।। चतुर्थ आवश्यक कर्म: संयम ।।

नासिक इन्द्रिय-संयम
घ्राणेन्द्रिय बस होयके, भूल गए निज गन्ध।
अब तो निज की गन्ध ले, क्यों परमें है अन्ध।।42।।
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जिस प्रकार स्पर्शन और रसना-इन्द्रिय संयम की आत कही उसी प्रकार अब कहते हैं नासिका-इन्द्रिय-संयम की बात। नासिका-इन्द्रिय के भी दो विषय है - आवश्यक तथा अनावश्यक। आवश्यक विषय वह कहा जाता है जिसके बिना काम न चलाया जा सके; जैसे-श्वासादि। अनावश्यक विषय वे कहे जाते हैं जिनके त्यागने पर किसी प्रकार की हानि न हो जैसे इत्र इत्यादि की सुगन्ध लेना।

आवश्यक विषय का त्याग नीं किया जा सकता, तो हम न करें परंतु अनावश्यक विषय का तो त्याग कर दें, जिससे कि हमारे संयम में बाधा आती है, नासिक इन्द्रिय के वशीभूत हो जाना पड़ता है, स्वभाव से विभाव की ओर झुकाव हो जाता है, आदत के लग जाने के बाद अनेक प्रकार की आपत्तियों का सामना करना पड़ता है।

गन्ध प्रत्येक पदार्थ में पाई जाती हैं। परंतु नासिका इन्द्रिय के वशीभूत हो उसमें उपसर्ग अपनी इष्ट व अनिष्ट कल्पना से लगा देते हैं। वास्तव में देखा जाय तो हमें कोई अधिकार नहीं है, अपनी इच्छानुसार वस्तु बनाने का। गुलाब इत्यादि की सुगन्ध में ‘सु’ व प्याज इत्यादि की गन्ध में ‘द’ उपसर्ग लगाकर, सुगन्घ में राग करते हैं दुर्गन्ध में द्वेष। इस अपनी इष्ट व अनिष्ट कल्पना को बिलकुल हटा देना चाहिए तभी बनेंगे हम मानव, भी हम चल सकेंगें मुक्त्-िपथ की ओर।

नासिक इन्द्रिय के वशीभूत हो कभी-कभी अपनी जान से भी हाथ धोने पड़ते हैं। एक भंवरा किसी सरोवर में एक कमल के अन्दर बैठ गया और भूल गया सुगन्ध के आनन्द में कि कितना समय हो गया? दिनकर के चले जाने पर कमल बन्द हो जाता है, जब आया ध्यान अलि को कि क्या करना चाहिए किस विधि होगा निकलना, पूरी रात विकल्पों के अन्दर व्यतीत होती है, सूर्य निकलने से पहले ही आता है एक गजराज पानी पीने तालाब में। पीछे जाते हुए गजराज ने तोड़ लिया उसी कमल को, जिसमें लोलुपी भंवरा बन्द था। हाथी ने उस कमल को मय भौरे के चबा लिया और भंवरा गंवा बैठा सुगन्ध के वश हो अपने प्राण।

नेत्र-इन्द्रिय-संयम
सुन्दर तनको देखते, निधी गई निज खोय।
पलक ढारि मन मोडि़के, लखि निज अनुीाव होय।।53।।

अब चलती है चक्षु-इद्रिय के विषय की बात जिसका काम है देखना-रागभाव से व द्वेषभाव से; जैसे कुटुम्बीजनों को व किसी सुन्दर स्त्री को। करूणाभाव से व क्रूर भाव से, जैसे-अपने व्याधि से घिरे पुत्र व सर्पादिक को। प्रेम से व भय से; स्व वल्लभा व सिंह को। बहुमान मनोरंजन से जैसे देव-गुरू को व धार्मिक उत्सवों को तथा सिनेमा आदि को और अन्य भी अनेक विरोधी अभिप्रायों से देखना। इन सर्व अभिप्रायों में राग से देखे बिना वर्तमान अवस्था मं चलना प्रतीत नहीं होता। परंतु द्वेषभाव से, क्रूरभाव से, भय से तथा मनोरंजन आदि के भावों से देखने का त्याग तो सहज ही कर सकते हैं। इन समस्त दृष्टियों के त्याग से तो हमारी दैनिक चर्या में बाधा आने की बजाय लौकिक व अलौकिक दोनों रीतियों से कुछ न कुछ सुख की झलक ही आयेगी, शांति ही मिलेगी।

आज हम चक्षुइन्द्रिय के वशीभूत होकर भूलते जा रहे हैं अपने आपको। सिनेमा जाना तो हमारा आवश्यक कार्य हो गय जिसे देखने से सिवाय पतन मार्ग के और कोई मार्ग खोजने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। चोरी करना, जेब काटना, झूठ बोलना, फैशन करना, किसी की शर्म न करना, व्यभिचार करना हर किसी को जबवा देना, व्यसनों में फंस जाना, अश्लील शब्द बोलना, य सभी करामात सिनेमा देखने के कारण ही हैं अतः हमें चाहिये कि सभी सिनेमा आदि खोटे मार्गदर्शक खेले तमाशे नहीं देखें, चक्षुइन्द्रिय को अपने वश में रखकिसी के सुन्दर स्वरूप को देखकर मोहित न हो जायें, इसमें सिवाय हानि के लाभ जैसी कहीं बात ही नहीं, लोक निन्दा होती है, शरीर नष्ट होता है, कुल का नाम डूबता है, इज्जता में बट्टा लगता है लोकनिन्दा से अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है तथा लोक परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं।

यह अनावश्यक सभी विषय त्याज्य हैं, इनकी ओर कभी दृष्टि भी नहीं जानी चाहिए। क्योंकि यह सभी पतन के कारण है। आवश्यक विषय है चक्षुइन्द्रिय से देव-गुरू आदि के दर्शन करना, स्वाध्याय करना आदि धार्मिक सभी विषय, जिनके निमित से दिखने लगता है। मुक्तिपथ। अगर इस मनुष्य जन्म को सफल बनाना चाहते है और देखना चाहते हैं अपने को आप में, तो चक्षुइन्द्रिय की चंचलता को रोक लें।

कर्णेन्द्रिय संयम
राग शब्द अति रूचत है, रूचें न हितके बैन।
अन्तरकी धुनि जो सुनै, तो प्रगटे सुख चैन।।44।।

अब की जाती है पांचवी कर्णेन्द्रिय के विषय की बात। आवश्यक तथा अनावश्यक रूप से इसके विषय को भी दो भागों में विभाजित किया जाता है। आवश्यक विषय हैं शिक्षाप्रद बातें सुनना, गृहस्थ-जीवन में हरते हुए धनार्थ न्यायपूर्वक, व्यापारादि सम्बंधी बातें सुनना, धर्मप्रेमी भाइयों की बातें सुनना, गुरूओं का कल्याणकारी उपदेश सुनना, शास्त्र सभा में जाके जिनवाणी सुनना, धार्मिक भजन सुनना, धर्मिक चर्चा आदि का सुनना। अनावश्यक विषय हैं- सिनेमा आदि के कुमार्ग पर ले जाने वाले गाने सुनना, होनी आदि के राग भरे गीत सुनना कोई किसी को गाली दे रहा हो उन्हें रूचि के साथ सुनना, किसी की बुराई सुनना, एकांत में करते हुए दो व्यक्तियों की गुप्त बात सुनना, अश्लील शब्दों को सुनाना, कुमार्गपर ले जाने वाली चर्चाओं को सुनना, रागद्वेष को पुष्ट करने वाली कथाओं को सुनना।

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इन अनावश्यक विषयों का त्याग करने पर हमारे जीवन में किसी प्रकार की क्षति होने वाली नहीं, उन्नति अवश्य हो जायेगी। संसार में लोगों के बीच सम्मान प्राप्त होगा और बच जायेगा हमारा पैसा, जो फिजूल के ‘खर्चें’ रेडियों, ग्रामोफोन, आदि को खरीदने में व्यय हो जाता है।

कर्ण-इन्द्रिय के और भी विषय है, जिनके कारण से हम अपना अहित कर लेते हैं, दुर्गति के पात्र बन जाते हैं, की हुई रत्नत्रय के द्वारा धर्मरूपी कमाई को खो बैठते हैं, वह हैं- अपनी प्रशंसा सुनकर आनन्द मनाना, ख्याति लाभ की इच्छा का अंतरंग में भाव उठना, विरोधीजनों के द्वारा अपनी निन्द्रा सुनकर क्रोधरूपी ज्वाला में जल उठना। मुक्ति पथ की ओर चलने के लिए हमें कर्णेन्द्रिय के अहितकारक विषयों का पूर्णतः त्याग करना होगा, तभी कहलायेंगे कर्णेन्द्रिय विजयी व संयमी।

मन-इन्द्रिय-संयम
मन चंचल मन कुटिल है, म नही से भव घोंर।
मनकों यदि वश में करे, निज घर होवे भोर।।85।।

इन्द्रियों के संयम की बात हो चुकी, अब कहीं जाती है इनके स्वामी मन इन्द्रिय-संयम बात। जिसके बिना इन्द्रियां कुछ भी कार्य नहीं कर सकती, उसके परास्त होने पर परास्त हो जाती है; उसके मार देने पर मर जाती हैं, उसके बलिष्ठ होने पर बलवान हो जाती हैं, उसके वश में करने पर स्वतः ही वश में हो जाती है। अतः इन्द्रिय संयम की पूर्ति के लिए मन-इंद्रिय को वश में करना अत्यंत अनिवार्य है, इसकों वश में जब तक नहीं किया जायेगा तब तक इन्द्रिय-संयम हो ही नहीं सकता।

जिस प्रकार पहले देवपूजादि में अंतरंग तथा बाहृ का विवेचन किया है उसी प्रकार यहां भी दो विषय हैं। इन्द्रिय संयम के बाहृ विषय उन्हें कहते हैं, जिनके द्वारा मात्र उनके विषय सम्बंधी पदार्थों को ग्रहण किया जाय और अंतरंग आसक्ति, रूचि, व लगाव का होना, मन-इन्द्रिय को वश में करने के लिए पांचों इंद्रियों के अंतरंग व बाहृ विषयों का त्याग करें तभी मनरूपी हाथी को, विवेक से बने इन्द्रिय-विषय के त्यागरूपी अंकुश के द्वारा वश में किया जा सकता हैं। पांचों इन्द्रियों का निग्रह करने पर निश्चल रीति से, अटलता से ही संयम-पालन हो सकता है। कन्नड़ी भाषा में किसी कवि ने कहा है कि पांचों इंद्रियों को वश में कियो बिना संयम का पालन नहीं हो सकता है।

हवनिशा कोडुवकिन्द्रिय वर्गव नविचल नागिन बेकु।
भवन किं दिन राय स्वर्ग के वाडिषदिंवी जीन्द्र ण्ेनिसर बेकु।।
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