मुक्तिपथ की खोज में चलने वाले भव्य जीवों को क्रमशः उसकी प्राप्ति का उपाय बताया जा रहाहै। यहां जो उपाय बताया जा रहा है वह बिल्कुल सरल है। इसके लिए तत्काल मुनि आदि बनने की भी आवश्यकता नहीं है, यह गृहस्थ अवस्था में भी सानन्द अपनाया जासकता है। जो मार्ग यहां बताया जा रहा है वह पहली सीढ़ी श्रावक धर्म की है। जिस प्रकार प्रथम सीढ़ी पर चढ़े बिना द्वितीय, तृतीय नहीं प्राप्त की जा सकती, ठीक उसीप्रकार श्रावक धर्म के षट् कर्मों का पालन किये बिना श्रावक की द्वितीय, तृतीय श्रेणी प्राप्त नहीं की जा सकती, मुनिपद व आत्मज्ञान में लीनता तो अंतिम सीढ़ी है। कर्तव्य परायण व्यक्ति को मुक्तिपथ दिखने लगता है वह आनन्दानुीाव करने लगता है, परेशानियां उसे छोड़कर दूर भाग जाती हैं। जिस प्रकार धन का इच्छुक मनुष्य धन कमाने में लीन हो जाता है, भूल जाता है उस समय खाना-पीना, सोना, सभी प्रकार के ऐशो-आराम। ठीक उसी प्रकार मुक्ति-पथ की ओर चलने वाला भूल जाता है संसार शरीर-भोगों की लालसा को और हो जाता है लीन आवश्यक कर्मों में, आत्मचिंतन में। देव पूजादि तीन आवश्यक कर्मों का विवेचन पीछे किया जा चुका है। अब यहां उन्हीं आवश्यक कर्मों के संयम नामक चतुर्थ आवश्यक कर्म को बताया जायेगा।
संयम पद में दो शब्द हैं - एक सम्, दूसरा यम। सम् शब्द का अर्थ है सम्यक प्रकार, यम शब्द का अर्थ है दमन करना, अर्थात् दबाना। सम्यक् प्रकार दबा देना आकुलता-व्याुकलता-उत्पादक विकल्पों को, जो कि विषय-भोगों के दृढ़ संस्कार वश या कर्तव्य विहीनता वश प्रतिक्षण नवीन रूप धारण करके हमारे अंतकरण में प्रवेश पाते रहते हैं, मुक्ति-पथ में बाधक बनते रहते हैं, उनको दबा लेना है। क्रोधादि कषायों को रो देना-भी संयम है। हिंसादि पापोंसे अपने को रोकना भी संयक है। दौड़ते हुए इन्द्रिय रूपी घोउ़ों की लगाम अपने हाथ में रखना भी संयम है। मन रूपी हाथी को इच्छा-निरोध रूपी अंकुश के द्वारा वश में करना भी संयम है। दया भाव से छह काय के जीवों की अपने द्वारा विराधना न होने देना भी संयम है।
सबसे बड़ा संयम है, अपने आप पर नियंत्रण रखना, अपने आप पर नियंत्रण किये बिना आत्म संयम नहीं होता और आत्म संयम के बिना मुक्त नहीं हो सकते। ऐसा ही किसी द्विन ने कहा है -
अर्थात जिसने अपने विकार भावों को नहीं जीता है, अपने अनन्त गुण रत्नों का स्वामी नहीं बना है, वह आत्मयंयम नहीं पाल सकता, मुक्ति की प्राप्ति नहीं कर सकता, अतः हमें इसी समय कर लेना हैं विकार भावों को वश में, बन जाना है सच्चा संयमी।
संयम के दो भेद किये गये हैं -एक इन्द्रियसंयम, दूसरा प्राणीसंयम। मुनिराज इसका पूर्णतया पालन करते हैं और श्रावक एकदेश, अपनी शक्ति अनुसार पूर्ण संयम के प्रतीक जो परम दिगम्बर मुनिराज हैं अब उनका स्वरूप यहां बताते हैं।
पूर्ण संयम का पालन तो वे परम-आदर्श गुरू ही कर पाते हैं। जिन्होंने पूर्ण संयम की प्रतीक ले ली है मयूरपिच्छिका अपने हाथ में, छोड़ दी है लालसा संसार, शरीर, भोंगों की, ले लिया सहारा सम्यक् चारित्र का, कर ली है विजय प्राप्त संकल्प ओर विकल्पों के ऊपर। मयूरपिच्छी को संयम का उपकरण इसलिए कहा है कि जो गुण मयूरपिच्छी में रहते हैं वह मुनिराज के अन्दर भी पाये जाते हैं। पिच्छी के बिना मुनिराज भी पूर्ण संयम का पालन नहीं कर सकते। पिच्छी के पांच गुणों का कथन करते हुए मंत्रलक्षण शास्त्र में इस प्रकार लिखा है -
पिच्छी आवश्यकता हाने पर छत्र भी है, चंवर भी हैं, यन्त्र-मन्त्र की प्रसिद्धि (सिद्धि) के लिए भी इसका व्यवहार किया जाता है और सम्पूर्ण प्राणियों की रक्षा के लिये तो खासतौर से है ही। ‘मूलाराधना’ में पिच्छी के पांच गुणों को इस प्रकार बताया है -
पिच्छी रज व स्वेद को ग्रहण नहीं करती और उसमें मृदुता, सुकुमारता व लघुत्व (हल्कापन) भी पाये जाते हैं। जिस पिच्छी में ये पंच गुण विद्यमान हों ऐसे पूर्ण संयम के उपकरण की प्रशंसा करने में कौन समर्थ हैं? कोई नहीं। पूर्ण संयम अर्थात इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम को महा मुनिराज अट्ठाईस मूलगुणों के धारी किस प्रकार पालन करते हैं, यह बताया जा रहा है।
उपरोक्त् संयम के दो भागों में सर्वप्रथम इन्द्रिय संयम की बात करते हैं। हमारे आदर्श स्वरूप गुरू तो पूर्णतया इन्द्रिय विजयी हैं क्योंकि देखो - स्पर्शन इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने के लिए उन्होंने वस्त्रों का भी त्याग कर दिया। इससे सर्दी, गर्मी बरसात, मच्छर, मक्खी, आदि की बाधाओं से बचने का लेश मात्र भी विकल्प नहीं रहा है। सर्दी की तुषार वर्षाती हुई रातों में कहीं बीहड़ वन व शमशान के बीच, आकाश की छत्र छाया में यह स्पर्शन इन्द्रिय-विजयी किसी एक आसन से विराजे निःशल्य हो स्वानुभव करते रहते हैं। गर्मी की आग बरसाती हुई दोपहरी में तप्त बालू व शिला के ऊपर धारण किया हुआ उनका आतापन योग यह दिखा रहा है कि शरीर से छूट गया है पूर्ण ममत्व इनका। स्पर्शन सम्बंधी मैथुनभाव के ऊपर जय घोषणा करने वाली उनकी निर्विकृत शांत आभा और भी स्पर्शन इन्द्रिय विजेतापने को प्रकाशित कर रही हैै।
आहार को जाने से पहले ही रसनाइन्द्रिय-विजेता मुनिराज एक, दो या समस्तरसों का त्याग कर देते हैं। श्रावक के घर कितने ही स्वादिष्ट पदार्थ क्यों न बने हों, परंतु ये आहार लते समय स्वादिष्ट-अस्वादिष्ट में नमक सहित व रहित में, मीठे या खट्टे में, कड्वे या कषायले में, चिकने या रूखे में, गर्म या ठण्डे में, कोई रूचि नहीं रखते, मात्र संयम पालनार्थ उदर पूर्ति करे हैं। आहार लेते समय अंतराय हो जाय तो उसी समय समस्त आहार-जल का आनन्दपूर्वक त्याग कर देते हैं। श्रावक के ऊपर जरा भी रोष नहीं करते। समताभाव से वन या मंदिर की ओर चले जाते हैं। मुनिराज कभी स्वप्न में भी कोई स्वादिष्ट आहारादि ग्रहण कर लेते हैं तो उसका त्याग अथवा प्रायश्चित करते हैं। यह सब बातें उन्हें जिहाइन्द्रिय-विजयी सिद्ध कर रही है। रोम-रोम को पुलकित कर देने वाला सब सत्व-कल्याण की करूणापूर्ण भावनाओं से निकला, उनका सर्वजन हितकारी व अत्यंत मिष्ट सम्भाषण, वचन पर उनका पूर्ण नियंत्रण दर्शाता हुआ नके पूर्ण जिहाइन्द्रिय-विजयी होने का विशवास दिला रहा है।
महासंयमी ऋषिराज पूर्ण नासिका इन्द्रिय-विजेता होते हैं। मार्ग में सन्मुख विष्टा आदि कितनी दुर्गन्धमय वस्तुएं क्यों न आ जायें, परंतु उनकी मुखाकृति व अपूर्व शांति में लेशमात्र भी अंतर नहीं आता। किसी कुष्ठि आदि ग्लानिमय शरीर-थारी को देखकर भी ग्लानि कर उनकी आंख का दूसरी ओर से घूमना तथाा किसी फुलवाड़ी से नाना प्रकार के पुष्पों की मन्द सुगंध आने वाली हवा की ओर उनके मन का आकर्षित न होना, पूर्ण नासिकाइन्द्रिय-विजयीपने को सि़द्ध करता है। सुगंधि में रागभाव व दुर्गन्धि मेंरागभाव व दुर्गन्धि में द्वेषभाव का न होना उनके पूर्ण वीतराग व शांति के रसास्वादन का प्रतीक है, जिसके कारण उन दोनों में उन्हें भेद हीप्रतिभासित नहीं होता।
जिनके सामने नवयौवन वाली युवतियां कितने ही हाव-भाव क्यों न दिखती रहे, चाहे स्वर्ग से भी आकर मन को हरण करने वाली अप्सरायें कितने ही नृत्यगान क्यों न करती रहें, परंतु उन महामुनिराज के नेत्रों की दृष्टि नासा से विचलित नहीं होती, शेर, हाथी, व्याघ्र आदि के कितने भी भय नेत्रों के समक्ष क्यों न आ जायें किंतु पूर्ण नेत्र विजयी ऋषिराज के मन में किसी प्रकार का भय उत्पन्न नहीं होता।