अथ णमोकारकल्पः प्रारभ्यते।
प्रथमं पंचपरमेष्ठीस्तोत्रम्।
पांच महाव्रतों का पालन करने वाले, तप के प्रति उत्सुक रहने वाले, आहार के सम्बंध में विवेकशील, श्रेष्ठवंश में उत्पन्न हुए, संसार, देह और भोगों से विरागी तथा अट्ठाईस मूलगुण धारण करने वाले मुनि कहलाते हैं। इन गुणों के बिना मुनि नहीं कहला सकते।
ग्यारह अंग और चैदह पूर्व के जो स्वयं पाठी हैं अर्थात जो स्वयं पढ़ते हों और दूसरों को पढ़ाते हों वे उपाध्याय कहलाते हैं।
निर्विकल्प समाधि को धारण करने वाले, स्वानुीावरूपी अमृत का अवगाहन करने वाले साधक (आचार्य) विवेक की अंजलि बना कर ज्ञान का आस्वादन करते हैं।
घाति कर्मों का नाश करके अघाति कर्मों को जल हुई रस्सी के समान कर देने वाले छयालीस गुणों से युक्त अर्हन्त भगवान् होते हैं। इन गुणों के बिना अर्हन्त नहीं कहे जाते।
अर्हन्त पद की संज्ञा समाप्त होने पर जो सम्यक्त्वादि आठ गुणों से युक्त होते हैं तथा संसार के आवागमन से छूट जाते हैं वे महान सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं।
सम्यकज्ञानी पुरूषें की अलौकिक वृत्ति का वर्णन कौन कर सकता है। क्योंकि जहां अज्ञानी जीव रागान्ध होकर बंध को प्राप्त करता है। क्योंकि जहां अज्ञानी जीव रागान्ध होकर बन्ध को प्राप्त करता है, ज्ञानवान् उन्हीं कार्यों में स्वानुभवपरिणति द्वारा कर्मों की निर्जरा को प्राप्त करता है।
मिथ्यात्व रूपी विष को छोउ़कर सम्यक्त्वरूपी अमृत को पीना चाहिए, जिससे कर्मव्याधियों का नाश होकर अविनाशी मोक्षसुख की प्राप्ति हो।
जिसके पास सम्यक्त्वरूपी धन है, उसे भव-भव में सुख प्राप्त होता है। किंतु सांसारिक धन कुछ समय के लिए सुख देता हुआ लगता है किन्तु वस्तुतः वह दुःखों का दाता है।
दरिद्र किन्तु तत्वार्थवान् और विचक्षण मनुष्य श्रेष्ठ है किन्तु जो शास्त्रज्ञान से रहित है वह श्रेष्ठ नहीं है। अच्छे नेत्रवाला भले ही फटे-पुराने वस्त्र पहने किन्तु अच्छा लगता है किन्तु नेत्रहीन व्यक्ति भले ही सुवर्ण के आभूषण पहने हुए हो, सुन्दर प्रतीत नहीं होता।
आज मेरे दोनों नेत्र सफल हुए है, हे देव! जो आपकी चरणाम्बुज-छवि का दर्शन किया। है त्रिलोकतिलक! आज यह संसारसमुद्र मुझे आपकी कृपा से चुल्लूभर मालूम पड़ रहा है।
विनय से विद्या प्राप्त होती है, तप से स्वर्ग मिलता है। दान से भोगभूमि में जाकर जन्म होता है और ज्ञान से अविनाशी मोक्ष-पद प्राप्त होता है।
इति पंचपरमेष्ठीगुणस्तवनं सम्पूर्णम्।