।। पंचम आवश्यक कर्म: तप ।।

अंतरंग तप
मोक्षमूल साक्षात है, अंतर तप वह ज्ञान।
निश्चय अनुभव होत है, प्रगटे केवलज्ञान।।65।।

अभी तक बताीय गयी उन बाह्य तपों की बात जिनके द्वारा पांचों इन्द्रियों को वश में कर आरोग्यता को प्राप्त हो किया जाता है आत्म-चिन्तन। अब की जायेगी बात उन अंतरंग तपों की जो बाह्य तपों के साथ-साथ अंतरंग में काम करते रहते हैं। उनकी परख बाह्य तपों के साथ-साथ अंतरंग में काम करते रहे हैं। उनकी परख बाह्य से नहीं की जा सकती, वे तो भावों पर निर्भर रहते हैं। अंतरंग तप कर्ममन को पड़ से नष्ट कर देते हैं, आत्मा को निर्मल बना देते हैं, सही मुक्ति-पद पर लगा पूर्ण शांति प्रदान करते हैं। अतः हमें अपने परम उपकारी-अंतरंग तपों को पूर्ण भावों के साथ हर समय करते रहना चाहिए, अगर बनना है नर से नारायण, इन्सान से भगवान तो।

प्रायश्चित तप
मन वच तन से दोष जो, कीने जान अजान।
गुरू समीप जाके तजे, प्रायश्चित उर आन।।66।।

प्रायश्चित तप उसे कहते है जिसमें जाने या अनजाने में कुछ गलत काम हो जाये, उस गलती को स्वतः गुरू को बताकर, गुरू जो कुछ इण्ड दें उसे आदर के साथ स्वीकार कर लगे हुए दोषों के प्रति ग्लानि पैदा कर , फिर कभी उस प्रकार की गलती न करना। यह तप भावों की निर्मलता के बिना नहीं होता। इस तप कापूर्ण रूप से पालन करना तो उन महामुनियों का ही काम हैजिन्होंने रागद्वेष का त्याग कर बना दिया है अपनी बुद्धि को बालकवत। हम भी अपनी योग्यता के अुनसार इस तपक ा पालन कर सकते हैं। धार्मिक या गृहस्थी सम्बंधी किसी भी प्रकार के कार्य करते समय हमसे किसी प्रकार की छोटी या बड़ी गलती हो जाये तब अगर नगर में दिगम्बर गुरू विराजे हों तो उनके समक्ष समस्त गलतियों को हमें कह देना चाहिए। ताकि उस गलती के अनुसार प्रायश्चित देरक गुरू पाप मुक्त करेंगे। अगर गुरू न हों, त्याागीव्रती हों तो उनसे, अगर वह भी न हों तो योग्य चारित्रवान पण्टितों को या अपने से बड़ों को, साथ लेकर भगवान की साक्षी में प्रायश्चित करना चाहिए और उस की हुई गलती को फिर कभी नहीं करना। माता-पिता के प्रति भी किसी प्रकार की गलती हो जाये तो उनसे भी माफी मांगना कहा जायेगा प्रायश्चित तप। इस तप को मुमुक्ष-जीव ही कर सकते हैं, क्योंकि इनके ेेसिवाय अन्य किसी भी प्राणियों के मन में सरल भाव नहीं आ सकते, पापों से भयभीत नहीं हो सकते और सच्चाई के आये बिना, पापों से विरक्त हुए बिना सही रूप से या सच्चा प्रायश्चित नहीं हो सकता। इस प्रायश्चित तप के बिना पूर्व में किसये हुए पाप भार को नहीं उतारा जा सकता। पूर्व पापभार को उतारे बिना असीम पुण्यलक्ष्मी नहीं आती। असीम पुण्यलक्ष्मी की प्राप्ति के बिना मुक्तिलक्ष्मी भी नहीं प्राप्त हो सकती। अपनी प्रत्येक गलती का प्रायश्तिच अवश्य करना चाहिए तभी मिलेगी अक्षय शांति और आनन्द।

विनय तप
विनय गुणी जन करत ेळं, त्याग लोभ अरू मान।
विनय बिना निज ना लखें, विजनय महा तप जान।।67।।

अीाी की बात उस प्रायश्चित तप की, जिसके द्वारा किया जाता है, अपने आप को निर्दोष। अब यह विनय तप बताया जा रहा है जो मद को चूर कर आत्मा के नम्र स्वभाव को प्रकट करता है। जो अपने से गुणों में श्रेष्ठ व आयु में बउत्रे तथाा सर्वपूज्य महापुरूष हैं, उनका मन-वचन-काय से यथायोग्य सत्कार करना हीं कहा जाताहै विनय तप। यह तप कितना सरल है कि इसका पालन करने में हमें किसी प्रकार का कष्ट होने वाला नहीं, किसी काम के अंदर विघ्न बाधा आने वाली नहीं और लाभ इतना होगा कि जिसे कहकर नहीं सुनाया जा सकता।

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सुबह उठते ही हमंे स्नानादि करके जिनालय जाना चाहिए, वहां पर भगवान की भक्ति-पूजनादि करके अष्टांग या पंचांग नमस्कारकरनार, भगवान जिनेन्द्र के द्वारा कहे हुए और गणधरों के द्वारा गूंथे हुए तथा परम्परा अनुसार आचार्यों के द्वारा रचे हुए शास्त्रों को भक्ति युक्त नमस्कार करना, उन को उच्च आसान देना, आचार्य उपाध्याय और महामुनियों को तथा ऐलक क्षुल्लक, आर्यिाकाओं, क्षुल्लिकाओं व ब्रह्मचारियों को यािायोग्य भक्ति और श्रद्धा के साथ नमस्कार करना चाएिह। नमस्कार करते समय मुनियों को नमोऽस्तु, ऐलक व क्षुल्लक को इच्छाकार या इच्छामि, आर्यिका माताजी को वन्दामि, ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणियों को वन्दना। साधर्मी सभी भाइयों को जयजिनेन्द्र, यही कहा जाता है विनय तप। अपने माता-पिता को और विद्यागुरू आदि अपने से ज्येष्ठ परिवारदि के मनुष्यों को नमस्कार करना, उनकी आज्ञा का पालन करना ीाी कहा जाता है विनय तप। जो भव्य प्राणी जूज्य पुरूषों की विनय करता है तो एक दिन वह भी आकर उस कोटि में खड़ा होता है जिसमें तीनों लोक के प्राणी उनकी विनय-भक्ति करने लगते हैं अर्थात वह कुछ ही समय में घातिया कर्मों को नष्ट कर केवल लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है। अतः हमें हर समय पूज्य पुरूषों की विनय करते रहना चाहिए ताकि हमारी आत्मा का जो विनय गुण है वह प्रकट हो जायेगा अैर एक समय वह भी आ जायेगा जब हम कर सकेंगे पूर्ण शांति का अनुभव।

वैयावृत्ति तप
बालक बूढ़े गुरूनिकी, सेवा के जो भाव।
वैयावृत्ति है वही, नाश करें दुख भाव।।68।।

विनय तप के पश्चात आता है नम्बर वैयावृत्ति का। वैयावृत्ति भी तभी हो सकती है जब हमारे अंदर विनय गुण होगा। अब यहां बताया जायेगा वैयावृत्ति तक को। किसी रोग या वेदना से पीडित अथवा वृद्धों की सेवा करना कही जाती है वैयावृत्ति। वैयावृत्ति करने में हमें किसी प्रकार का कष्ट भी नहीं होगा, दूसरों की खुशी देखकर आनन्द अवश्य आयेगा। परम उपकारी वीतरागी, दिगम्बर, महाज्ञानी ध्यानी, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं के शरीर में किसी प्रकार की व्याधि हो जाये, और भी किसी कारण से उनको कष्ट हो रहा हो उस समय र्पूा उपचार करके उनके रोग व कष्ट को मिटाना ही हमारा परम कर्तव्य है- और यही कही जाती है वैयावृत्ति। वृद्ध माता-पिता, परिवार आदि किसी दीन-दुखी की, किसी आपत्ति में इन्द्रियां शिथिल होने पर उन सबकी भी सेवा हमें अवश्य करनी चाहिए। यह भी कही जाती है वैयावृति। सही तो यह भी कही जाती है कि हम अपनी आत्मा को किसी प्रकार के कष्ट में न जाने दें अैर फंसी भी हो तो उसे निकालने का पूर्ण प्रयत्न करें। वह वैयावृत्ति परम तपह ै, अक्षय सुख को देने वाला है। इसलिए हमें हर समय वैयावृत्ति का पूर्णध्यान रखना होगा, तभी कर सकेंगे अनादिकाल से लगे कर्मों कोदूर अपनी आत्मा से।

स्वाध्याय तप
तप नहिं सम स्वाध्याय के, मनन साथ में होय।
मनन करें मन मिलत है, मनन करें सुख होय।।69।।

निज-पर-उपकारी वैयावृत्ति तप की अभी तक चर्चा की। अब उस स्वाध्याय तप को दर्शाया जायेगा, जिसको निमित्त बनाकर हम अपना यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। स्वाध्याय का कथन स्वाध्याय आवश्यक कर्म के अंदर कर आये हैं, फिर भी यहां कुछ और किया जा रहा है। स्वाध्याय कहते हैं - शास्त्रों के पढत्रने को परंतु शास्त्रों ाके पढ़कर हम पण्डित अवश्य बन सकते हैं। आत्मचर्चा अवश्यक कर सकते हैं, तर्क-शास्त्रार्थ अवश्य कर सकते हैं, पर वास्तव में आत्म-ज्ञान नहीं। आत्म ज्ञान तो तब होगा जब किया जायेगा मनन किये हुए स्वाध्याय के ऊपर, दिया जायेगा ध्यान अपनी आत्मा की ओर। बिना मनन के लम्बे काल तक किया हुआ स्वाध्याय भी अर्जीण भोजन के समान है। जिस प्रकार अजीर्ण भोजन को विष के समान माना जाता है उसी प्रकार मनन किये बिना स्वाध्याय को मात्र तर्क व संसार का ही कारण् माना है। इसके विषय में एक दृष्टांत देकर बताया जाता है। बिना मनन के स्वाध्याय स्व-पर को जानने वाला अर्थात् सुखदायी नहीं होगा।

दृष्टान्त

उमडद्यी हुई चली जा रही है वन की ओर। किसी एक स्थान पर बैठा एक व्यक्ति जो कि सप्तव्यसनी था, देखने लगा उस जन-समूह को और सहसा मन में भावना उत्पन्न हुई कि मुझे भी इन सबके साथ जाकर यह मालूम करना चाहिए कि यह सभी जनता मय राजा के कहां जा रही है? उठ खड़ा हुआ और साथ हो गया सभी के। आगे जाकर क्या देखता है कि एक शिला के ऊपर स्थित नग्न दिगम्बर महान तपस्वी मुनिराज बैठे हैं। सब ने मुनिराज को तीन प्रदक्षिणा देकर समक्ष आकर पंचाग नमस्कार किया और बैठ गये उपदेशामृत पान करने के लिए।

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