अनादिकाल से साथ लगी हुई कर्मराशि को नष्ट करने वाला, संसाररूपी पर्वत का भेदन करने वाला, सज्जनों के लिए स्वर्ग और मोक्ष-नगर में प्रवेश करते समय आने वाले समस्त विघ्नों को दूर करने वाला, मोहान्धकार रूप गर्त में (गड्ढे में) पड़े हुए प्राणियों के लिए हस्तावलम्बन स्वरूप और सम्पूर्ण चर-अचर जगत् के लिए संजीवन ऐसा यह अर्हन्त आदिक पंचपरमेष्ठी स्वरूप नमस्कार मन्त्रराज है, वह आपकी रक्षा करे।
पंचपरमेष्ठीमंत्र के माहात्म्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि तुला में एक पल्ले में पंच गुरूमंत्र अर्थात् नमस्कार मंत्र को रखा जाए और दूसरे पल्ले पर अनन्तगुण तीनों लोकों को रख दिया जाए तो भी तीनों लोकों से अधिक भारवाले (गुणशील) परमेष्ठीमंत्र का पल्ला ही गुरू रहेगा। मैं ऐस परमेष्ठीमंत्र को नमस्कार करता हूं।
जो कोई सुषमा आदि अनन्त आरे और उत्सर्पिणी-अवसपिणी आदि विवर्त (कालचक्र) व्यतीत हो गय, उन सभी समयों में यह मंत्र-राज प्रसिद्ध प्रभावनाशील है। इसी को प्राप्त करके तीनों लोक शिव (कल्याण) को प्राप्त हो गये।
उठते हुए, गिरते हुए चलते हुए, ठहरते हुए, आसनप पर लेटे हुए, जागते हुए, हंसते हुए, सोते हुए, वन में भ्रमण करते हुए, भयकातर होने पर, दुःखग्रस्त होने पर, मार्ग में चलते हुए, घर में प्रतिपद कर्म करते हुए जो व्यक्ति इस पंचप्रभुओं (पंचमेष्ठियों) के मंत्र को निरन्तर जपता है, उसको कौन ऐसा वांछित पदार्थ है, जो मिल नहीं जाता। अर्थात् वह सभी वांछितों को प्राप्त करता है।
पंच परमेष्ठी पदो ंके स्मरण से संग्राम, सागर, हाथी, सर्प, सिंह, दुष्ट व्याधियां, अग्नि, शत्रु और बन्धन से उत्पन्न होने वाले, चोर, ग्रहपीड़ाजन्य, भ्रमसम्भूत, निशाचर ओर शाकितनयों के द्वारा उत्पन्न भय नष्ट हो जाते हैं।
जो जिनेश्वर भगवान् में हृदयवृत्तियों को एकाग्र करके अपने ध्येय के प्रति श्रद्धावान् होकर वर्णक्रमों का स्पष्टताया उच्चारण करने वाल, जितेन्द्रिय श्रावक भव (संसार) का नाश करने वाले पंच नमस्कार मंत्र का जाप करता है और विधिपूर्वक एक लाख सुगन्धित पुष्पों से पूजा करता है, वह जगत्पूज्य तीर्थंकर हो जाता है।
इस मंत्रराज के प्रभाव से इच्दा करने पर चन्द्रमा सूर्यरूप में, सूर्य चन्द्ररूप में, पाताल आकाश रूप में, पृथ्वी स्वर्गरूप में परिणत हो सकते हैं। अधिक कहने से क्या? तीनों लोक में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जे इस मंत्रराज के साधक के लिए सम चाहने पर सम और विषम चाहने पर विषम न हो जाये।
जिनेन्द्रदेव तो तभी मोक्ष में चले गये तो फिर यह विश्व बेचारा बिना जिनेन्द्रों के किस प्रकार ठहरा हुआ है? हां, समझ में आय, धीर व्यक्तियों ने सम्पूर्ण लोकों एवं भुवनों के उद्वार के लिये यहां पर जिनेन्द्र भगवान् का मंत्रात्मक शरीर (ही) रख लिया है।
हिंसा करने वाला, मिथ्या भाषण में रूचि रखने वाला, पराये धन का अपहारक, परस्त्रगामी तथा अन्य लोकनिन्दित पापों में विशेेष साहस रखने वाला ऐसा व्यक्ति भी यदि प्राणत्याग के समय मंत्रराज का जप करे तो समस्त दुष्कर्मजन्य दुर्गतियों का क्षय करके देवपद को प्राप्त करे।
यह नमस्कार मंत्रराज ही श्रेयस्कर धर्म है, यही जिनेन्द्रदेव है, यही पवित्र व्रत है, यही श्री से युक्त है, यही सम्पूर्ण फलदाता है, अन्य वाग्जालों से क्या? इस संसार रूप समुद्र में वह क्या है जो इस नमस्कार मंत्र से शुभ यप नहीं हो जाता हो।
सोते हुये, जागते हुये, ठहरते हुये, मार्ग में चलते हुये, घर में चलते हुये, घूमते हुये, क्लेशदशा में, मद-अवस्था में, वन-गिरि और समुद्रों में अवतरण करते हुये, जो व्यक्ति (सुकृती) प्रशस्तों से विज्ञापित किये गये इन नमस्कार मन्त्रों को अपनी स्मृतिरूप खजाने में रख्े हुये के समान धारण करता है वह बड़ा भाग्यशाली (सुकृती-पुण्यवान्) है।
इति उमास्वामिकृत पंचानमास्कारस्तोत्रम् समाप्तम्