।। चतुर्थ आवश्यक कर्म: संयम ।।

प्राणघात की सर्व प्रवृत्तियों को पांच कोटियों में विभाजित किया जा सकता है। आचार्य ने इन्हें पांच पाप भी कहा है, प्राणघात होता है हिंसा के द्वारा, असत्य के द्वारा, चोरी के द्वारा, व्यभिचार सेवन के द्वारा और संचय अर्थात अनावश्यक धनादि को एकत्रित करने के द्वारा। प्राणियों की पीड़ा के कारण होने से यह पांचों प्रकार की हमारी प्रवृत्ति पाप रूप ही है। अब यहां इन सबको अलग-अलग कर बताया जा रहा है। ध्यान से समझे बिना इनसे छुटकारा मिलना असम्भव ही है। अतः इन पांचों को भली प्रकार जानकर इनकी ओर से अपने जीवन को मोड़ लें, तभी होगा प्राणी-संयम, तभी मिलेगी सुख की एक झलक, मुक्ति का मार्ग, शांति की लहर।

हिंसा-प्रवृत्ति
दुख देना मन वचन से, किसी जीव को जोय।
ए ही हिंसा पाप है, स्वपर तजें शिव होय।।49।।

पशु पक्षी व मनुष्य को तो बांधकर, पिंजरे में बंद करके या कैदखाने में डालकर अथवा उनका वध करके या किसी एक इन्द्रिय व शरीर के किसी अंगों-पांग को काटकर, छेद-भेदकर, अधिक भार लादकर या उनकी शक्ति से अधिक व अधिक समय तक काम लेकर, क्रोध, द्वेष व प्रमाद के कारण समय पर आहार-पानी न देकर अथवा कम देकर, खोटे वचन बोलकर, गाली आदि अहित कारक शब्द बोलकर इन प्राणियों के दिल को दुखाना, कष्ट देना हिंसा है और छोटे प्राणियों की भी हर समय विवेक शून्य काम करने के कारण हिंसा करते रहते हैं, जैसे रात्रि भोजन करते समय, पानी छानकर न पीते समय, रास्ते में नीचे देखकर न चलते समय, बिना देखकर वस्तु रखते उठाते समय, इसी प्रकार के अनेक कार्यों में हिंसा होती है। अतः हम विवेकपूर्वक प्रमाद रहित कार्य करें। इस घोर दुख सागर में पटकने वाली हिंसा का त्याग कर अपने को पूर्ण अहिंसक बनाने का प्रयत्न करें।

असत्य प्रवृत्ति
अहित करन के भाव से, जो वच बोले होय।
ज्ञानी कहते झूठ हैं, तजें सत्य पद होय।।50।।

अब कहते हैं असत्य प्रवृति को। क्रोध के वश कहे जाने वाले कटु व तीखे या गाली के शब्द, द्वेषवश्ज्ञ कहे जाने वाले व्यंगात्मक शब्द, लोभवश कहे जाने वाले छल-पकट भरे शब्द, हंसी-ठट्ठे में कहे जाने वाले कुछ अनिष्टकारी शब्द। मान वश किसी को अपशब्द बोलते हुए कहना कि किसी पद के योग्य नहीं है, इस प्रकार के कटु शब्द बोलकर किसी के दिल को दुखाना और चुगली के, निन्दा के अनिष्टकारी या खुशामद के शब्द बोलकर, झूठे कागज व दस्तावेज आदि बनाकर, किसी की अपने पास रखी हुई रकम आदि धरोहर को दबाकर जाना या उसका स्वामी उसे भूल गया हो व पूरी याद न रही हो तथा लेने आवे तो कम मांगता हो या उस समय उसे पूरी याद न रही हो, उस समय उसे पूरी याद दिलाने में चुप खेंज जाना, किसी का रहस्य स्वयं उसके द्वारा बताया हुआ अथवा अपने आप ही किन्ही अन्य कारणों से या उसकी मुखाकृति आदि भावों से जाना हुआ प्रगट करके, इसी प्रकार के अन्य वचन सम्बंधित अनेक विकल्पों में से किसी के अन्तर प्राणों को अर्थात मानसिक प्राणों को पीड़ा पहुंचाना इत्यादि प्रवृत्ति का नाम है असत्य प्रवृत्ति। मात्र झूठ बोलने को ही असत्य नहीं कहते, बल्कि प्रत्येक अनिष्ट व कटु वचन भी वास्तव में असत्य ही है। सत्य वचन भी हो परंतु उससे किसी का अहित हो, धर्म से कोई विचलित होता हो अथवा किसी की जान खतरे में पड़ती हो तो वह वचन भी असत्य ही हैं। अगर चाहते हैं आनन्द की लहर तो असत्य महापाप का अभी से त्याग कर दें।

चोरी
परवस्तु की भावना, निज करने की होय।
चोरी ये सबसे बड़ी, तजे साधु पद होय।।51।।

अपनी अवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए प्राणियों ने जो धनादि का संचय किया है वह सभी कहलाता है उनका खजाना या धन। धन को प्राणियों का ग्यारहवां प्राण कहा है। कभी-कभी तो यहां तक देाा जात है कि धन के पीछे मनुष्य अपने दस प्राणों को गंवा देता है। धन का अर्थ मात्र पैसा नहीं है, इसमें सभी संगृहीत वस्तुएं हैं। इनमें से किसी भी चीज को रात्रि में ले आना, बिना पूछे ले आना, धोख देकर ले आना, बिना कह ेले आना, जबर्दस्ती ले आना, किसी के घर अच्दी वस्तु देखकर यह कहकर कि यह तो मुझे अच्छी लगती है तो धनी कह ही देगा कि ले जाओ- परंतु अन्तरंग से नहीं, ऐसी वस्तु का ले आना, चोरी करने का उपाय बताना, चोरी करने के औजार बनाना, चोरी का माल खरीदना, राज्य की चोरी करना, किसी की पड़ी हुई वस्तु को उठा लेना, इन समस्त कार्यों का करना चोरी कहलाता है। जिस प्राणी की चोरी या उसके साथ ठगी की जाती है, उसके प्राणों को बहुत बड़ी ठेस लगती है, उसके मारे वह जीवन भर कराहता रहता है। अतः चोरी का त्याग होने पर ही संयमी बन सकते हैं।

अब्रह्म
निज-आतमको छोड़के, परनारिनका संग।
इसे कहें व्यभिचार ही, रावण से भये भंग।।52।।

परस्त्री के साथ रमण करने को कहते हैं, अब्रह्म, कुशील, व्यभिचार। इसके अलावा किसी सुन्दर स्त्री के रूप को विकार भावों से देखना, उसके साथ एकान्त स्थान में वार्तालाप करना, हंसी-मजाक करना, पास में बैठना, पास में सोना, अपने किसी अंग विशेष को उसके अंग से बार-बार छूना,उसके किसी अंग विशेष की ओर देखते रहना, यह सब कहलाता है कुशील, अब्रह्म। क्योंकि ऐसा करने से पूर्व में भोगो हुए भोग याद हो आते है। पशुजाति, चित्रों में व पाषाण की नारी आदि को भी रागभाव से देखना भी कुशील ही है। कुशील सेवन से सूक्ष्म प्राणियों का तो घात होता ही है परंतु कुशील-सेवन करने वाले को माता, पिता, भाई आदि के प्राणों को कितनी ठेस लगती है, उस चोट को वही जान सकते हैं, जिन कुलीन घरों के लड़के-लड़कियां कुशील सेवन करते है, दूसरा नहीं। घोर नरक में ले जाने वाले इस कुशील नामक पाप का हमें त्याग कर देना चाहिए, तभी मिलेगा मुक्ति-पथ।

परिग्रह
आवश्यकता से अधिक, धन संचय के भाव।
यही परिग्रह पाप है, त्याग लहै जिन भाव।।53।।
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आवश्कता से अधिक संचय करना कहलाताहै परिग्रह। इस परिग्रह को दो भागों में विभाजित किया है - एक अंतरंग, एक ब्रह्म। अंतरंग चैदह प्रकार का है और बाहृ दस। अंतरंग चैदह प्रकार का है - क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरूषवेद, नपुंसकवेद तथा मिथ्यात्व। बाहृ दस प्रकार का है - चांदी, सोना, पैसा, अनाज, जमीन, मकान, दासी, दास, कुप्य और बर्तन। इन सभी जाति के परिग्रहों को आवश्यकता से अधिक संचय करने से प्राणिघात होता है। क्रोधादि कषायों के द्वारा अपना घात और अपने आश्रय आने वालों का घात, मिथ्यात्व के कारण अनन्त जीवों का घात, आवश्यकता से अधिक मकान, दुकान, स्वर्ण, धन, उन्नादि का संग्रह करने से भी प्राणिघात होता है। हम तो मौज करते रहते हैं, घर में लाखों मन अनाज आदि व्यर्थ भरे रहते हैं, उधर कई प्राणियों को प्राण त्याग देने पड़ते हैं, अनाज के बिना तड़प-तड़प कर। अधिक संचय होने से हमें भी क्षण भर के लिए आत्मसंतोष नहीं, आकुलता-व्याुकलताओं में ही दिन-रात व्यतीत हो जाते हैं। अतः स्वपर प्राणघातक इस संगे को त्याग निसंगी बन जायें तभी हो सकेगा प्राणि-संयम-जीवरक्षण।

यह सिद्ध हो गया है कि हमारी जो यह पांच पापरूप प्रवृत्तियां हैं इनके ही द्वारा होता है छोटे-बड़े प्राणियों का वध, लगती है जीवों के मन को गहरी ठेस। इसमें मुख्यता हैं हमारे मन, वचन और काय की ।इन तीनों प्रवृत्ति के बिना हिंसादि प्रवृत्तियों का होना ही असम्भव है। कभी-कभी जो मन में विचार उत्पन्न होते हैं कि इसे मान दूं, उसका यह कर दूं, इत्यादि अनेक विकल्पों के द्वार जीव हिंसा होती है। अपने मुख से दूसरों को ऐसे शब्द बोलना कि जिसके द्वारा उसका जीवद ुख पावे, यह हुई वाचनिक जीव हिंसा। काय के द्वारा किसी जीव का वध कर देना, प्रमाद के वशीभूत हो उन्हें कुचल देना अपने पैरों से, यह कहलाती है काय के द्वारा जीवहिंसा। इन प्रवृत्तियों में अगर कृत, कारित, अनुमोदना भी की जाय तो भी जीव हिंसा का दोष लग जाता है। जैसे अपने द्वारा करना कायदि की चेष्टा का, किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा कराना प्राणी पीड़न, उनकी हिंसा करते हुए को अच्छा मान उसकी प्रशंसा करना। इन सबको मिला देने से जीव को पीड़ा पहंुचने के 12960 भंग होते हैं। इन सभी के द्वारा जीव हिंसा होती रहती है। जीव हिंसा मात्र उसे ही नहीं कहते, जिसमें किसी जीव को जान से समाप्त किया जाये।

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