पांचों इन्द्रियों का विषय मिलकर ही मन-इन्द्रियों का विषय बन जाता है अतः मन-इन्द्रिय को वश में करने के लिए इन्द्रियों के अनावश्यक विषयों का त्याग करें, इच्छाओं का निरोध करें। इस प्रयास से गृहस्थ सम्बंधी किसी चर्चा में बाधा आना सम्भव नहीं। उन समस्त अनतरंग विष्यों का यथायोग्य त्याग, विवेकपूर्वक सावधानी के साथ निर्बाध रीति से जीवन में उतारने का नाम ही मन-इंद्रिय-संयम है।
मनरूपी घोड़ा निरंतर दौड़ लगाता रहता है। इंद्रियां वश में न रहने के कारण उसका कहा करती रहती हैं। यह मनरूपी अश्व तभी वश ममें हो सकेगा जब उसके ऊपर विवेक रूपी सवार बैठकर इच्छा निरोध रूपी लगाम को अपने हाथ में थामेगा। बस फिर हो जायेगा मन-इंद्रिय-संयम, मिल जायेगा मार्ग मोक्ष का अपने आप।
मुक्तिपथ की ओर ले जाने वाले संवर के अंग संयम की बात चल रही है। यह संयम दो भागों में विभक्त है -एक है इन्द्रिय संयम, दूसरा है प्राणी संयम। अभी तक इन्द्रिय संयम की बात हुई अब की जायेगी प्राणी संयम की चर्चा। प्राणी संयम अर्थात अपने जीवन की हर प्रवृति में सावधानी रखना कि हमारे द्वारा किसी के प्राण न दुखाये जायें, किसी जीव को कष्ट न पहुंचाया जाये।
यहां ‘प्राण’ शब्द का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। जिसके बिना जीवन जीवित न रह सके उसे प्राण कहते हैं। निश्चयनय से तो चेतना को ही प्राण समझना चाहिये परंतु व्यवहारनय से पंचेन्द्रिय संज्ञा की अपेक्षा प्राण दस कहे जाते हैं। इन्द्रियां पांच हैं - स्पर्शन, रसना, नासिका, चक्षु और कर्ण। तीन बल-मनोबल, वचनबल, कायबल तथा आयु अैर श्वासोच्छवास। प्राणी की छूकर जानने की शक्ति अर्थात स्पर्शन इन्द्रिय, चखकर जानने की शक्ति अर्थात जिन्ह-इन्द्रिय, सूंघकर जानने की शक्ति अर्थात नासिका इन्द्रिय, देखकर जानने की शक्ति अर्थात चक्षुइन्द्रिय और सुनकर जानने की शक्ति अर्थात कर्णेन्द्रिय। विचारने की शक्ति अर्थात मनोबल, बोलने की शक्ति अर्थात वचनबल व शरीर को हिलाने-डुलाने की शक्ति अर्थात, कायबल, इस शरीर के एक निश्चित समय तक रहने की शक्ति अर्थात आयु तथा श्वास लेने की शक्ति अर्थात श्वासोच्छ्वास। इन प्राणधारी जीवों को हमारी किसी प्रवृत्ति से किसी भी प्राणी के इनद स प्राणों में से कोई एक भी प्राण विनाश को प्राप्त न हो अथवा तनिक भी बाधित न हो ऐसी सावधानी का नाम है प्राणी-संयम।
प्राणिसंयम के पालनार्थ हमें उन प्राणधारी जीवों को भी जानना आवश्यक है क्योंकि जब तक उन जीवों के भेद-प्रभेद नहीं जानेंगे तब तक उनकी रक्षा कैसे की जा सकेगी? हम कई जाति के जीवों को जानते हैं; जैसे-मनुष्य, गाय, भैंस, ऊंट, हाथी, घोड़ा, कबूतर, मेंढक सर्पादि। परंतु इनके अलावा भी संसार में अनन्त जीव भरे पड़े हैं जिन सबका नाम तो दूर रहे ‘माइक्रोस्कोप’ के द्वारा देखना भी संभव नहीं।
कुछ जीव चार ही प्राणों के धारी हैं, कुछ छह के, कुछ सात के, कुछ आठ के, कुछ नौ के और कुछ दस के। इस प्रकार जीवों के छह भेद हुए।
चार प्राण के धारी वह जीव हैं, जिनके अंदर मात्र छूकर जानने की शक्ति है। उनके स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास चार प्राण रहते हैं। उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं - पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। पृथ्वीकायिक जीव वह कहलाता है जिसका पृथ्वी ही शरीर हो; जैसे-पर्वत, खदान, जमीन आदि। जलकायिका जीव वह कहलाता है जिसका जल ही शरीर हो; जैसे -नदी, समुद्र, तालाबादि में स्थित जल। अग्निकायिक जीव वह कहलाता है जिसका शरीर अग्नि का ही है, जैसे जलती हुई भट्ठी, चूल्हा, हीटर, बिजली, स्टोव आदि। वायुकायिक जीव वह है जिसका शरीर पवन हो, जैसे चलती हुई हवा, पंखे की हवा, बीजनी की हवा आदि। वनस्पतिकाययिक जीव वह कहलाता है जिसका शरीर वनस्पति ही हो जैसे पीपल, नीम, बबूल, केर, आम, अनार, नींबू, संतरा, मौसमी आदि के वृक्ष, करेला, घिया, तोरई, तरबूज, ककड़ी, आदि की बेलें, टमाटर, बैंगन आदि के पेड़, गाजर, मूली, लहसन, प्याज, शलजम, धनिया आदि अनके जमीन में उत्पन्न होने वाले पेड़ पौधे सभी वनस्पतिकाय जीव कहलाते हैं। इन सब जीवों को स्थावन भी कहते हैं।
जिन जीवों के अंदर चलने, बोलने व चखने की शक्ति मात्र पाई जाती है, उसे छः प्राणों का धारी जीव कहते हैं; जैसे -लट, केंचुआ आदि। जिन जीवों के अंदर सूंघने की शक्ति भी विद्यमान हैवह सात प्राण के धारी कहलाते हैं, जैसे चींटी आदि, जिन जीवों के अंदर देखने की भी शक्ति पाई जाती है वह आठा प्राण के धारी होते हैं जैसे भौरा, मक्खी, मच्छर, आदि। जिन जीवों के सुनने की भी योग्यता होती है वह नौ प्राण के धारी होते हैं उनके नाम हैं कुछ जाति के सर्पादि। जिन जीवों के मनोबल अर्थात हिताहित का विवेक होता है उन्हें दस प्राण धारी कहते हैं, उनके नाम है; जैसे - मनुष्य, हाथी, घोड़ा, तोता आदि। इन सभी दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवेम को त्रस कहते हैं। इसी प्रकार यह संसार जीवराशि से भरा पड़ा है। अनन्तजीव तो ऐसे सूक्ष्म हैं जो देखे ही नहीं जा सकते, अगर इन सबका वर्णन जानना हो तो देखा गोमटसारादि-ग्रन्थों में। जीवजाति को जाने बिना उनके प्रति दया कहां से हो सकती है, उनकी रक्षा कहां से हो सकती है, मात्र जीव-जीव कहने से क्या जीव रक्षा हो सकती है? कभी नहीं। यही किसी कवि ने कहा है -
अभी तक कतिपय लोगों की मान्यता थी कि मात्र एक मनुष्य ही जीव (आत्मा) है फिर यह भी कहने लगे कि गाय में भी जीव है। धीरे-धीरे और जाति के जीवों को भी स्वीकार किया है। आज के विज्ञान को लें तो यहां तक सिद्ध करके दिखा दिया कि पेड़-पौधे में भी जीव पाया जाता है।
इन जीवों को इन्द्रिय की अपेक्षा पांच प्रकार का मानते हैं - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चैइन्द्रिय व पंचेन्द्रिय। त्रस और स्थावर की अपेक्षा से पांच स्थावर और चार त्रस के भेद किये। प्राण एक कायकी अपेक्षा छह प्रकार के हैं। प्राण - एकेन्द्रिय के चार प्राण, दो इन्द्रिय के छह प्राण, तीन इन्द्रिय के सात, चार इन्द्रिय के आठा एवं पांच इन्द्रिय असंज्ञी की अपेक्षा नौ तथा संज्ञी की अपेंक्षा दस प्राणों युक्त जीव होते हैं। काय-पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, छठा है त्रसकायिक, जो दो इन्द्रिय लट आदि से लेकर पंचेन्द्रिय मनुष्यादि पर्यन्त हैं।
मुक्ति के अर्थ अपने जीवन में प्राणि-संयम को अपनाने के लिए कुछ जीवों के भेद तो समझ में आये इ न समस्त जीवों के प्राणों की रक्षा का अपने जीवन में हर समय विवेक रखना, उन्हें किसी प्रकार की तकलीफ नहीं पहुंचाना ही प्राणिसंयम है। अब यह देखना है हमें कि इन समस्त जीवों को हमारी किसी-किसी प्रवृति से पीड़ा पहुंचती है? जब तक यह समझ में नहीं आयेगा तब तक उन प्रवृत्तियों को, जिनसे प्राणिघात होता है, उनका कैसे त्याग कर सकेंगे, उनसे अपने को कैसे मोड़ सकेंगे?