।। पांच परमेष्टि नमस्कार मंत्र ।।

श्रीमानतुंगाचार्यविरचितं नमस्कारमन्त्रस्तवनम्।

भत्तिव्भरअमरपणयं पणामिय परमिअ्ठिपंचयं सिरसा।
नवकारसारथवणां भणामि भव्वाणाभयहरणम्।1।

भक्ति-पूर्वक देवताओं से प्रणाम किये गये पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करे भव्य जीवों के भय केा हरने वाले नमस्कारसार सतवन को मैं कहता हूं।

ससिसुविही अरिहंता सिद्धा उपमामा-वासुपुज्जजिणा।
धम्मायरिया सोलस पासो मल्ली उवज्झाया।।2।।
सुव्वय-नेमी साहूं दुट्ठारिट्ठस्स नेमिणो धणियं।
मुक्खं खेयरपयविं अरिहंता दिंतु पणायाणां।।3।।

चन्द्रप्रभु और सुविधिनाथ तीर्थकर भगवान का अर्हन्त के रूप में, पद्मप्रभ और वासुपूज्य भगवान का सिद्ध के रूप में ध्याना चाहिये तथा ऋषभ-अजित’सम्भव’अभिनन्दन’सुमति’सुपाश्र्व-शीतल-श्रेयांस-विमल-अनंत-धर्म-शांति-कुन्थु-अर-नमि-महावीर इन सोलह का आचार्य के रूप में तथा मल्ली और पाश्र्वनाथ का उपाध्यय के रूप में ध्यान करना चाहिए। मुनिसुव्रत और नेमिनाथ तीर्थकरों का साधुस्थान में ध्यान करना चाहिए। साधु दुष्ट अरिष्ट (आपत्तयों) के नाश करने में चक्रधारा के समान होते हैं। अर्हन्त प्रणतजनों के लिए मोक्ष एवं खेचर पदवी को प्रदान करें।

तियलोयवसीयरणं मोहं सिद्धा कुणांतु भुवणस्स।
जल-जलणाए सोलस पयत्थ थंभंतु आयरिया।।4।।

सिद्ध भगवान् तीनों लोक का वशीकरण करें अैर संसार का मेहन करें। आचार्य जल आदि (जल, ज्वलन, विषधर, चोर, शत्रु, सिंह, सर्प, भय, संग्राम, शाकिनी-डाकिनी-राकिनी-लाकिनी-छाकिनी, हाकिनी) इन सोलह का स्तम्भन करें।

इहलोइयलाभकरा उवज्झाया हुंतु सव्वभयरण।
पावुच्चाडण-ताडणनिउणा साहू सया सरह।।5।।

इह लोक के लिए लाभ करने वाले उपाध्याय समस्त भयों को हरने वाले हों। हे भव्यजनो! साधु पाप के उच्चाटन, मारण आदिक कर्मों में सदा सहायक हों।

महिमण्डलमरहन्ता गयणां सिद्धाय सूरिणो जलणो।
वरसंवरमुवझाया पवणो मुणिणो हरन्तु दुहम्।।6।।

पृथ्वीतत्व में अर्हनत भगवान् का ध्यान करना चाहिए, आकाशतत्व में सिद्धों का, जलतव में आचार्यों का ओर तैजसतत्व में उपाध्यायों का तथा पवनतत्व में मुनियों का ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार से ध्यान करने पर ये पांचों परमेष्ठी हमारे दुःखों का नाश करने वाले हों।

ससिधवला अरहंता रत्ता सिद्धा य सूरिणो करणाया।
मरगयमा उवझाया सामा साहू सुहं दिंतु।।7।।

अर्हनतों का चन्द्रसमान उज्जवल वर्ण ध्यान करना चाहिए, सिद्धों का रक्तवर्ण, आचार्य कनकवर्ण, उपाध्याय मरकतमणिसदृश नीलवर्ण और साधुओं का श्यामवर्ण (कृष्णवर्ण) ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार से ध्यान करने पर ये पंचपरमेष्ठी हमें कल्याणदायक हों।

सीसत्था अरहंता सिद्धा वयणम्मि सूरिणो कंठे।
हिययम्मि उवज्झाया चरणठिया साहुणो वंदे।।8।।

अर्हंन्तों को शिरःस्थ ध्यान करना चाहिये, मुख में सिद्धों का, कठ में सूरियों (आचार्यों) का, हृदय में उपाध्यायों का ओर चरण-प्रदेश में साधुओं का ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार ध्यान किये गये इन पांचों परमेष्ठियों को हमारी वन्दना हो।

अरिहंता असरीरा आयरिया उवज्झाया तहा मुणिणो।
पंचक्खरनिप्पन्नो ओंकारो पंचपरमेट्ठी।।9।।

अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि इनके पंचाक्षरों से निष्पन्न ओंकार ी पंचपरमेष्ठी है।

बट्टकला अरिहंता तिउणा सिद्धा य लोढ़कल सूरी।
उवझाया सुद्धकला दीहकला साहुणो सुहया।।10।।

वर्तुल (गोल) आकारयुक्त अर्हंन्त, त्रिकोणकार सिद्ध, लोष्टक-आकारधारी आचार्य, द्विीतया के चन्द्र की कला के समान आकारधारी उपाध्याय,दीर्धकला (प्रलम्बकला) के आकारधारी साधु ध्यान करने वालों के लिये सुखकारी हों।

पुंसित्थि-नपुंसय-रायपुरिस-बहुसद्दवणणाणिाज्जाणां।
जिणा-सिद्ध-सूरि-वायग-साहूणकमे, णामंसामि।।11।।

पुरूषांशक अर्हन्त, नारीअंशक सि., नपुंसकांशक आचार्य, राजपुरूषाशक उपाध्याय और श्रद्धजनांशक साधुओं को मैं नमस्कार करता हूं।

पढभ-दुसरारिहंता चउस्सरा सिद्ध-सूरि-उवझाया।
दुग-दुगसरा कमेणां नंदन्तु मुनीसरा दुसरा।।12।।

प्रथम द्विस्वर (अ-आ) रूप अर्हन्त होते हैं। इ-ई-उ-ऊ इन चतुःस्वर रूप सिद्ध होते है। आचार्य ए-ऐ रूप होते हैं। ओ-औः रूप उपाध्याय होते हैं। इस प्रकार ये दो दो स्वर वाले अर्हन्त आदिक तथा द्विस्वर अं-अः रूप मुनीश्वर जयशाली हों।

ते पुर्णअएकचटतपयस त्ति नववग्ग वन्न पणयाला।
परमिट्ठिमण्डलकमा पढमंतिमतुरियतियवीया।।13।।

वे गर्ण अ-ए-क-च-ट-त-प-य-स इस प्रकार नव वर्गों में विभक्त 45 अक्षर होते हैं। वे परमेष्ठीमंडल क्रमानुक्रम से प्रथम, अन्तिम, चतुर्थ, तृतीय और द्वितीय होते हैं।

ससिसुक्के अरिहंते रविमंगल सिद्ध गुरू-वाफा सूरी।
सरह उवज्झाय केऊ कमेण साहू साणी राहू।।14।।

अर्हन्त, भगवान चन्द्र और शुक्र के, सिद्ध सूर्य और मंगल के, आचार्य गुरू (वृहस्पति) और दूध के, उपाध्याय केतु के और साधु शनि और राहु के रूप में स्मरण करने योग्य है।

वणणानिवहो कगाई जेसिं बीओ हकारपज्जंतो।
नियनियसरसंजोगा सरेमि चूड़ा मणिं तेहिं।।15।।

जिन अर्हन्त आदिकों का ककार से लेकर हकार पर्यन्त वर्णसूह बीजः है, अपने स्वर के संयोग से उनकी चूड़मण्यिा को मैं स्मरण करना है।

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