।। पंचम आवश्यक कर्म: तप ।।

शुभ ध्यान के भेद
ध्यान धर्म के भेद जो, चारों सुख को देत।
शक्ति लखि करते रहें, होय हमार हेत।।75।।

आचार्यों ने धर्म-ध्यान को सर्वप्रथम तो चार भागों में विभक्त यिका है आज्ञाविचक, उपयविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय।

आज्ञाविचय - भगवान जिनेन्द्र ने जो तत्वों का, वस्तु स्वभाव का उपदेश दिया है उसके ऊपर स्वयं श्रद्धान करना, आचरण करना, उनकी आज्ञा का पालन करना, आज्ञाविचय नाम का धर्म ध्यान है।

उपायविचय - अपाय का अर्थ है नाश। जिस प्रकार से कर्मों का क्षय हो सकें, मिथ्यात्व, कषाय, राग-द्वेषादि भावों का नाश हो सके; ऐसा प्रति क्षण उपाय, आचरण व चिन्तन करना कहा जाता है उपायविचय धर्मध्यान।

विपाकविचय - विपाक नाम है कर्मों का उदय। जिस समय के लिए जो कर्म बांधा था वह अपने समय में उदय होता हुआ फल देता जा रहा है, उसमें राग-द्वेष न करें, यथार्थ चिन्तन करे; वही विपाकविचय धर्मध्यान।

संस्थानविचय - जिसमें समस्त लोक की स्थिति, स्वरूपक ा चिन्तन किया जाये वह कहा जाता है संस्थानविय धर्मध्यान। इन चार प्रकार के ध्यानों का कहीं-कहीं दस प्रकार से भी विवेचन किया गया है।

संस्थानविचय ध्यान के चार भेद

आचार्यों ने शुभध्यान के चार भेद बताये हैं। वे इतने सरल हैं कि अपने जीवन में उन्हें बिना किसी परेशानी के उतारा जा सकता है और वह हमारे इतने हितेषी हैं कि संसार-दलदल से निकाल बैठा देंगे सिद्धशिला पर ले जाकर। फिर मिल जायेगी पूर्ण शांति की झलक, हो जायेंगी मुक्त-कर्म शत्रुओं से, अतः हमें इन पिंडस्थ पदस्थ, स्वरूप और रूपातीत चारों ध्यानों के स्वरूप को समझा कर सुबह-शाम जितना समय मिल सके उतने समय अवश्य करें तो हो जायेगा चलना शुरू मुक्ति-पथ की ओर।

पिंडस्थ ध्यान
पांच भेद पिण्डस्थ के, पहले इनको जान।
फिर अनुभव में लाय के, करो भेद-विज्ञान।।76।।

अब आगे पिण्डस्थ ध्यान को बताया जा रहा है। इसे हम अच्छी तरह से समझने की कोशिश करें और कर दें शुरू अभी से इनका करना; परंतु करने पांच धारणायेंह ैं - पार्थिवी धारण, आग्नेयी धारण, पवन धारणा, वारूणी धारणा और तत्व धारणा; इन सबका संक्षेप से नीचे कथन किया जायेगा।

पार्थिवी धारण
सिन्धु शांत आसन कमल, मुनि बन निज को जोय।
ये ही पार्थिवी धारण, अनुभव से सुख होय।।77।।

अपने मन में ऐसी कल्पना करें कि एक राजू विस्तार वाला है क्षीर-सागर। उनमें न तो मगरमच्छ ही दिखाई देता हैं और न किसी प्रकार का तूफान ही। बिल्कुल शांत है, किसी प्रकार की आवाज भी नहीं हैं। दिखने में ऐसा मालूम होता है मानों बर्फ ही जीम हो। उसी समुद्र के बीच तपाये स्वर्ण के समान अप्रमाण प्रभाव का धारक, एक हजार पत्र-पांखुडीयुक्त तथा पद्मराग मणिमय उदयरूप, केसरावली एक कमल का चिन्तन करें। वह कमल जम्बूद्वीप के समान एक लक्ष योजन के विस्तारवाला विचारें और उसके बीच चित्त रूपी भ्रमर को रंजायमान करने वाली मेरू के समान है कर्णिका। उस कर्णिका के ऊपर दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला, शरद्ऋतु के चन्द्रमा के समान कान्तिवाला, रत्न व मणियों से जडि़त एक सिंहासन सुशोभित हो रहा है और मैं समस्त संग (परिग्रह) को त्यागकर राग-द्वेष से मुक्त हो बैठा हूं उस सिंहासन के ऊपर और कर रहा हूं वस्तु स्वभाव, ज्ञानमयी आत्मा का चिन्तन। ऐसा विचार कहा जाता है पार्थिवी धारण। अब आगे बताया जायेगा आग्नेयी धारण का स्वरूप।

अग्नि धारण
नाभि है उन कर्मयुक्त, कमल सु चिन्तन जोय।
र्हं र्हं ज्वाला कर्म दह, अग्नि धारण होय।।78।।

जब पृथ्वी धारण का पूर्ण अभ्यास हो जाये तब उसी सिंहासन पर बैठे हुए अपनी नाभि के बीच एक षोडश पांखुड़ी के कमल का चिन्तन करें। उस कमल की एक-एक पांखु़ी-पत्र के ऊपर स्वर्णाक्षरों से लिखे हुए एक-एक स्वर अर्थात अ आ इ ई उ ऊ ऋ त्र लृ ल ए ऐ ओ औ अं अः का चिन्तन करें। तदनन्तर उस कमल के बीच सूर्य के समान चमकने वाली कर्णिका के ऊपर ‘र्हं’ नाम मन्त्र का चिन्तन करें। यह मन्त्र समस्त पापों का दहन करने वाला है-ऐसा जानकर उसी के ऊपर कुछ चिन्तन करें। कुछ समय के पश्चात उस कर्म नाशक ‘र्हं’ अक्षरों में से धूम उठता चिन्तन करें। कुछ ही समय के बाद देखें चिनगारी चमकती-धधकती हुई अग्नि को, उसी ‘र्हं’ में से उसी समय करें चिन्तन अपने हृदय में अष्ट पांखुडी वाले कमल का और एक-एक पत्र के ऊपर एक-एक कर्म की कल्पना करें, फिर विचार करें कि अग्नि ने कर दिया शुरू जलाना उस कर्म रूपी कमल को। बस, बाकी शरीर है, कर्म तो जल के भस्महो गया; ऐसा विचार करते हुए कल्पना से अग्नि का त्रिकोण बना लें और उससे शरीर को जलता हुआ चिन्तन करें। फिर चिन्तन करें कि कर्म और नोकर्म को अग्नि ने जला के भस्म कर दिया है, अब कुछ नहीं रहा शेष जलाने के लिए। अतः अग्नि स्वममेंव ही धीरे-धीरे शांत हो गई। यहां तक अग्नि धारण ध्यान का कथन किया, अब आगे बतायेंगे पवन धारण।

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पवन धारण

जब पूर्णतया अग्नि धारण का अभ्यास हो जाये तब कर दें शुरू चिन्तन पवन धारण का, बड़े भयंकर वृक्षाों को उखाड़ने वाले, मेरू को कम्पायमान करने वाले, पृथ्वीमण्डल से लेकर आकाश पर्यन्त छाये हुए, वेग के साथ चलने वाले पवन (आंधी) का चिन्तन करें और विचारें कि ‘‘र्हं’’ मन्त्र के प्रताप से जो कर्म व शरीर भस्म हो गये थे, उनकी पड़ी हुई जो राख थी उसे भी यह पवन उड़ा ले गई; इसे कहते हैं पवन धारणा। अब बताया जायेगा वारूणी धारण का स्वरूप।

वारूणी धारण
सलिल वृष्टि अति हो रही, शेष कर्म मल धोय।
रही स्वच्छ बस आत्मा, जल धारण है सोय।।80।।

वारूणी धारण में इस प्रकार का चिन्तन करें कि सघन मेघों से आकाश व्याप्त है। चमक रही हैं उसके अन्दर बिजलियां और खिंचे हुए हैं इन्द्रधनुष तथा हो रही है घोर गर्जना। उसी समय आकाश से अमृत समान मोतियों जैसे चमकते हुए सघन मेघों का चिन्तन करें और उस बरसती हुई अमृत वाणी के समान मेघधारा का उस अपनी आत्मा में जो कुछ रज चिपटी हुई रह गई थी उसे प्रक्षलित होती चिन्तन करे; इसे कहते हैं वारूणी धारण। अब कहा जायेगा तत्वाधारण का स्वरूप।

तत्व धारण
शुद्ध तत्व का अनुभवन, कीजै सिद्ध समान।
यही धारण तत्व है, फल है केवलज्ञान।।81।।

उसी सिंहासन पर आसीन इस प्रकार चिन्तन करना कि मैं कर्ममल से रहित हूं, चैतन्य स्वभाव वाला हूं, मात्र ज्ञाता-दृष्टा हूं, कर्ता भोक्ता नहीं हूं, नोकर्म आदि मेरे नहीं हैं, मैं दर्शन-ज्ञान-चारित्र का पुंज हूं, केवल ज्योति स्वरूप हूं, शुद्ध स्वभाव वाला हूं, रोग-द्वेष से मुक्त हूं, क्रोध-मान-माया-लोभादि कषायों से मैं रहित हूं, और अनन्त गुणों का स्वामी हूं। यही है तत्व धारण।

इस तत्व धारण का चिन्तन व मनन करने से ज्ञात होता है अपना स्वभाव हमें और करने लगते हैं कुछ समय के लिए इस अलौकिक सुख का आंशिक अनुभव। यह मेरी अनुभव की हुई बात है कि कुछ दिन के अभ्यास से इस ध्यान में वह आनन्द आता है जो न तो मुख से कहा जा सकता है और न कलम से लिखा जा सकता है।

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