।। पंच नमस्कार स्तोत्रम् ।।

विश्लिष्यन् घनकर्मराश्ज्ञिमशनिः संसारभूमिभृतः
स्वर्निर्वाणपुरप्रवेशगमने निष्प्रत्यवायः सताम्।
मोहांघवटसंकटे निपततां हस्तावलम्बोऽर्हतां
पायाद् वः सचराचरस्य जगतः संजीवनं मन्त्रराट्।।1।।

अनादिकाल से साथ लगी हुई कर्मराशि को नष्ट करने वाला, संसाररूपी पर्वत का भेदन करने वाला, सज्जनों के लिए स्वर्ग और मोक्ष-नगर में प्रवेश करते समय आने वाले समस्त विघ्नों को दूर करने वाला, मोहान्धकार रूप गर्त में (गड्ढे में) पड़े हुए प्राणियों के लिए हस्तावलम्बन स्वरूप और सम्पूर्ण चर-अचर जगत् के लिए संजीवन ऐसा यह अर्हन्त आदिक पंचपरमेष्ठी स्वरूप नमस्कार मन्त्रराज है, वह आपकी रक्षा करे।

एकत्र पंचगुरूमन्त्रपदाक्षराणि
विश्वत्रयं पुनरनन्तगुणां परत्र।
यो धारयेत् किल तुलानुगतं तथापि।
वन्दे महागुरूतरं परमेष्ठिमन्त्रम्।।2।।

पंचपरमेष्ठीमंत्र के माहात्म्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि तुला में एक पल्ले में पंच गुरूमंत्र अर्थात् नमस्कार मंत्र को रखा जाए और दूसरे पल्ले पर अनन्तगुण तीनों लोकों को रख दिया जाए तो भी तीनों लोकों से अधिक भारवाले (गुणशील) परमेष्ठीमंत्र का पल्ला ही गुरू रहेगा। मैं ऐस परमेष्ठीमंत्र को नमस्कार करता हूं।

ये केचनापि सुषमाद्यरका अनन्ता।
उत्सर्पिणीप्रभृतयः प्रययुर्विवर्ताः।
तेष्वप्ययं परतरः प्रथितप्रभावो
लब्ध्वामुमेव हि गताः शिवमत्र लोकाः।।3।।

जो कोई सुषमा आदि अनन्त आरे और उत्सर्पिणी-अवसपिणी आदि विवर्त (कालचक्र) व्यतीत हो गय, उन सभी समयों में यह मंत्र-राज प्रसिद्ध प्रभावनाशील है। इसी को प्राप्त करके तीनों लोक शिव (कल्याण) को प्राप्त हो गये।

उत्तिष्ठन् निपतन् चलन्नपि वसन् पीठे लुठन् वा स्मरे-
ज्जाग्रद् वा प्रहसन् स्वपन्नपि वने बिभ्यन्विषीदन्नपि।
गच्छन् वत्र्मनि वेश्मनि प्रतिपदं कर्म प्रकृर्वन्नमुं
यः पंचप्रभुमन्त्रमेकमनिशं किं तस्य नो वांदितम्।।4।।

उठते हुए, गिरते हुए चलते हुए, ठहरते हुए, आसनप पर लेटे हुए, जागते हुए, हंसते हुए, सोते हुए, वन में भ्रमण करते हुए, भयकातर होने पर, दुःखग्रस्त होने पर, मार्ग में चलते हुए, घर में प्रतिपद कर्म करते हुए जो व्यक्ति इस पंचप्रभुओं (पंचमेष्ठियों) के मंत्र को निरन्तर जपता है, उसको कौन ऐसा वांछित पदार्थ है, जो मिल नहीं जाता। अर्थात् वह सभी वांछितों को प्राप्त करता है।

संग्राम-सागर-करीन्द्र-भुजंग-सिंह-
दुव्र्याधि-वह्नि-रिपु-बन्ध सम्भवानि।
चैर-ग्रह-भ्रम-निशाचरशाकिनीतां
नश्यन्ति पंचपरेमष्ठिपदैर्भयानि।।5।।

पंच परमेष्ठी पदो ंके स्मरण से संग्राम, सागर, हाथी, सर्प, सिंह, दुष्ट व्याधियां, अग्नि, शत्रु और बन्धन से उत्पन्न होने वाले, चोर, ग्रहपीड़ाजन्य, भ्रमसम्भूत, निशाचर ओर शाकितनयों के द्वारा उत्पन्न भय नष्ट हो जाते हैं।

योलक्षं जिनबऋलक्ष्यहृदयः सुव्यक्तवर्णक्रमः
श्रद्धावान् विजितेन्द्रियो भवरं मन्त्र जपेच्छावकः।
पुष्पैः श्वेतसुगन्धिभिः सुविधिना लक्षप्रमाणेरमु
यः सम्पूजयते स विश्वमहितस्तीर्थाधिनाथो भ्वेत्।।6।।

जो जिनेश्वर भगवान् में हृदयवृत्तियों को एकाग्र करके अपने ध्येय के प्रति श्रद्धावान् होकर वर्णक्रमों का स्पष्टताया उच्चारण करने वाल, जितेन्द्रिय श्रावक भव (संसार) का नाश करने वाले पंच नमस्कार मंत्र का जाप करता है और विधिपूर्वक एक लाख सुगन्धित पुष्पों से पूजा करता है, वह जगत्पूज्य तीर्थंकर हो जाता है।

इन्दुर्दिवाकरतया रविरिन्दुरूपः
पातालमम्बरमिला सुरलोक एव।
किं जल्पितेन बहुना भुवनत्रयेऽपि
यन्नाम तन्न विषम च समं च न स्यात्।।7।।

इस मंत्रराज के प्रभाव से इच्दा करने पर चन्द्रमा सूर्यरूप में, सूर्य चन्द्ररूप में, पाताल आकाश रूप में, पृथ्वी स्वर्गरूप में परिणत हो सकते हैं। अधिक कहने से क्या? तीनों लोक में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जे इस मंत्रराज के साधक के लिए सम चाहने पर सम और विषम चाहने पर विषम न हो जाये।

जग्मुर्जिनास्तदपवर्गपद्ं तदैव
विश्वं वराकमिदमत्र कथं विनास्मात।
तत् सर्वलोकभुवनोद्वरणय धीरै-
र्मन्त्रात्मकं जिनवपुर्निहितं तवात्र।।8।।

जिनेन्द्रदेव तो तभी मोक्ष में चले गये तो फिर यह विश्व बेचारा बिना जिनेन्द्रों के किस प्रकार ठहरा हुआ है? हां, समझ में आय, धीर व्यक्तियों ने सम्पूर्ण लोकों एवं भुवनों के उद्वार के लिये यहां पर जिनेन्द्र भगवान् का मंत्रात्मक शरीर (ही) रख लिया है।

हिंसावाननृतप्रियः परधनाहर्ता पर स्त्रीतरः
किंचान्येष्वपि लोकगर्हितमतिः पापेषु गाढ़ोद्यमः।
मन्त्रेशं यदि संस्मरेद्धि सततं प्राणत्यये सर्वदा
दुष्कर्माहितदुर्गतिक्षतचयः स्वर्गी भवेन्मानवः।।9।।

हिंसा करने वाला, मिथ्या भाषण में रूचि रखने वाला, पराये धन का अपहारक, परस्त्रगामी तथा अन्य लोकनिन्दित पापों में विशेेष साहस रखने वाला ऐसा व्यक्ति भी यदि प्राणत्याग के समय मंत्रराज का जप करे तो समस्त दुष्कर्मजन्य दुर्गतियों का क्षय करके देवपद को प्राप्त करे।

अयं धर्मः श्रेयानयमपि च देवो जिनपतिः
व्रतं चेतत् श्रीमानयमपि च यः सर्वफलदः।
किमन्यैर्वाग्जालैर्बहुभिरपि संसार-जलधौ
नमस्कारत्त् किं यदिह शुभरूपं न भवित।।10।।

यह नमस्कार मंत्रराज ही श्रेयस्कर धर्म है, यही जिनेन्द्रदेव है, यही पवित्र व्रत है, यही श्री से युक्त है, यही सम्पूर्ण फलदाता है, अन्य वाग्जालों से क्या? इस संसार रूप समुद्र में वह क्या है जो इस नमस्कार मंत्र से शुभ यप नहीं हो जाता हो।

स्वपन् जाग्रत्तिष्ठन्नपि पथि चलन् वेश्मनि सरन्
भ्रमन् क्लिश्यन् माद्यन् वनगिरिसमुद्रेष्ववतरन्।
नमस्कारान् पंच स्मृतिखनिनिखातानिव सदा
प्रशस्तैर्विज्ञप्तानिव वहति यः सोऽत्र सुकृती।।11।।

सोते हुये, जागते हुये, ठहरते हुये, मार्ग में चलते हुये, घर में चलते हुये, घूमते हुये, क्लेशदशा में, मद-अवस्था में, वन-गिरि और समुद्रों में अवतरण करते हुये, जो व्यक्ति (सुकृती) प्रशस्तों से विज्ञापित किये गये इन नमस्कार मन्त्रों को अपनी स्मृतिरूप खजाने में रख्े हुये के समान धारण करता है वह बड़ा भाग्यशाली (सुकृती-पुण्यवान्) है।

इति उमास्वामिकृत पंचानमास्कारस्तोत्रम् समाप्तम्