।। पांच परमेष्टि नमस्कार मंत्र ।।

सिद्धम्। एकाक्षरं पंचपरमेष्ठिनामपरम्। उक्तं च। सिद्धं, यह एकाक्षर पांचों परमेष्ठियों के नाम का वाचक है। कहा भी है- 

अरहंता अशरीर आयरिया तह उवज्झाया मुणिणो।
पणामक्खरनिप्पणणों ऊंकारों पंचपरमेट्ठि।।1।।

अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनियों के प्रथमाक्षर से निष्पन्न ऊँकार यह पंचपरमेष्ठी है। 

इहलोकपरलोकेष्टफलप्रदानार्थ ज्ञात्वा वचनोचारेण
जाप्यं कुरूत। तथैव शुभोपयोग-त्रिगुप्त्यवस्थायां मौनेन ध्यायत।।1।।

इस पंच परमेष्ठी मन्त्र को इहलोक और परलोक में इष्टफल का प्रदाता जानकर वचन के उच्चारण से जाप्य करते रहना चाहिए। और शुभोपयोग और मन-वचन-काय-गुप्ति की अवस्था में मौनपूर्वक इसका ध्यान करना चाहिए।  

अथ बज्रपंजरस्तोत्रम्

परमेष्उिनमस्कारं सारं नवपदात्मकम्।
आत्मरक्षकरं बज्रपंजराख्यं स्मराम्ययहम्।।1।।
परमेष्ठी नमस्कार मन्त्र नवपदात्मक है और सभी मन्त्रों का सार-भूत है। यह आत्मा की रक्षा करने वाला है। इस बज्रपंजर स्तोत्र का मैं स्मरण करता हूं।
ऊँ ण मो अरहंताणं शिरस्कन्धसंस्थितम्।
ऊँ णमो सिद्धाणं मुखे मुखपटांबरम्।।2।।

ऊँ णमो आयरियाणं अंगं रक्षति साधिनाम्।
ऊँ णमो उवज्झायाणं आयुधे हस्तयोर्द्धयोः।।3।।

ऊँ णमो लोए सव्वसाहूणां मोचके पादयोः शुभे।
एसो पंच णमोकारो शालिबज्रमयस्तले।।4।।

सव्वपापप्पणासणो बज्रो बज्रमयो बहिः।
मंगलाणं च सव्वेसिं खदिरांगारखातिकाम्।।5।।

स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं पढमं हवइ मंगलम्।
वप्रोपरि वज्रमयं पिधानं देहिरक्षणम्।।6।।

महाप्रभावरक्षेय क्षुद्रोपद्रवनाशिनी।
परमेष्ठिपदोदृभूता कथिता पूर्वसूरिभिः।।7।।

यश्चैनां कुरूते रक्षां परमेष्ठिपदैः सदा।
तस्य न संपाद् भयं व्याधिराधिश्चापि कदाचन।।8।।

ऊँ णमो अरहन्ताणं यह शिर और कन्धों की रक्षा करें। ऊँ णमो सिद्धाणां यह मुख और मुखपटाम्बर की रक्षा करे। ऊँ णमो आयरियाणं यह साधकों की अंग-रक्षा करता है। ऊँ णमो उवज्झायाणां यह देानों हाथों की रक्षा करे, आयुधों की रक्षा करें। ऊँ णमो लोए सव्वसाहूणां चरणों की रक्षा करें। यह पंच नवकार दोनों पैरों में शालिबज्र के सामन है। सव्वपापप्पणासणों यह बाहर बज्रमय है और मंगलाणं च सव्वेसिं खदिर की अग्नि के लिए खाई के समान है। पढमं हवइ मंगलम् यह स्वाहान्त पद जानना चाहिए। यह बज्रपंजर देहधारियों के शरीर पर बज्रमय पिंघान (आवरण) है। यह महाप्रभावमयी रक्षा है। क्षुद्र उपद्रवों का नाशक है। परमेष्ठियों के पद से उत्पन्न है और पूर्वाचार्यों द्वारा कहा गया है। जो परमेष्ठी पदों से इसकी रक्षा करता है, उसे कोई भय, व्याधि और आधि नहीं होती।

अथ भस्मपंजरस्तवरोजो लिख्यते।
परमेष्ठिनमस्कारं सारं नवपदात्मकम्।
आत्मरक्षाकरं बज्रपंजरार्भ स्मराम्यहम्।।1।।

ऊँ णमो अरहंताणं शिरस्कन्धरसंस्थितम्।
ऊँ णमो सिद्धाणां मुखे मुखपटाम्बरम्।।2।।

ऊँ णमो आइरियाणं अंगरक्षातिशायिनी।
ऊँ णमो उवज्झायाणं आयुधं हस्तयोर्दृढम्।।3।।

ऊँ णमो लोए सव्वसाहूणं मोचके पादयोः शुभे।
एसो पंच णमोकारो शिला बज्रमयी तले।।4।।

सव्वपापप्पणसणों बप्रो वज्रमयो बहिः।
मंगलाणं च सव्वेसिं खदिरांगारखातिकां।।5।।

स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं पढमं हवइ मंगलम्।
वप्रोपरि बज्रमयं पिधान देहरक्षणों।।6।।

महाप्रभावरक्षेयं क्षुद्रोवनाशिनी।
परमेष्ठिपदोद्भूता कथिता पूर्वसूरिभिः।।7।।

यश्चैवं कुरूते रक्षाां परमेष्ठिपदैः सदा।
तस्य न स्याद् भयं व्याधिराधिश्चापि कदाचन।।8।।
(यह बज्रपंजर के समान ही है। इसलिए इसका अर्थ बज्रपंजर-स्तोत्र के समान ही जानना चाहिए।)
इति श्रीभस्मपंजरस्तोत्रं सर्वआधिव्याधिहरं समाप्तम्।

मन्त्र-साधना-विधान

णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणां।।1।।

इस गणमोकार मन्त्र के पहले पद के सात, दूसरे पद के पांच, तीसरे पद के सात, चैथे पद के सात, पांचवें पद के नौ एवं समस्त णमोकार मन्त्र के 35 (पैंतीस) अक्षर हैं।
नवकार मन्त्र के 46 स्वरूप

यह णमोकार मन्त्र महान मन्त्र है, स्वर्ग मोक्ष का दाता है। इस मन्त्र से अनेक जीवों का कल्याण हुआ है। इसके स्मरणमात्र से हर प्रकार के विघ्न विलय जाते हैं। इस नवकार मन्त्र में लौकिक कार्य की सिद्धि के वास्ते तरह-तरह के बीजाक्षर कहीं पहले कहीं पीछे करने से इसके 46 (छियालीस) स्वरूप (मन्त्र) बनते हैं। उन मन्त्रों से कार्यसिद्धि भी अलग-अलग है।

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