।। जैनरक्षास्तोत्रम् (बज्रपंजरकवचं) ।।

प्रागादीशानपर्यन्तं पुष्टिं विद्वेषणं तथा।
आकृष्टिं मोहनं वश्यं उच्चाटं स्तम्भमारणे।।1।।
सर्वातिशयसम्पूर्णन् ध्यात्वा सर्वजिनाधिपान्।
पंच वर्णन् पंच रूपविषयद्रुमकुंजरान्।।2।।
चतुर्गात्रान् चतुर्वक्त्रान् चतुविशतिसम्मितन्।
जैनीं सर्वांगेषु रक्षां कुर्वें दुःखौघघातिनीम्।।3।।

मैं (साधक) पुष्टि, विद्वेषण, आकर्षण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तम्भन, मारण के लिए सम्पूर्ण 34 अतिशय से युक्त भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर-पर्यन्त सब जिनेश्वारों को, जो कि पंचवर्ण (धवल, नील, रक्त, प्रियंगुप्रभ और तप्तकांचनाभ) वाले हैं और पंचेन्द्रिय रूपी विषय-वृक्षों के लिए कुंजर (गज) के समान हैं तथा चार गात्र ओर चार मुख वाले हैं, (उनको) स्मरण करके दुःखाों के समूह कानाश करने वाली सर्वांग-रक्षा को कहता हूं (करता हूं)।

शिरो में वृषभः पातु भालं श्रीअजितप्रभुः।
पातां में श्रीजिनौ नेत्रे सम्भवश्चाभिनन्दन।।4।।
सुमतिः पद्प्रभुश्च श्रवणे मम रक्षताम्।
सुपाश्र्वों रक्षतु घ्राणं मुखं चन्द्रप्रभः प्रभुः।।5।।
रसनां सुविधिः पातु कंठं श्रीशीतलो जिनः।
स्कन्धौ श्रेयांसश्रीवासुपूज्यश्च विमलो भुजौ।।6।।
अनन्तरीधर्मनाथौ पातां में करपल्लवौ।
शांतिर्मे हृदयं रक्षेत् मध्यं नाभिं च कुंथ्वरौ।।7।।
मल्लिः कटिं सक्थिनी च रक्षतान्मुनिसुव्रतः।
नाभिर्जनुद्वयं पायान्नेमिर्जंघाद्वयीं पुनः।।8।।
श्रीपाश्र्वों वर्द्धमानश्च रक्षतां में पदद्वयम्।
चतुर्विंशतिरूपोऽव्यादर्हन् में सकलं वपुः।।9।।
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भगवान् ऋृषभदेव मेरे शिर की, अजितनाथ मस्तक की, सम्भवनाथ और अभिनन्दन जिनेन्द्रदेव दोनों नेत्रों की, सुमतिनाथ और पद्मप्रभु मेरे दोनों कानों की, सुपाश्र्वनाथ धारण की, भगवान चन्द्रप्रभु मुखकी, सुविधिनाथ मेरी जिह्वा की, शीतलता कंठ की, श्रेयांस और वासुपूज्य दोनों स्कन्धों की, विमलनाथ दोनों भुजओं की , अनन्तनाथ और धर्मनाथ मेरे दोनों हाथों की, शांतिनाथ मेरे हृदय की, कुन्थुनाथ और अरनाथ मध्य और नाभि की, मल्लिनाथ कटिप्रदेश की, मुनि-सुव्रतनाथ जंघाओं की (सांथलों की) नमिनाथ दोनों जानुओं की, नेमिनाथ दोनों जंघाओं की तथा पाश्र्वनाथ और महावीर भगवान् मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें। चतुर्विशति तीर्थंकररूप भगवान् अरहंत मेरे सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करें।

एतां जिवलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत्।
स चिरायुः सुखी भूत्वा न व्याधिर्विजयी भवते्।।10।।

भगवान् जिनेन्द्रदेव के आशीर्वाद से युक्त इस रक्षास्तोत्रं को जो पुण्यात्मा पढ़ेगा वह चिरायु और विजयी होगा और उसे किसी प्रकार की आधि-व्याधि नहीं होगी।

पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मकारिणः।
न दृष्टुमपि शक्तास्तं रक्षितं जिननामभिः।।11।।

पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरण् करने वाले मायावी जीव भगवान जिनेन्द्रदेव से रक्षित की ओर देख भी नहीं सकते।

जिनेति जिभद्रेति जिनचन्द्रेति वा स्मरन्-
नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति।।12।।

जिन, जिनभद्र ओर जिनचन्द्र के रूप में भगवान का स्मरण करने वाला व्यक्ति पापों से लिप्त नहीं होता तथा उसे भोग और मक्ति दोनों ही प्राप्त होते हैं।

बज्रपंजरनाभेदं यो जैनः कवचं पठेत्।
अव्याहतांगः सर्वत्र लभते जयमंगलम्।।13।।

इस बज्रपंजर नामक कवच को जो जैन पढ़ेगा, वह सभी अंगो से सुरक्षित, सर्वत्र जय और मंगल को प्राप्त होगा।

जगज्जैत्रैकमन्त्रण जिननाम्नैव रक्षितं।
लिखित्व धारयेद् यस्तु करस्थाः सर्वसिद्धयः।।14।।

जिननामरूपी जगद्विजयी इस मंत्र के द्वारा रक्षित इस स्तोत्र को लिखकर जो धारण करेगा, उसके हाथों में सभी सिद्धियां आ जाती हैं।

ललाटे दक्षिणस्कन्धे वामस्कन्धे करेऽपि च।
वामकक्षावामकट्योर्जानौ पदतलेऽपि च ।।15।।
नाभौ गुह्ये दक्षिणांघ्रितले दक्षिणजानुके।
कटीकक्षाहस्ततलस्तनेषु दक्षिणेषु च।।16।।

ललाट पर, दक्षिण स्कन्ध पर, वामस्कन्ध, हाथ पर, वायीं, कक्षा कटिप्रदेश, जानुद्वय (घुटने), पादतल, तथा नाभि, गुह्यस्थान (गुप्तांग) एवं दक्षिणजानु, कटिप्रदेश, हस्ततल तथा दक्षिण स्तन पर (इस मन्त्र को लिखे)।

यथेमां दृष्टवान् स्वप्ने जैनरक्षामिह प्रभुः।
जिनेन्द्राख्यो गुरूः प्रातः प्रबुद्धस्तां तथा लिखेत्।।17।।

इस जैनरक्षा स्तोत्र को भगवान् जिनेन्द्र स्वप्न में जिस प्रकार दिखावें, साधक प्रातःकाल उठकर उसे उसी प्रकार लिख लें।

वामस्तने चेतिमन्त्रवर्णन् सप्तदश स्मरन्।
ऊँ ह्मां ह्मी प्रमुखास्तस्य स्युर्मनीषितसिद्धयः।।18।।

और वामस्तन पर (इस मन्त्र को लिखे)। इन सत्रह मन्त्रवर्णों का स्मरण करे। इस मन्त्र में ऊँ ह्मां ह्मी ये बीजाक्षर प्रमुख हैं। इस प्रकार करने वाले साधक को मनोवांछित सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

रक्षा-मन्त्र

आपदा-नाशन-मन्त्रः।
ऊँ नमो वृषभनाथाय मृत्युंजयाय सर्वजीवशरणाय परमपवित्र-पुरूषाय चतुर्वेदाननाय अष्टादशदोषरहिताय सर्वाय सर्वदर्शिने अष्ट-महाप्रातिहार्याय चतुस्त्रिंशदतिशयसहिताय श्रीसमवसरणे द्वादशपरिखावेष्टिताय ग्रहनागभूतयक्षराक्षसवश्यंकराय सर्वशांतिकारय मम शिवं कुरू कुरू स्वाह।
इति आपदानाशनमन्त्र‘
सर्वरक्षामन्त्रः।
ऊँ क्षां क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षों क्षौं क्षं क्षः नमोऽर्हते सर्व रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा।

ऋषभदेवक्षामन्त्रः।
ऊँ ऋषभाय अमृतविन्दवे ठः ठः ठः स्वाह।
रक्षा अभिमन्त्र इक्कीस दिन तक प्रतिदिन 108 बार पढ़े। इससे समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं। और शिर की पीड़ा (शिःशूल) दूर हो जाते हैं। सर्वरक्षामन्त्रः।
ऊँ ह्मू क्षूं फट् किरटिं घातय घातय परिविघ्नान् स्फोटय स्फोटय सहस्त्रखण्डान् कुरू कुरू परमुद्रां छिन्द छिन्द परमान्त्रान् भिंद भिंद ह्मां क्षां क्षं वः फट् स्वाहा।
विधि- पढ़ कर सरसों चारों ओर फेंके। ब्रह्मचर्यपूर्वक इसका तप करे और रात्रि में भोजन न करे। आत्मरक्षामन्त्रः।
ऊँ क्षिप ऊँ स्वाहा।
विधि- इसे प्रतिदिन 108 बार जपे।