।। द्वितीय आवश्यक कर्म‘गुरू उपास्तिः ।।

आर्यिकाजी मात्र पीछी, कमण्डलु के साथ एक सोलह हाथकी साड़ी पहनती है। उपचार से उनको महाव्रती माना गया है।

क्षुल्लिकाजी साड़ी के अलावा एक चद्दर और रखती हैं। ऐलक, क्षुल्लक, और क्षुल्लिका की प्रतिमायें ग्यारह होती हैं।

गुरू-तीर्थ

साधुओं के दर्शन का कथन करते हुए किसी ने लिखा है -

साधूनां दर्शनं पुण्यं र्तीािभूता हि साधवः।
कालेन फलते र्तीाि सद्यः साधुसमागमः।।

साधुओं के दर्शन मात्र से पुण्य बंध होता है क्योंकि साधु तीर्थ के समान होते हैं। तीर्थ तो समय आने पर फल देते हैं किंतु गुरूओं की संगति से तुरंत शुभ फल प्राप्त होते हैं।

ये साधुगुणों के पुंज होते हैं। किसी के प्रतिराग-द्वेष नहीं करते। पत्थर मारने पर भी फल देने वाले वृक्ष के समान सद्व्यवहार करने वाले ये दुर्जनों के प्रति भी क्षमा, करूणा और उदारभाव रखते हैं। जैसे चंदनपादप कुइार द्वारा छेदे जाने पर सुगंधित ही करता है, उसी प्रकार ये साधु दुर्वचन बोलने वाले को भी सद्भावना से कृतार्थ करते हैं। महाकवि बाण ने सज्जन-दुर्जन के स्वभाव का निरूपण करते हुए लिखा है -

कटु क्वणन्तो मलदायकाः खलास्तुदन्त्यलं बंधश्रृंखला इव।
मनस्तु साधुध्वनिमिः पदे-पदे हरन्ति सन्तो मणिनूपुरा इवं

अर्थात - निरंतर मल उत्पन्न करने वाले खल अर्थात् दुष्टजन लोहे की बेडि़यों के समान कटुवचन बोलते हैं जो शरीर में चुभते हैं, पीड़ा देते हैं, किंतु मधुर, गम्भीर, साधु-ध्वनि से पद-पद पर ये संतजन मणिनूपुरों की तरह सभी के मन को हरण करते हैं, प्रसन्न करते हैं।

साधु के इसी स्पृहणीय भाव से सम्पूर्ण लोक उनकी ओर आकर्षित होता है।उनकी सत्संगति ओर अमृतवाणी के लिए लालायित रहता है। किसी ने ठीक ही कहा है -

चंदन शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमाः।
चन्द्र-चन्दनयोर्मध्ये शीतल साधु समागमः।।

निस्सन्देह लोक में चन्दन शीतल हैं और चन्द्रमा तो शीतरश्मि होने से उससे भी अधिक शीतल; है; किंतु जो चन्दन तथा चन्द्रमा से भी अधिक शीतल है, वह साधु की संगति ही है, क्योंकि वह केवल मात्र शीतल करने वाले चन्दन और चन्द्र के समान बाहृ सुखदायिनी ही नहीं है अपितु अन्तरात्मा तक पवित्र भावों की शीतलता पहुंचाकर कल्याणकारिणी होती है अतएव नीतिकार बारम्बार इस प्रकार कहते हैं -

परिचरित्व्याः सं तो यद्यपि नोपदिशान्ति ते।
तेषां स्वैरकथालापा उपदेश भविन्त हिृ।।
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सदैव सन्तों की सेवा करनी चाहिए भले ही वे उपदेश न देत हो, फिर भी शरीर मात्र से वाणी के बिना ही मोक्षमार्ग का निरूपण करते हैं,उनकी यदृच्छा शब्दावली में भी ज्ञान-उपदेश ही निकलता है। भला गन्ना मिठास के अतिरिक्त दे ही क्या सकता है? पुष्प के पास सुगन्धि के अलावा और है ही क्या? सूखे वृक्षों को हरा-भरा करदेना ही वसंत का नित्यधर्म है। सनतजन प्रकृति से ही उद्धिग्न-गज के अंकुश होते हैं, आकुलता से तपते हुओं के लिए शीतल जलवर्षी मेघ होत हैं।

किंतु इस प्रकार के महाप्रभावी साधुओं का साक्षात्कार एवं उनकी पुण्य-संगत सभी को सर्वत्र नहीं मिल सकती। विशेष पुण्य का उदय ही साधु-दर्शन का निमित्त् करण होता है। कहा भी है -

शैले शैल न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दन न वने वने।।

प्रत्येक पर्वत पर माणिक्य नहीं होते, प्रत्येक गज से गजमुक्ता नहीं मिलते, प्रत्येक वन में चन्दन के वृक्ष नहीं होते और गुरू भी सर्वत्र नहीं मिलते।

गुरू कीजे जानके
गुरू बिन निज पर ज्ञान ना, गुरू बिन सुख न लहाय।
सन्मति गुरू लखि कीजिये, तो न भव भरमाय।।

हमें अपने जीवन का उत्थान एवं विकास करना है तो एक ऐसे कुशल वैद्य अर्थात गुरू की आवश्यकता है जो कि हमारे जन्म-मरर्ण रूपी रोग की जड़ को निकालकर स्वास्थ्य प्रदान करें हमें जाना है मुक्तिपथ की आरे, परंतु एक मार्ग दर्शन गुरू की आवश्यकता है, क्योंकि बिना गुरू के ज्ञानदीप नहीं जलता, ज्ञानदीप के बिना मुक्तिपथ दिखना कठिन है। जिस किसी को भी गुरू बनालें, तो न मालूम वह हमें कहां ले जायगा अथवा मध्य में ही छोड़ देगा। फिर हमारी हालत उस धोबी के कुत्ते से कम न होगी जो रास्ते में रह गया, ‘‘धर का रहा न घाट का।’’ गुरू हमें सत्पथ की आरे ले जाने वाला है, अतः उसको (भली प्रकार जान) अपने आदर्श के अनुकूल देखकर बनाना चाहिए। लोक में भी कहावत है कि - ‘‘गुरू कीजे जानके पानी पीजे दज्ञनके।’’ क्योंकि तनिक भी असावधानी होने पर सारा जीवन मिट्टी में मिल जायेगा। नाम मात्र के गुरू वयं भी डूबते हैं और उनका आलम्बन लेने वालों को भी डुबोते हैं; क्योंकि वह पत्थर के समान जलतारक गुणों से रहित होते हैं।

पण्डित दौलतराम जी ने अपने ‘छहढाला’ ग्रन्थ में कुगुरू का वर्णन करते हुए लिखा है कि -

अन्तर रागादिक धरें जेह, बाहर धन अम्बरतें सनेह।
धारे कुलिंग लहि महत भव, ते कुगुरू जनम-जल-उपल नाव।।

जो अपने मन में धनिक लोगों के प्रति प्रेम रखते हैं, स्तुतिकारों की स्तुतियों से प्रसन्न हो जाता है मन जिनका, जो शश्वत धन के संचय की भावना अपने हृदय में रखते हैं।

जिनको बाद की बात में क्रोध आता हैं, जिनका वस्त्राभूषणों से राग नहीं छूटा है, परिग्रह संचय करने का जिनका स्वभाव है, जो अपने शरीर को सुन्दर बनाने मेें लगे रहते हैं, जो सदा भोजन में अरूचि रख, मिश्री-मावा, लाडू, पूड़ी अािद मधुर रस कलित पौष्टिक भोजनों के प्रति लालसा रखते हैं, जिनकी आंखें सदैव सुन्दर रूप को देखने के लिए लालायित रहती हैं, जो श्रृगांरात्मक रागवर्धक कथाओं में आनन्द लेते हैं, तथा अपनी प्रशंसा सुन आनन्दित और निन्दा होने पर क्रूध हो उठते हैं, जो लोकरंजना के अर्थ, तप, ध्यान, स्वाध्याय करते है तथ भाषण देते हैं; जिन्हें चलने, फिरने, उठने, बैठने, बोलने आहारादि क्रियाओं का ज्ञान नही होता है, जो अपने मन को छल-कपट मायाचार से युक्त रखते हैं। अनके दोषों से जो सदैव दूषित रहते हैं। वे तो स्वयं वीतरागता सेपरे हैं, इसलिए वे दूसरों ाके क्या दे सकेंगे? कुछ भी नहींै। इसलिए सुख के इच्छुक भव्यजीवों को ऐसे गुरूओं का अवलम्बन नहीं लेना चाहिए। नहीं तो किसी ने कहा है कि-

लोभ गुरू, लालची चेला, होय नकर में ठेमल ठेला।

मात्र भेषधारी या विषयासक्त कुगुरूओं को हमें अपना गुरू स्वीकार नहीं करना है, कारण उनकी दीक्षा जगत के अंदर उदरपूर्ति के लिए ही होती है, स्वपरकल्याण के लिए नहीं। कहा भी है -

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