।। पंचम आवश्यक कर्म: तप ।।

कारण - स्वाध्याय नहीं करेंगे तो उन तपों का सही ज्ञान कैसे होगा? और सही ज्ञान हुए बिना सभी तप मा? शरीर को नष्ट करने वाले होंगे, कर्मों को नहीं। इसलिए कुछ समय निकालकर एकान्त स्थान पर स्वाध्याय हमें अवश्य करना चाहिए नियम लें कि हमें इतने पेज पढ़ने हैं, अगर समय कम हो तो एक ही पेज व श्लोक पढ़ें परंतु उसके ऊपर अच्दी तरह से मनन करें, उसकी गहराई में चले जायें फिर आयेगा आनन्द। वही कहा जोगा स्वाध्याय परम तप।

कायोत्सर्ग तप
काया से ममता हटा, निज गुण होकर लीन।
वैभव है अंदर छिपा, किस कारण से दीन।।70।।

अभी तक की बात उस तप की, जिसके द्वारा आत्मा व शरीर का यथार्थ ज्ञान होता है। अब की जायेगी बात उस तप की, जो ध्यान कराने में सहायक होता है,उसे कहते हैं कायोत्सर्ग। कहीं-कहीं ऐसा भी लिखा है कि 27 श्वासोच्छ्वास में नौ बार नमस्कार मंत्र का जाप करना भी कहलता है कायोत्सर्ग। इस तपक ा र्पूातया तो वही मुनि पालन करते हैं जो रहते हैं नगर, घर छोडत्रकर एकान्त वन में। वहां अधिक समय वे कयोत्सर्ग मुदा्र में ही व्यतीत करते हैं।

इस तप को हम भी अपनी शक्ति के अनुसार अपनायें तोउसमें से कुछ आनन्द हमें ीाी अवश्यक आयेगा, जो पूर्ण तक के प्रतीक मुनियों को आता है। क्योंकि जो जितना करता है उसे उतना ही फल प्राप्त होता है। इस तप को करने से हमारे किसी भी गृहस्थी सम्बंधी कार्य में बाधा आने वाली नहीं है। सुबह उठते ही हाथ मुंह धोकर निश्चयल अवस्था में खड़े होकर मन को स्थिर करर, नौ बार णमोकर मंत्र का जाप करें, इसी प्रकार सायंकाल भी करें। व्रत के दिन किसी एकांत स्थान में जहां किसी प्रकार की बाधा नहीं हो वाहं जाकर कायोत्सर्ग तप करना चाहिए हमें। कायोत्सर्ग करते समय हम छोड़ दें अपने शरीर से मोह, चाहे कितनी भी बाधाायें क्यों न आ जायें, परंतु निश्चल ही खडत्रे रहें। तभी कहा जायेगा सच्चा कायोत्सर्ग तप और तभी होगी आत्मा-सिद्धि।

ध्यान-तप
रौद्र ध्यान नरकी पड़े, आरत पशुगति होय।
धर्म ध्यान से सद्गति, शुक्ल मुक्त गति होय।।

अभी तक की ािी बात उसी तप की, जिसके द्वारा मन, वचन ओर काय को वश में किया जाता है, अब की जायेगी बात उस ध्यान तप की, जिसके द्वारा की जाती है खोज निज आत्म-गुणों की, निज स्वभाव कीं

मन, वचन और काय - इन तीनों योगों का निरोध करके अंतर्मुहूर्त पर्यन्त उपयोग का एक जगह ठहरना कहा जाता है ध्यान। उस ध्यान कोउत्तम संहनन के धारी ही पूर्ण रूप से करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि इस ध्यान को मुनि ही करें, अपनी शक्ति के अनुसार जो करेगा वह वैसा ही फल प्राप्त होगा।

इस कर्मों को दहन करने वाले ध्यान तपक ा पालन अपने जीवन में हम भी कर सकते हैं। इसे करने से हमारी हानि ही क्या? कुछ भी नहीं और लाभ इतना अवश्य है कि ध्यान वास्वत में सही रूप से करते रहें तो एक दिन वह भी सामने आ जायेगा, जिसमें आत्मा के सभी गुणों की प्राप्ति हो जायेगी।

तिकारी नहीं ध्यान सम, शक्ति दे प्रगटाय।
ध्याता पर तज योग से, निज में निज रमि जाय।।71।।

ध्यान के चार भेद हैं - आत्र्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इनमें से पूर्व के दो आत्र्तध्यान और रौद्रध्यान अशुभ होते हैं तथा आगे के दो धर्मध्यान और शुक्लध्यान शुभ होते हैं।

अशुभ ध्यान
दुख का कारण अशुभ है, इसे करो मति कोय।
जो यदि रमि इस में गये, निज अनुभव न होय।।72।।

दुखकारी विषय का संयोग होने से अपने मन में ऐसा चिन्तवन करना कि इन दुखों से किस प्रकार मुक्त होऊँ? और दुखी होकर रूदनादि करना आत्र्तध्यान कहा जाता है। प्रिय वस्तु का वियोग होने पर दुखी होना, शरीर में रोग होने पर दुखी होना और किसी धर्मकार्य कोकरके निदान बांधना यह भी आत्र्तध्या नही कहा जाता है।

किसी जीव की हिंसा करके सुख मानना, झूठ बोलकर के आनन्द मानना, किसी की चोरी करके प्रसन्नहोना, भोगों की सामग्री पैसादि आवश्यकात से अधिक एकत्र करके प्रसन्न होना, यह कहा जाता है रौद्रध्यान। यह दोनों ध्यान करना महान पाप का कारण है और पाप के कारण जीव को दुर्गति का मुख देखना पडत्रता है। वहां अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसलिए इन मनुष्य गति में आकर के आत्र्त-रौद्र परिणामों का त्याग करें और धर्म-ध्यााान में अपने उपयोग को लगायें। नहीं, यह नरजन्म फिर से मिलना कठिन है। अशुभ विकल्पों का आना हमारे अंदर आजकल स्वभाव जैसा हो गया है क्योंकि संसारी परवस्तु में हमारा ममतव भाव अधिक बए़ चुका है। हमें यह भन नहीं है कि अैर तो मेरा क्या हो सकेगा, यह शरीर भी एक दिन धोखाा देकर चला जानेवाला है। अगर हमें यह सही ज्ञान हो जाये कि मैं तोएक चैतन्यमात्र हूं, बाह्म दिखने वाले सभी पदार्थ मुझ से भिन्न हैं, फिर अशुभ विकल्पों का आना रूक जायेगा- अपने आप, और हो जायेगा, धर्मध्यान शुरू।

धर्म ध्यान
ध्यन धर्म में धर्म दस उनको ले यदि धार।
उन्हीं का कर आचारण, सहज लगे भव पार।।73।।

पूर्वाक्त दोनों ध्यान तोदूर से ही त्यागने योग्य हैं क्योंकि इनसे बढ़कर संसार में हमारा कोई अहितकार नहीं है अैर शुक्ल ध्यान आजकर हो नहीं सकता, क्योंकि आजकल हमारे में वह उत्तर संहनन नहीं है जिसमें शुक्ल ध्यान होता है। आजकल हमारा परम उपकारी भवसागर से पार ले जाने वाला, अभुश विकल्पों को नष्ट काने वाला कोई है तो धर्म-ध्या नही है, उसका आचरण हमें प्रतिदिन मन, वचन व काय सरहना चाहिए।

धर्म

वस्तु के स्वभाव को आचार्यों ने धर्म कहा है। जैसे जीव का स्वभाव ज्ञान, दर्शन, चेतना, उत्तर आदि दस धर्म, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्-चारित्र आदि। अभेदरूप अर्थात व्यवहार से महाव्रत, अणुव्रत, समिति, गुप्ति, आवश्यक, तप क्षमा, दया, शील, वात्सल्य आदि सभी शुभ कार्यों को धर्म कहा है। इस व्यवाहर धर्म के बिना निश्चय धर्म का, जो आत्मा का स्वभाव है उसका प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए सम्यक् श्रद्धा के साथ उपर्युक्त सभी शुभकारक कार्यों को अपने जीवन में उतारना चाहिए।

ध्यान कोन कर सकता है?
भोग-काय संसार से, लेते जो मुख मोड़।
ध्यान वही कर सकत हैं, देत करम को छोड़।।74।।

जो मनुष्य संसार, शरीर, भागों से विरक्त होकर करता है आत्मा-गुणों का चिन्तन, वही सही रूप से ध्यान कर सकता है। मनुष्य त्याग देता है इन्द्रियजनिज सुखों को, विरक्त हो जाता है पंच पापों की ओर से, नहीं देता है स्थान अपने अंदर क्रोध, मान, माया और लोभ को, घटा दी है राग-द्वेष की परिणति जिन्होंने, हटा लिया है मित्र व परिवार जनों से मोह को, छोड़ दी है चिन्ता धन कमाने की, शरीर सजाने की, नहीं होते हैं विचार उनक अन्दर में किसी का अहित करने के नष्ट हो गई है स्वार्थ बद्धि, अन्य जीवों के प्रति (उनको मोक्ष मार्ग पर लगाने के लिए) , हो गया है वात्सल्यभाव, दयाभाव जिनके और जो अष्टमूलगुणों के धारी हैं, सप्त व्यसनों के त्यागी है, प्रत्येक दिन देव-भोजन करते है, पानी छानकर पीते हैं और भोजन दिन में ही समस्त अहितकार क्रियाओं से परे रहते हैं अर्थात इन अकरणीय क्रियाओं की ओर से मोड़ लेते हैं अपने मन को और लगा देते हैं वस्तु-स्वभाव के चिन्तन में तथा धार्मिक कार्यों में, वही भव्य जीव धर्म-ध्यान का पात्र है अर्थात वही सही रूप में धर्म-ध्यान कर सकत है दूसरा नहीं।

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