती है। ‘‘न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्’’ मनुष्य से श्रेष्ठ कोई नहीं है। इस मनुष्य योनि में ही आत्मा का विवेक होता है, स्व-पर का ज्ञान मिलता है, छह आवश्यकों का पालन होता है और इसी में श्रावक व मुनि धर्म का पालन होता है।
बार-बार नहिं मिलन की, यह मानुष की देह। सन्मति पर में क्यों रमें, मुक्ती से कर नेह।।
यह सर्वाणपूर्ण, मनोहर, ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न नर-जन्म बाहृ एवं अन्तर-चिन्तनधाराओं के भेद से दो भागों में विभक्त हैं। एक भाग इसका भौतिक है और दूसरा आध्यात्मिक। भौतिक पदार्थों के प्रति आसक्ति की अधिकता से तथा आत्मिक जगत् के इन्द्रयसन्निकर्ष-बाहृ अर्थात सूक्ष्म होने से कभी-भी इस दृश्यमान स्थूल-जगत् को साध्य मानकर मनुष्य इसी में डूब जाता है और-
बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरूण समय तरूणी-रत रह्यो। अर्द्धमृतक सम बूढ़ापनों, कैसे रूप लखे आपनो।।
पं. दौलतराम जी के इस सुभाषित के अनुसार क्रीडा-भोग और रोग में फंसकर आत्म-ज्ञान-शून्य दशाा में ही प्राण प्रतित्याग कर परलोकगमन कर जाता है और वह रत्नत्रय, जिसे जानना ही मनुष्य-जन्म की सार्थकता है उससे अविज्ञात रह जाता है।
मनुष्य जब अपने स्वभाव को भूल विषयों के पीछे इस श्रेष्ठ भव को गंवाता है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे मूर्ख कोदों की खेती कर उसके चारों ओर कपूर की बाड़ लगाता हो, लाख तपाने के लिए चन्दन की लकड़ी जला रहा हो, अथवा पंक को उजलाने के लिए केसर का मिश्रण कर रहा हो क्योंकि वास्तव में जिस शरीर को हम सर्वस्व मानकर भौतिक उपादानों का अम्बार लगाकर इसकी सुन्दरता, कोमलता और चारूता को अक्षुण्ण (सुरक्षित) रखना चाहते हैं। वही शरीर जर्जन हो बुढापा आने तक शिथिल हो जाता है। इसमें विकार आ जाते हैं जिससे आंख, नाक, कान, मुंह, दांत और सभी इंन्द्रियां निर्बल और निष्क्रिय हो जाती हैं। मन की आज्ञा को तन अस्वीकार कर देता है। अपने ही घर में तन और मन में द्वन्द्व खड़ा हो जाता है। मन को वे युवावस्था के दिन स्मरण हो उठते हैं, ज बवह इशारा करता और तन दौड़ पड़ता था। आज मन अंकुश मारता है और तन मुर्दा के समान निष्क्रिय होकर उसकी बात नहीं सुनता। यह मन तृष्णा का मित्र है, वासना का सहचर है, कुपथ का सखा है और मिथ्यात्व का किंकार है। यही मनुष्य को मृत-तृष्णा के कान्तार में भटकाता है, रूप की छलना में भरमाता है, माया के महलों में अटकाता है।नीतिकार कहते हैं-
जीर्यन्ति जीर्यतः केशाः दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः। जीर्जतीन्द्रिय-संघातस्तृष्णैका तरूणायते।।
अर्थात जब शरीर वृद्ध हो जाता है तो सिर के केश सफेद हो जाते हैं, दांत गिर जाते हैं, जिससे मंुह पोपला होकर विद्रूप हो जाता है, कुछ खा-पी नहीं सकता, क्योंकि सारी इन्द्रियां जीर्ण हो जाती हैं किंतु तृष्णा बनी रहती है। इस तृष्णा का क्षय नहीं होता। दिनों-दिन बढ़ती जाती है, मानव बिलकुल नहीं विचारता कि एक दिन मरना भी है। कहा भी है-