(1) जो पुरूष मन्त्र साधन करने के लिए जिस किसी स्थान में जावे प्रथम उस क्षेत्र के रक्षक देव से प्रार्थना करे कि मैं इस स्थान में इतने काल तक ठहरूंगा तब तक के लिए आज्ञा प्रदान करो। और किसी प्रकार का उपसर्ग होवे तो निवारियों - क्योंकि, हमारे जैनमुनि भी जब कहीं किसी स्थान में जाकर ठहरते हैं तो उसके रक्षक देव को कहते हैं कि इतने दिन तक तेरे स्थान में ठहरेंगे तू क्षमा भाव रखियो। इस वास्ते गृहस्थियों को अवश्य ही उपरोक्तानुसार रक्षक देत से आज्ञा लेनी चाहिए।
(2) जब मन्त्र साधन करने के वास्ते, जावो तब जहां तक हो ऐसे स्थान में मन्त्र सिद्ध करो जहां मनुष्यों का गमनागमन न हो। जैसे अपने जैनतीर्थ मांगीतुड्गीजी, सिद्धवर कूट, रेवानदी के तट पर, या सोनागिरिजी या और जो अपने जैनतीर्थ एकान्त स्थान में है। या बगीचों के मकानों में, पहाड़ों में तथा नदी के किनारे पर या निर्जन स्थान में, ऐसे स्थानों में मन्त्र सिद्ध करने को जाना चाहिए। जब उस स्थान में प्रवेश करो, वहां ठहरो तो मन, वचन, काय से उस स्थान का जो रक्षक देव या यक्ष आदि है उसका योग्य विनय करके मुख से यह उच्चारण करे कि हे इस स्थान के रक्षक, मैं अपने इस कार्य की सिद्धि के वास्ते तेरे स्थान में आया हूं। तेरी रक्षा का आश्रय लिया है। इतने दिनों तक मैं तेरे स्थान में रहने के लिए आया हूं, तेरी रक्षा का आश्रय लिया है। इतने दिनों तक निवास के लिए आज्ञा प्रदान कीजिए। अगर मेरे ऊपर किसी तरह का संकट, उपद्रव या भय आवे तोउसे निवारण कीजिए।
(3) जब मन्त्र साधन करने जाओ तो एक नौकर साथ ले जाओ। जो रसोई की वस्तु लाकर रसोई बनाकर तुमको भोजन करा दिया करे। तुम्हारा धोती-दुपट्टा धो दिया करे, जब तुम मन्त्र साधन करने बैठी तब तुम्हारे सामान की चैकसी रक्खे।
(4) जो मंत्र साधन करना हो पहले विधिपूर्वक जितना-जितना हर दिन जप सके तना-उतना हर दिन जप कर सवा लाख पूरा कर मन्त्र साधन करे, फिर जहां काम पड़े उसका जाप जितना कर सके 108 बार या 21 बार या जैसा मन्त्र में लिखा हो, उतनी बार जपने से कार्य सिद्ध होवे। मन्त्र शुद्ध अवस्था में जपे। शुद्ध भोजन खाये। और मन्त्र में जिस शब्द के आगे दो-दो का अंक हो उस शब्द का दो बार उच्चारण करे।
(5) जब मन्त्र जपने बैठे, पहले रक्षा-मन्त्र जपकर अपनी रक्षा कर लिया करे। ताकि कोई उपद्रव अपने जाप्य में विघ्न न डाल सके। अगर रक्षा-मन्त्र जप कर मन्त्र जपने बैठे तो सांप, बिच्छू, भेडि़या, रीछ, शेर, बकरा उसके बदन को न छू सकें - दूर ही रूकें। मन्त्र पूर्ण होने पर जो देव देवी सांप वगैरह बनकर उसको डरने आवें तो जो रक्षा-मन्त्र जप कर जाप करने बैठे उसके अंग को वह छू नहीं सकें- सामने से ही डरा सकें। जब मन्त्र पूर्ण होने को आवे तब देव देवी विक्रिया से सांप वगैरह हो डराने आवे तो डरे नहीं, चाहे प्राण जावे तो डरे नही ंतो मन् सिद्ध होय। मनोकामना पूर्ण होय। यदि बिना मन्त्र रक्षा के (रक्षा-मन्त्र के) जपने बैठे तो पागर हो जावे। इस वास्ते पहले रक्षा-मन्त्र जप कर पश्चात दूसरा मन्त्र जपना चाहिए।
(6)मन्त्र जहां तक हो सके ग्रीष्म ऋतु में सिद्ध करना चाहिए, ताकि धोती-दुपट्टा में सर्दी न लगे। मन्त्र सिद्ध करने में धोती-दुपट्टा दो ही कपड़े रखे। वे कपड़े शुद्ध हों, उनको पहने हुए पाखाने नहीं जावे, खाना नहीं खावे, पेशााब नही ंजावे, सोवे नहीं जब जाप कर चुके तो उन्हें अलग उतार कर रख देवे, दूसरे वस्त्र पहन लिया करे, यह वस्त्र नित्य हर दिन स्नान कर बदन पौंछ कर पहना करे- यह वस्त्र सूत के पवित्र वस्तु के हों। ऊन, रेशम वगैरह अपवित्र वस्तु के न हों; इतने स्त्री सेवन न करे। गृहकार्य छोड़ेकर एकान्त में मन्त्र-जप सिद्ध करे।
(7) मन्त्र में जिस रंग की माला लिखी हो उसी रंग का आसन यानी बिस्तरा आदि। धोती-दुपट्टा भी उसी रंग का हो तो और भी श्रेष्ठ है, यदि माला उस रंग की न होवे तो सूत की माला या जियापोते की माला उस रंग की रंग लेवे। जब मन्त्र जपने बैठे तो इतनी बातों का ध्यान रखे।
(8) पहले सब काम ठीक करके मन्त्र जपे।
(9) आसन सबसे अच्छा आसन है, या सफेद या पीला या लाल-जैसा जिस मंत्र में चाहिए वैसा बिछावे।
(10) ओढ़ने को धोती-दुपट्टा सफेद उम्दा हो या जिस रंग का जिस मन्त्र में चाहिए वैसा हो।
(11) शरीर की शुद्धि करके परिणाम ठीक करके धीरे-धीरे तसल्ली के साथ जाप्य करे, अक्षर शुद्ध पढ़े।
(12) मन्त्र पद्मासन से बैठकर जपे। जिस प्रकार हमारी बैठी हुई प्रतिमाओं का आसन होता है, बायां हाथ गोद में रख कर दाहिने हाथ से जपे। जो मन्त्र बायें हाथ से जपना लिखा हो तो वहां दाहिना हाथ गोद में रखकर बायें हाथ से जपे।
(13) जहां स्वाहा लिखा हो, वहां धूप के साथ जपे यानी धूप आगे रखे।
(14) जहां दीपक लिखा हो, वहां घी का दीपक आगे बालना चाहिए।
(15) जिस जिस अंगुली से जाप्य लिखा हो उसी अंगुली और अंगूठे से जपे। अंगुलियों के नाम आगे लिखे हैं।
अंगुलियों के नाम-
अंगूठे को अंगुष्ठ कहते हैं।
अंगूठे के साथ की अंगुली को तर्जनी कहते है।
तीसरी बीच की अंगुली को माध्यमा कहते हैं।
चैथी यानी मध्यमा के पास को अंगुली को (अंगुष्ठ से चैथी को) अनामिका कहते हैं।
पांचवीं सबसे छोटी अंगुली को कनिष्ठा कहते हैं।
जाप्यविधि में मोक्ष के वास्ते अंगूठे से तथा धर्म के वास्ते अंगुष्ठ के साथ तर्जनी से, शांति के लिए मध्यमा तथा सिद्धि के लिए अनामिका अंगुली से जाप्य करे।
कनिष्ठा सर्वसिद्धि के वास्ते श्रेष्ठ है। ये जाप के लक्षण जानने। बिना मर्यादा किया हुआ सब जाप्य निष्फल होते है। अर्थात किसी मन्त्र का 21 बार जाप्य लिखा है तो वहां 21 से कम या अधिक जाप्य नहीं करना, ऐसा करने से निष्फल होता है। मन्त्रसिद्धि नहीं होती।
अंगुली के अग्रभाग से जो जपा जाएं तथा माला के ऊपर जो तीन दाने मेरू के हैं उनको उल्लंघन करके जो जाप्य किया जाए तथा व्याकुल चित्त से जो जाप्य किया जाए वह सब निष्फल होता है।