(इस ‘नवग्रहशाांति स्तोत्र’ में चैबीसों तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा नवग्रहों की शांति का वर्णन किया गया है। यह संस्कृत के नवग्रह शांति स्तोत्र का पद्यानुवाद है।)
त्रैलोक्यगुरू तीर्थंकर प्रभु को, श्रद्धायुत मैं नमन करूं। सतगुरू के द्वारा प्रतिभासित, जिनवर वाणी को श्रवण करूं।। भवदुःख से दुःखी प्राणियों को, सुख प्राप्त कराने हेतु कहूं। कर्मोदय वश संग लगे हुए, ग्रह शांति हेतु जिनवचन कहूं।।1।। नभ में सूरज चन्दा ग्रह के, मंदिर में जो जिनबिम्ब अधर। निज तुष्टि हेतु उनकी पूजा, मैं करूं पूर्ण विधि से रूचिधर।। चन्दन लेपन पुष्पांजलि कर, सुन्दर नैवेद्य बना करके। अर्चना करूं श्री जिनवर की, मनयागिरि धूप जलाकर के।।2।। ग्रह सूर्य अरिष्ट निवारक श्री, पद्मप्रभु स्वामी को वन्दूं। श्री चन्द्र भाौम ग्रह शांति हुए, चन्द्रप्रभु वासुपूज्य वन्दूं।। बुध ग्रह से होने वाले कष्ट, निवारक विमल अनंत जिनम्। श्री धर्म शांति कुन्थू अर नमि, सन्मति प्रभु को भी करूं नमन।।3।। प्रभु ऋषभ अजित जिनवर सुपाश्र्व, अभिनन्दन शीतल सुमतिनाथ। गुरूग्रह की शांति करें संभव, श्रेयांस जिनेश्वर अीाी आठ।। ग्रह शुक्रअरिष्टनिवारक भगवन्, पुष्पदंत जाने जाते। शनि ग्रह की शांती में हेतू, मुनिसुव्रत जिन माने जाते।।4।। श्री नेमिनाथ तीर्थंकर प्रभु, राहू ग्रह की शांती करते। श्री मल्लि पश्र्व जिनवर दोनों, केतू ग्रह की बाधा हरते।। ये वर्तमान कालिक चैबिस, तीर्थीं सब सुख देते हैं। आधी व्यााधी का क्षय करके, ग्रह की शांती कर देते हैं।।5।। आकाशगमन वाले ये ग्रह, यदि पीडि़त किसी को करते हैं। प्राणी की जन्मलग्न एवं, राशी के संग ग्रह रहते हैं।। तब बुद्धिमान जन तत्सम्बंधित, ग्रह स्वामी को भजते हैं जिस ग्रह के नाशक जो जिनवर, उन नाम मंत्र वो जपते हैं।।6।। इस युग के पंचम श्रुतकेवलि, श्री भद्रबाहु मुनिाज हुए। वे गुरू इस नवग्रह शांती की, विधि बतलाने में प्रमुख हुए।। जो प्रातः उठकर हो पवित्र, तनम न से यह स्तुति पढ़ते। वे पद-पद पर आने वाली, आपत्ति हरें शांती लभते।।7।।
-दोहा-
नवग्रह शांती के लिए, नमूं जिनेश्वर पाद। तभी ‘‘चन्दना’’ क्षेम सुख, का मिलता साम्राज्य।।8।।
नवग्रहशांति स्तोत्र रचयित्री - आर्यिका चन्दनामती
-शंभु छनद-
सिद्धों का वंदन इस जग में, आतम सिद्धि का कारण है। इनकी भक्ति से भक्त करें, दुर्गति का सहज निवारण है।। सब तीर्थंकर भगवंत एक दिन, सिद्धि प्रिया को पाते हैं। इसलिए सभी ग्रह की शांति में, वे निमित्त बन जाते हैं।।1।। नभ में जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू व शुक्र, शनि ग्रह माने। राहू केतू मिलकर नवग्रह, ज्योतिष देव के ग्रह माने।। मानव के जन्म समय से ये, सब जन्मकुण्डली में रहते। शुभ-अशुभ आदि फल देने में, राशी अनुसार निमित बनते।।2।। जब ग्रह अनिष्टकारी होवे, तब प्रभु भक्ती रक्षा करती। जिनसागर सूरि ने बतलाया, नवग्रह में नव प्रभु की भक्ती।। श्रीपद्मप्रभ भगवान सूर्य ग्रह, के अरिष्ट को शांत करें। ग्रह सोम का जब होवे प्रकोप, तब भक्त चन्द्रप्रभु याद करें।।3।। निज मंगल ग्रह की शांति हुए, प्रभु वासुपूज्य को नमन करो। बुधग्रह जब देवे कष्ट तुरत, प्रभु मल्लिनाथ अर्चन कर लो।। महावीर प्रभू गुरू ग्रह से होने, वाले कष्ट मिटाते हैं। निज गुरूबल तेज्रस्वी करने हित, वर्धमान को ध्याते हैं।।4।। श्री पुष्पदंत भगवान शुक्र ग्रह, के शांतिकारक माने। शनिग्रह अति उग्र हुआ तो भी मुनिसुव्रत प्रभु उसको हानें।। ग्रह राहु अगर होवे अरिष्ट, तो नेमिनाथ का मंत्र जपो। प्रभु पाश्र्वनाथ के चरणों में, ग्रह केतु शांति हेतू प्रणमो।।5।। ये नव तीर्थंकर नवग्रह की, शांति में हेतू माने हैं। है दुख का मूल असाता ही, पर बाह्य निमित ग्रह माने हैं।। जिन भक्ति असाता कर्मों को, साता में परिवर्तित करती। ग्रह से उत्पन्न सभी बाधा, तब ही तो शांत हुआ करती।।6।। पूजन-अर्चन के साथ-साथ, ग्रहशांति मंत्र का जाप करो। जितनी संख्या जिस मंत्र की है, उसके कर मन संताप हरो।। अपने प्रभु के अतिरिक्त कहीं, मिथ्यामत में मत भरमाना। दुख संकट आने पर भी कभी, जिनधर्म को भूल नहीं जाना।।7।। नवग्रहशांति की पूजन कर, नवग्रह का कभी विधान करो। तीर्थंकर प्रभु के गुण गाकर, निज आतम गुण भंडार भरो।। निज जन्मकुण्डली में स्थित, ग्रह को भी उच्चस्थान करो। फिर सूर्य-चन्द्र सम शुभ प्रकाश से, जीवन का उत्थान करो।।8।। बीसवीं सदी की प्रथम बालसति, गणिनी माता ज्ञानमती। उनकी शिष्या ‘‘आर्यिका चन्नामति’’ ने यह स्तुती रची।। पच्चिस सौ तीस वीर संवत्, तिथि फाल्गुल कृष्णा चतुर्दशी। निजशांति हेतु ग्रहशांति हेतु, प्रभु पद में अर्पित काव्यकृती।।9।।