Home
Bhajans
Videos
Aarti
Jain Darshan
Tirthankar Kshetra
KundKundacharya
Sammed Shikharji
Vidhi Vidhan
जैन पंचांग
January
February
March
April
May
June
July
August
September
October
November
December
|| जिन-वचन ||
भासमाणो ण भासेज्जा णो य बंफेज्ज मम्मयं ।
माइट्ठाणं विवज्जेज्जा अणुवीइ वीयागरे ॥
A monk should not interrupt others while they are talking. He should not take delight in betraying confidence of others. He should avoid deceitful speech. His speech should be pre-meditated.
कोई आपस में बातचीत कर रहे हों उनके बीच में मुनि बोले नहीं, किसी की गुप्त बात प्रकाशित न करे, कपटयुक्त वचनों का त्याग करे और जो बोले वह सोचकर बोले ।
जो जीवे वि न याणति अजीवे वि न याणति ।
जीवा जीवे अयाणंतो कह सो नाहिइ संजमं ।।
One who does not know what life is also does not know what non-life is. Thus he being ignorant of what life is and what non-life is, how can he know what self-control is ?
जो जीवों को नहीं जानता और अजीवों को भी नहीं जानता, इस तरह जीव और अजीव को न जाननेवाला वह संयम को कैसे जानेगा ?
जो जीवे वि वियाणति अजीवे वि वियाणति ।
जीवा जीवे वियाणंतो सो हु नाहिइ संजमं ॥
One who knows what life is, also knows what non-life is. Thus, one who knows what life is and what non-life is, also knows what self-control is.
जो जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है, इस तरह जीव और अजीव को जाननेवाला वह संयम को जानता है ।
पढमं नाणं तओ दया एवं चिट्ठइ सव्वसंजए ।
अन्नाणी किं काही किं वा नाहिइ छेय पावगं ॥
First there must be knowledge and then compassion. This is how all monks achieve self-control. What can an ignorant person do ? How can he know what is good for him and what sin is ?
पहले ज्ञान और फिर दया; इस प्रकार सब मुनि संयम में स्थित होते हैं । अज्ञानी क्या करेगा ? और वह क्या जानेगा कि अपने लिए क्या श्रेय है और क्या पाप है ?
सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा
पियजीवणो जीविउकामा सव्वेसि जीवियं पियं ।
All living beings love their life. For them happiness is desirable; unhappiness is not desirable. Nobody likes to be killed. Everybody is desirous of life. Everyone loves his own life.
सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है, सुख अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है, वध अप्रिय है, जीवित रहना प्रिय है । सब जीवन के इच्छुक हैं और सबको अपना जीवन प्रिय होता है।
एक्कं पि बंभचेरे जंमिय आराहियं पि आराहियं वयमिणं
सव्वं तम्हा निउएण बंभचेरं चरियव्वं ॥
Those who have properly practised the single vow of celibacy are said to have practised all the vows. Therefore, a wise person should practise the vow of celibacy perfectly.
जिन्होंने सिर्फ एक ब्रह्मचर्य व्रत की ठीक आराधना कर ली है उन्होंने सब व्रतों की आराधना कर ली है ऐसा समझना चाहिए । इस लिये निपुण साधक ब्रह्मचर्य व्रत की ठीक से आराधना करे ।
पूयणट्टा जसोकामी माण-सम्माण कामए ।
बहु पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वई ॥
A monk who is active to get himself worshipped by others, keen on fame and expects respectful treatment everywhere is in fact indulging in deceitful Karma and commits many sins.
स्वपूजा का इच्छुक, यश का कामी और मान-सम्मान की कामना करनेवाला मुनि बहुत सारे पाप उत्पन्न करता है और माया-शल्य का सेवन करता है ।
अबंभचरियं धोरं पमायं दुरहिट्ठियं ।
ना यरंति मुणी लोए भेयाययण वज्जिणो ॥
A breach of the vow of celibacy is a horrible sin. It is the root of carelessness and the cause of worst result. Therefore a monk should not commit such an offence in the world. He should keep himself away from such places as may challenge his self-control.
अब्रह्मचर्य इस लोक में घोर पाप है, प्रमाद का घर है और दुर्गति का कारण है । इस लिए मुनि अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करते और संयम का भंग करे ऐसे स्थानों से दूर रहते हैं।
जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुल्लओ भयं ।
एवं खु बंभयारिस्स इत्थीविग्गहो भयं ।।
Just as a young chicken has constant fear of cats, similarly, a person practising the vow of celibacy has constant fear of the body of a woman.
जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को सदा बिल्ली से भय होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय होता है।
अप्पत्तियं जेण सिया आसु कुप्पेज वा परो ।
सव्वसो तं न भासेज्जा भासं अहियगामिणिं ।
One should never utter such harmful words as may create displeasure or distrust in others, or by hearing which others may immediately lose their temper.
जिस भाषा से अप्रीति और अविश्वास उत्पन्न हो या और कोई शीघ्र कुपित हो ऐसी अहितकर भाषा सर्वथा नहीं बोलनी चाहिए ।
«
1
2
3
4
5
6
7
8
9
10
11
12
13
14
15
16
17
18
19
20
»