।। चतुर्थ आवश्यक कर्म: संयम ।।

रसना-इन्द्रिय-संयम
हे जिहृ के लोलुपी, पर रस में भरमाय।
जो रसना को बस करे, निज रस निजमें पाय।।42।।

मुक्तिपथ की ओर अग्रसर भव्य जीवों को मुक्तिपथ में बाधक विकल्पों के निषेधार्थ, जीवन को यथा-शक्ति संयमित बनाने की प्रेरणा की जा रही है। संयम के प्रथम अंग इंद्रिय संयम के अंतर्गत स्पर्शन इन्द्रिय सम्बंधी संयम की बात हो चुकी। अब कही जाती है जिहृादि शेष इन्द्रियों को संयमित करने की बात -

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जिहृ-इन्द्रिय-संयम का अर्थ है कि जिहृा की लोलुपता को रोकना। जिहृा इन्द्रिय के भी दो विषय समझने चाहिये-एक आवश्यक, जिसके बिना काम न चले, दूसरा अनावश्यक, जिसके बिना अपना काम चलाया जा सकता हैं। आवश्यक विषय में है क्षुधा शमनार्थ किए गये भोजन को चबाकर अंदर ले जाना तथाा घर के व्यक्तियों से व्यापारादि तथा उद्योगों में ग्राहकों से व अन्य सम्बंधित व्यक्तियों से यथायोग्य संभाषण करना अथवा अपने सम्पर्क में आने वाले अन्य साधारण व असाधारण व्यक्तियों से योग्य सम्भाषण करना, कठोर अप्रिय, अश्लील वचन नहीं बोलना, अनावश्यक विषय में आता है। उस किये गए भोजन के स्वाद में या अन्य स्वादिष्ट मिष्ठान, नमकीन चाट आदि के पदार्थों में अपनी आसक्ति-लोलपता होना और निष्कारण किसी से द्वेष या किसी की निन्दा करना, चुगली करना, गाली देना, मजाक उड़ाना, व्यंग कसना, आपस में घरों में फूट पड़वा देना, भाई-भाई, पिता-पुत्र में झगडा खडा कर देना, यह ऐसी जो आदतें पड़ी हुई है; ये सभी अनावश्यक अहितकारक जिहृ-इन्द्रिय के संयम में बाधक हैं।

यहां भी आवश्यक विषय अर्थात भोजनादि द्वारा उदर-पूर्ति के बिना और सम्भाषण किये बिना गृहस्थ-जीवन का चलाना कठिन ही है। परंतु उपरोक्त अनावश्यक विषयों को त्यागने में हमारे सामने क्या बाधा आती है? कुछ भी नहीं। जरा विचार करके देखें तो पता चल जायेगा कि इन अनावश्यक विषयों के कारण हमारे अंदर प्रति समय कितनी भांति के संकल्प-विकल्प उत्पन्न होकर व्याकुल बना रहे हैं। अनुकूल स्वाद न मिलने पर क्रोध की ज्वाला में अपने को जलता हुआ हम स्वयं अनुभव करते हैं, जिहृा-लोलुपता की पूर्ति के लिए अनेक स्वादिष्ट पदार्थों को बनाने में हमारा कितना समय व पैसा खराब हो जाता है, जिसके कारण सभी दैनिक बजट बिगड़ जाते हैंद्ध उसकी पूर्ति अपना सारा अमूल्य समय धनोपार्जन में लगा देने पर भी नहीं होती।

जरा विचार करें कि इन स्वादिष्ट अनेक प्रकार के पदार्थों को खाने से कहीं हमारी हानि तो नहीं हो रही है? आज देखा जाता है कि प्रायः करके सभी लोग मंदाग्नि, बवासीर की बीमारी, पेट सम्बंधी रोग, गैस, दिल आदि की बीमारियों से परेशाान हैं। इन सबका कारण है हमारी जिहृ लोलुपता। नमकीन मिर्ची के भुजिये आदि दही के साथ खाने से बवासीर आदि का भय रहता है, स्वादिष्ट चटनी चूर्ण आदि का प्रयोग करने से हाजमा बिगड़ जाता है, अनेक प्रकार के मावादि के मिष्ठान खाने से पेट खराब हो जाता है, गरिष्ठ भोजन से पेट में वायु बन जाती है, चाय पीने से खून जल जाता है, निद्रा कम आती है। इन सभी बनावटी वस्तुओं को हमें छोड़ देना चाहिए और शुरू कर देना चाहिए जो प्रकृति ने हमारे लिए सादा भोजन दाल-रोटी बनाया हैं उससे तो जिहृा-इन्द्रिय का संयम भी शुरू हो जायेगा, अधिक पैसा कमाने की लालसा भी कम हो जायेगी, धर्म ध्यान में कुछ समय भी मिल जायेगा, आधी से अधिक कमाई का खर्चा दवाओं के लिए हो जाता है उस का बचाव हो जायेगा।

आजकल जो चाय-नाश्ता आदि हमारे मुंह लग चुका है, वह वास्तव में नाश का ही कारण है। सर्वप्रथम तो चाय आदि पीने से भूख का नाश होता है, जिसके कारण हमारा शरीर कृश हो जाता है, निद्रा कम आती है। दूसरे पैसों का नाश होता है, जिसके कारण आकुलता उत्पन्न हो जाती है। इसलिए चाय, बिस्कुट, डबलरोटी, चाट, पकौड़ी, चाॅकलेट आदि का खाना-पीना बंद कर दें और करें सादा तथा शुद्ध भोजन, जिससे रसनापर हो जायेगा कन्ट्रोल स्वतः ही। इस जिहृ इन्द्रिय के वशीभूत होकर कई प्राणियों ने अपने प्राण भी दे दिये हैं। सुभौम चक्रवर्ती ने मधुर फल के कारण बनकार मंत्र का अविनय कर प्राण दे दिये थे- यह कथा प्रसिद्ध है। जिहृा के वशीभूत हो बालकों का मांस खाकर बक राजा को नरक जाना पड़ा था, मछलियां जान गंवा देती हैं रसना इन्द्रिय के खातिर, अगर हम भी रसना के वशीभूत हो गये, संयमी न बने तो हो सकता है कि हमें भी दुख उठाना पड़े।

जिस तरह स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों की ओर से रसना को मोडें ठीक उसी तरह से अश्लील, असत्य भाषण से अपने को मोड़े, किसी को कटु वचन न कहें, व्यर्थ ही सड़कों पर खड़े रहकर लोगों की निन्दा न करें, इधर की उधर कानाफूसी न करें, दूसरों की हंसी-मजाक न उड़ायें; क्योंकि यह सब करने में लोक निन्दा तो होती ही है परलोक भी बिगड़ जाता है। इस कारण इन समस्त बातों का त्याग कर कुछ समय के लिए मौन रखें। बोलें तो हित-मित प्रिय वचन, जो कि शत्रुओं के दिल को भी पिघला कर मित्र बना दें, भर जाये उसके हृदय में आनन्दरस। तभी वाणी बोलना सार है अन्यथा तो बकवास है।

किसी कवि ने कहा है कि वाणी ऐसी बोलनी चाहिए -

वाणी ऐसी बोलिए, मनका आपा खोय।
औरहु को शीतल करें, आपहु शीतल होय।।

ऐसी वाणी को भर्तृहरि ने ‘नीतिशतक’ में मनुष्य का आभूषण कहा है -

केयूराणि न भूषयन्ति पुरूषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला,
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालड्कृता मूर्धजाः।
वाण्येका समलंककरोति पुरूषा या संस्कृता धार्यते,
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं, वाग्भूषणं भूषणम्।।91।।
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अर्थात-मनुष्य को न तो बाजूबंद भूषित करते हैं, न चन्द्रमा के समन उज्ज्वल हार ही, न स्नान, न चन्दनादि का लेपन, न फूल और न सजाये हुए बाल ही। केवल वाणी ही पुरूष को अच्छी तरह से विभूषित करती हैद्ध जो हित, मित, प्रिय रूप संस्कारों से धारण की जाती है। भूषण तो नष्ट हो जाते हैं, परंतु वाणी रूपी भूषण नित्य रहने वाला भूषण है।

इसलिए वाणी को भूषण बनाने के लिए ध्यान रहे कि कहीं हमारे मुख से अप्रिय, कठोर, दूसरों के अहितकारक, असत्य वचन तो नहीं निकल रहे हैं। इस जिहृा से किसी को क्रोध-पिशाच के वशीभूत होकर गाली दे दें, उपशब्द कह दें, तो देखें उसका नतीजा क्या होता है? कभी-कभी तो सिर भी फूट जाते हैं, जान भी चली जाती है, आर्त-रौद्र ध्यान के कारण मरकर भी दुर्गति में दुख ही उठाने पड़ते हैं। अब अपनी प्रशंसा व दूसरों की निन्दा करना छोड़ दें और कर लें विजय प्राप्त रसना इन्द्रिय के ऊपर। अगर अभी पूर्ण विजय प्राप्त न कर सको, तो कम से कम अनावश्यक विषयों का ही त्याग कर दो, तब कुछ-कुछ आनन्द आना शुरू हो जायेगा। जिसने रसना इन्द्रिय को वश में कर लिया वह सबको वश कर सकता है।

अभी हम पूर्ण रसना इन्द्रिय को वश में न कर पाये ंतो कोई बात नहीं; परंतु धीरे-2 इसके प्रति जो हमारा रागभाव है उसे हटाने की कोशिश कर जितना त्याग (एक देशमय) हो सके उतना ही करें, तो एक दिन वह आ सकता है कि जब हम अपने को पायेंगे जिहृ-इन्द्रिय-विजयी। अभी हम वास्तव में परिचित नहीं हैं संयम से कि क्या है यह और इसका फल क्या होता है? जिस दिन परिचित हो जायेंगे, उसी दिन पायेंगे अपने को किसी दूसरी दुनिया में। आज जो मन अच्छे-अच्छे माल खाने को और फालतू बकवास करने को कहता है, फिर यह कहेगा कि छोड़ दो अभी खाना-पीना और ले लो मौन सब दुनिया की ओर से। उस समय हो जायेगा पूर्ण रसना-इन्द्रिय-संयम।

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